ट्रिपल तलाक़ के आवरण में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की बहस

0
2249

ट्रिपल तलाक़, समान नागरिक संहिता (यूसीसी) और लैंगिक
न्याय पर हाल ही की बहस का कोलाहल दिखाता है कि कैसे
बहस का अपहरण कर लिया जाता है और फिर किस तरह उसे
बेरहम ‘फांसी’ पर चढ़ा दिया जाता है। स्वस्थ्य बहस की गूँज हर
जगह सुनाई देती है लेकिन मुझे अभी तक ऐसी किसी स्वस्थ्य
बहस का तजुर्बा नहीं हुआ है जो इस मुद्दे पर की गयी हो। आज
जब मैं इस मुद्दे की परतों को खोलने साहस जुटाऊँगी तो थोड़े
संयम की आवश्यकता है क्योंकि यह बहस हाँ या न वाली बहस
नहीं हैं। हम सबसे पहले यूनिफार्म सिविल कोड की शब्दावली के
साथ ही बहस की शुरूआत करते हैं। एक संविधान जो बराबरी
के बीच समानता का वादा करता हो कैसे ‘यूनिफ़ॉर्म’ जैसी
शब्दावली को थोप सकता है। कानूनी बहुलवाद, जो हमारी
संवैधानिक नैतिकता में निहित है, के कारण ही संविधान निर्माताओं
ने बजाए इसके कि यूनिफार्म सिविल कोड को अनिवार्य तौर पर
लागू करे, इसे राज्य के नीति-निदेशक तत्व में रखा है।इसके
अलावा, जैसा कि हम देखते हैं कि किस तरह भारतीय संविधान
नवम्बर 2016 छात्र विमर्श 10
में विवाह से संबंधित निजी कानूनों के लिए एक कानूनी ढांचा
पहले से मौजूद है। विवाह के पंजीकरण के संबंध में प्रासंगिक
कानूनों के संकलन से यह प्रतीत होता है कि चार कानून हैं जो
विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए प्रदत्त हैं। वे हैंः (1) विवाह
अधिनियम, 1953 (महाराष्ट्र और गुजरात के लिए लागू) की बंबई
पंजीकरण, (2) कर्नाटक विवाह (पंजीकरण और प्रकीर्ण उपबंध)
अधिनियम, 1976, (3) विवाह अधिनियम हिमाचल प्रदेश पंजीकरण,
1996 और (4) आंध्र प्रदेश विवाह अधिनियम का अनिवार्य
पंजीकरण।
2002 में पांच राज्यों में मुस्लिम विवाह की स्वैच्छिक पंजीकरण
के लिए बनाया गया प्रावधान जो असम, बिहार, पश्चिम बंगाल,
उड़ीसा और मेघालय में लागू है। असम मुस्लिम विवाह और
तलाक रजिस्ट्रेशन एक्ट 1935, उड़ीसा मुस्लिम विवाह और
तलाक पंजीकरण अधिनियम 1949 तथा बंगाल मुस्लिम विवाह
और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1876 प्रासंगिक कानून हैं।
उत्तर प्रदेश में भी यह प्रतीत होता है कि राज्य सरकार ने एक
नीति पंचायतों द्वारा विवाह के अनिवार्य पंजीकरण और जन्म
और मृत्यु से संबंधित अपने रिकॉर्ड के रखरखाव के लिए
उपलब्ध कराने की घोषणा की है। विशेष विवाह अधिनियम
1954 भारतीय नागरिकों पर धर्म की कैद किये बिना बिना
प्रत्येक शादी को विशेष रूप से नियुक्त विवाह अधिकारी द्वारा
पंजीकृत करना जरूरी है। यह उन सभी धर्म जाति, संप्रदाय के
लोगों के लिए एक वैध कानूनी मार्ग है जिनको लगता है कि
निजी कानून लैंगिक न्याय अनुकूल नहीं हैं।
2002 में पांच राज्यों में मुस्लिम विवाह की स्वैच्छिक पंजीकरण के लिए बनाया गया प्रावधान जो असम,
बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मेघालय में लागू है। असम मुस्लिम विवाह और तलाक रजिस्ट्रेशन
एक्ट 1935, उड़ीसा मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1949 तथा बंगाल मुस्लिम विवाह
और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1876 प्रासंगिक कानून हैं। उत्तर प्रदेश में भी यह प्रतीत होता है कि
राज्य सरकार ने एक नीति पंचायतों द्वारा विवाह के अनिवार्य पंजीकरण और जन्म और मृत्यु से संबंधित
अपने रिकॉर्ड के रखरखाव के लिए उपलब्ध कराने की घोषणा की है। विशेष विवाह अधिनियम 1954
भारतीय नागरिकों पर धर्म की कैद किये बिना बिना प्रत्येक शादी को विशेष रूप से नियुक्त विवाह
अधिकारी द्वारा पंजीकृत करना जरूरी है। यह उन सभी धर्म जाति, संप्रदाय के लोगों के लिए एक वैध
कानूनी मार्ग है जिनको लगता है कि निजी कानून लैंगिक न्याय अनुकूल नहीं हैं।
नवम्बर 2016 छात्र विमर्श 11
अब रहा ट्रिपल तलाक का मामला मेरा मानना है कि काफी
हद तक ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी)
ट्रिपल तलाक पर उस दिशाहीन बहस के लिए जिम्मेदार है जो
हम आज कर रहे हैं। बोर्ड एक विशेष फ़िक़ह अर्थात हनफ़ी स्कूल
(इस्लामी कानून के स्कूल), को लागू करने की हठधर्मी दिखा रहा
है जो स्वतंत्रा भारत में मौजूद इस्लाम के सभी संप्रदायों में लागू नहीं
किये जा सकते है। वे पूरी तरह से एक पितृसत्तात्मक और
बहुसंख्यकों की मानसिकता है जो संहिताबद्ध या विनियमित
मुस्लिम कानून की परिपक्व आवाज के लिए बहुत नुकसानदेह है।
तो बुनियादी तौर पर यह मानसिकता है जो अदालत या प्रतिबंध
लगाने से या एक फरमान जारी कर देने से रातों-रात नहीं बदली
जा सकती है। यह बाल-विवाह की तरह एक बुरा व्यवहार है और
समाज के भीतर से खत्म करने की जरूरत है।
दूसरी तरफ सरकार यूनिफार्म जैसे सराब के पीछे भागने में
अतिउत्साहित नजर आ रही है। इस जल्दबाजी में यूसीसी पर
पर्याप्त रूप से अनुसंधान की जरुरत भी महसूस नहीं कर रही
है। बहस का एक महत्वपूर्ण पहलू कानून का सामाजिक सिद्धांत
है जो सामान्य रूप से महज नियमों, सिद्धांतों तथा निर्णयों की
व्यवस्था ज्ञात होते हैं तथा जो समाज में स्वतंत्रा रूप से अस्तित्व
में आने का कारण बनते हैं। परंतु जब हम पर्सनल लॉं को
समान नागरिक संहिता में गडमड करते हैं तो हमें इनके सन्दर्भों
में देखने की कोशिश करनी चाहिए। इस बात का ख्याल रखने
की भी आवश्यकता है कि पर्सनल लॉं का मामला सिर्फ मुसलमानों
की समस्या नहीं है बल्कि यह समस्या भारत में मौजूद विभिन्न
प्रकार की धार्मिक, नस्ली पहचान रखने वाली हर कौम की
समस्या है। हमें इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि लोगों
को अपने विवाह, तलाक तथा अन्य चीजों के लिए इन मंचों तक
जाने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? वास्तविकता यह है कि ये
मंच मध्यस्थता और सुलह मंचों की भूमिका निभाते हैं तथा
आसानी से मामलों को हल कर रहे हैं। यूनिफार्म सिविल कोड
को लागू करने में अतिउत्साहित सरकार और लॉ कमीशन एक
अच्छा सवालनामा भी तैयार नहीं कर पाई।
अगर हम वाकई सामान नागरिक संहिता की बात करना ही
चाहते है तो इस बात पर भी बहस होनी चाहिए कि किस तरह
से हिन्दू अविभाजित परिवार को कर छूट प्राप्त होती है, तब फिर
क्यों सिर्फ मुस्लिम पर्सनल लॉं ही लाइम-लाइट में आ जाता है?
इससे यदि हमारे किसी मौलिक अधिकार का हनन होता है तो
हम कोर्ट में अर्जी दाखिल करते हैं और न्यायपालिका केस की
प्रिऑरिटी के आधार पर फैसला सुनाती है। पर्सनल लॉ सब के
लिए है तो सिर्फ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ही ने इसे अपने अहम
पर क्यों लिया? वहीं सरकार तो अपने बहुसंख्यक एजेंडे की
राजनीति कर ही रही है। किसी भी तरह से लेकिन यह आकलन
मुश्किल है कि लैंगिक न्याय का मुद्दा किसी भी समूह के एजेंडे
का हिस्सा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here