बिहार से बाहर बीजेपी

0
2442

यह पहली बार नहीं दूसरी बार हुआ है कि बीजेपी का रथ बिहार में रोक दिया गया है। रोचक तथ्य तो यह है कि दोनों ही बार रथ रोकने वाला व्यक्ति एक ही है और वह है लालू प्रसाद यादव। पहले आडवाणी और अब उनके शिष्य नरेंद्र मोदी की लहर को लालू यादव ने ठंडा कर दिया। बिहार के चुनाव परिणाम देश की जनता के लिए एक बड़ी राहत लेकर आए हैं।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक चुनावी सभा में विश्वास व्यक्त किया था कि बिहार की जनता इस साल दो दिवाली मनाएगी। एक 8 तारीख को और दूसरी 11 तारीख को। उनका कथन सत्य से बढ़कर सिद्ध हुआ, और लालू यादव और उनकी पार्टी राजद के नेतृत्व में महागठबंधन ने बीजेपी को बिहार से बाहर कर दिया। बिहार की राजनीति में ज़मीनी सतह तक घुसे लालू और उनकी पार्टी ने बिहार में 15 वर्षों तक राज किया लेकिन एंटी-इंकम्बैंसी और चारा घोटाले में अपराधी साबित हो जाने के बाद राजद में नेतृत्व का खतरा पैदा हो गया जिसका लाभ उठाते हुए नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर बिहार पर नीतीश राज स्थापित किया। लालू तब भी बिहार की राजनीति में अपनी पहचान बनाए हुए थे। उसी पहचान के सहारे लालू यादव अपने राजनीतिक समीकरण साधे और जदयू, कॉंग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन की नींव रखी। यह इतना मजबूत गठबंधन था कि इसके बनते ही यह संभव हो गया था कि इस महागठबंधन को पराजित कर पाना नामुमकिन है।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सघन चुनाव प्रचार के कारण ये मुकाबला मोदी बनाम नीतीश का हो गया था। नीतीश कुमार महागठबंधन के पूर्वघोषित मुख्यमंत्री उम्मीदवार थे और इस लिहाज से पोस्टर ब्वाय भी। बहुत से राजनीतिक प्रेक्षक ऐसे थे, जिनका यह मानना था कि लालू प्रसाद के साथ आने से नीतीश कुमार को नुकसान हो सकता है, अगर वे ये गठबंधन नहीं करते, तो फायदे में रहते। लेकिन ऐसे अनुमान और आशंकाएं गलत साबित हुईं। लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली राजद को महागठबंधन के तीनों घटकों में सबसे ज्यादा सीटें हासिल हुई हैं। यानी नीतीश कुमार को लालू प्रसाद के साथ का फायदा मिला। 8 नवबंर की जीत को लालू प्रसाद की पार्टी और परिवार के लिए एक नए जीवन के मिलने जैसा माना जा रहा है। उनके दोनों बेटों की राजनीतिक पारी की शुरुआत सफलता के साथ हुई है। निश्चित ही लालू प्रसाद और पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है और इसलिए उन्होंने कहा कि अब वे दिल्ली में जतन करेंगे।

महागठबंधन ने जो शानदार जीत हासिल की है उसका सबसे बड़ा श्रेय तीनों पार्टियों के नेताओं को जाता है, जिन्होंने अपनी एकता में कोई दरार नहीं आने दी और चुनाव की लंबी प्रक्रिया के दौरान किसी भी तरह की बदमज़गी पैदा नहीं होने दी। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों पुराने साथी और मित्र रहे हैं इसलिए उनके दुबारा एक साथ आने में कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं थी। इसमें तीसरे दल के रूप में कांग्रेस की जो सकारात्मक भूमिका रही उसका श्रेय राहुल गांधी को देना ही होगा, जिन्होंने चुनाव के बहुत पहले नीतीश कुमार से बात कर साथ-साथ चलने का इरादा ज़ाहिर कर दिया था। उसका जो लाभ कांग्रेस को मिला है वह सामने है। मुलायम सिंह यादव ने जिस प्रकार भाजपा के बहकावे में आकर महागठबंधन से बाहें फुलाकर एकलमार्गी रास्ता चुना वह उनके घटक सिद्ध हुआ। इससे उनकी धर्मनिरपेक्ष राजनीति की मंशा पर सवाल ही खड़ा नहीं हुआ है बल्कि उनकी साख को धक्का लगा है। ऐसे में उनका अब पश्चाताप उनके लिए कितना लाभकारी होगा यह तो 2017 में ही मालूम होगा। बहरहाल, बिहार की जनता ने के बार फिर भरोसा जताते हुए सत्ता नीतीश कुमार के हवाले की है और इस बार लालू प्रसाद उनके साथ हैं। नीतीश कुमार का अधिक जोर विकास पर रहा है। बेशक वे विकास के नित नए रास्ते तलाशें। वहां की जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का हरसंभव प्रयास करें, और इसके साथ सबसे ज्यादा ध्यान इस बात पर दें कि सांप्रदायिकता के विषैले कीटाणु वहां की पर्यावरण में फैलने न दें। चुनाव में जिन लोगों ने इसकी कोशिश की है, वे आगे भी कुत्सित चालें चलतेरहेंगे।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here