विधानसभा चुनाव 2017 – क्या है युवाओं की स्थिति?

न सिर्फ राज्य सरकारों के लिए बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी यह आँकड़े चिन्ता का विषय होना चाहिए। आगामी विधानसभा चुनावों के अवसर पर सभी राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में युवाओं को रोजगार देने का लाॅलीपाप देकर एक बार फिर सफेद झूठ बोला है। उत्तर प्रदेश में एक ओर जहाँ समाजवादी पार्टी ने दोबारा युवाओं को रोजगार देने की बात कही है वहीं दूसरी ओर भाजपा ने उन्हीं के घोषणा पत्र को दोहरा दिया है। एक दल छात्रों को लैपटॉप देने का हवाला देकर दामन बचा रहा है तो दूसरा दल लैपटॉप के साथ प्रतिमाह एक जीबी डाटा का चुनावी बोनस देने की बात कर रहा है। बीएसपी ने तो कोई घोषणा पत्र ही जारी नहीं किया। उन्हें सिर्फ़ दलित परोपकार के नाम पर वोट चाहिए।

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तल्हा मन्नान खान

अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ

 

फसल पक चुकी है। खेत लहलहा रहे हैं। हर कोई चाहता है कि वो ऐसी लहलहाती फसल को बढ़कर काट ले। यूँ तो हमारे देश में चार मौसम होते हैं लेकिन इससे अलग हटकर कुछ विशेष अवसरों को भी मौसम मान लिया जाता है। जैसे शादियों का मौसम, परीक्षाओं का मौसम या फिर चुनाव का मौसम। चुनावों के मौसम को लोकतंत्र का महापर्व भी कहते हैं। जनता इस मौसम में बिल्कुल ऐसी फसल की तरह ही भूमिका निभाती है जिसे पिछले इलेक्शन में चुनावी खाद डालकर तैयार किया गया था। खाद, भ्रष्टाचार मुक्त भारत की, विकास के झूठे वादों की और सामाजिक न्याय के चुनावी जुमलों की।

 

चुनाव आयोग ने जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा की, वैसे ही उन राज्यों में विकास का मौसम शुरू हो गया। मौसम हर वर्ष आते हैं लेकिन विकास का मौसम पाँच साल में सिर्फ एक बार ही आता है। इस एक माह में इतना विकास हो जाता है जितना स्वतंत्रता के बाद से अब तक नहीं हुआ। लोकलुभावन वादों की बयार चल पड़ती है। कोई मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करता है तो कोई दलित वोट बैंक की। कोई ब्राह्मणों को लुभाना चाहता है तो कोई महिलाओं को। लेकिन इन सभी के बीच एक ऐसा वर्ग भी है जिसका साथ सभी दल चाहते हैं। जो लोकतंत्र का मज़बूत आधार है, जो युवा है। एक ऐसा तबका जिसकी सोच आधुनिक है और जो आगे बढ़कर वादों और दावों की खोखली राजनीति को चुनौती देने का साहस रखता है।

 

इस बार भी विधान सभा चुनाव में सभी दल युवा वर्ग को अपनी ओर साधने की कोशिश में लगे हुए हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि इन युवा मतदाताओं की ऊंगलियों में ही उनकी ताकत घटाने और बढ़ाने की क्षमता निहित है। सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात करें तो चुनाव आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 14 करोड़ है जिनमें 30 वर्ष से कम आयु के मतदाताओं की संख्या 4.3 करोड़ व 18 से 19 वर्ष की आयु के नये मतदाताओं की संख्या लगभग 24 से 25 लाख है जिसमें सर्वाधिक 56% मतदाता युवतियाँ हैं।

 

सभी पार्टियाँ एवं नेता चुनाव प्रचार से लेकर सरकार बनने तक युवा वर्ग पर ही निर्भर रहते हैं लेकिन ऐसे कितने ही युवा हैं जो पार्टियों के लिए अपना कीमती समय व्यर्थ कर देते हैं और पार्टी के जीत जाने पर भी उन्हें रोजगार नहीं मिल पाता। इसके सजीव उदाहरण आपके सामने हैं कि जब कानपुर में संविदा पर सफाईकर्मियों की 4000 भर्तियां निकली थीं तो 2 लाख आवेदन आए थे। अमरोहा में सफाईकर्मियों की 114 भर्तियों के लिए 19000 से ज्यादा आवेदन आए थे। वहीं देवरिया में 335 पदों के लिए हजारों युवाओं की अर्जियाँ आईं थीं। इन पदों के लिए शैक्षणिक योग्यता 8वीं पास थी लेकिन नौकरी के लिए कतार में पीएचडी, एमबीए और बीटेक जैसे प्रोफेशनल कोर्सेज़ के डिग्री होल्डर खड़े थे। यही नहीं गत वर्ष सरकार ने 368 चपरासी पदों पर भर्तियों के लिए आवेदन निकाला था जिसमें एक महीने के भीतर ही 23 लाख आवेदन आए थे जिनमें बड़े पैमाने पर उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवान शामिल थे। एन एस एस ओ द्वारा जारी की गई रिपोर्ट की मानें तो उत्तर प्रदेश की 21 करोड़ जनसंख्या में लगभग दो करोड़ युवा बेरोजगार हैं। उपरोक्त आँकड़े उस प्रदेश के हैं जहाँ के मुख्यमंत्री भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री होने का गौरव रखते हैं।

 

बात करें उत्तराखंड की तो वहाँ लाखों युवा बेरोजगार हैं। सेवायोजन निदेशालय के रिकार्ड के मुताबिक उत्तराखंड के 9,16,752 युवाओं को रोजगार की तलाश है। सेवायोजन विभाग के कुछ आँकड़ों पर गौर करें तो प्रदेश के रोजगार कार्यालयों में नवंबर तक पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 9,16,752 पहुंच गयी थी। इनमें सबसे ज्यादा 3,77,702 बेरोजगार इंटर पास हैं। हाईस्कूल से कम शैक्षिक योग्यता वाले 3,5110, हाईस्कूल पास 1,67016, स्नातक 2,23236 और परास्नातक 1,13688 बेरोजगार हैं। प्रदेश में सबसे ज्यादा 1,80,261 बेरोजगार अकेले देहरादून जिले में पंजीकृत हैं। जबकि सबसे कम 23,010 बेरोजगार चंपावत जिले में पंजीकृत हैं। आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि किस तरह उत्तराखंड सरकार द्वार युवाओं को रोजगार देने के नाम पर ठगा गया।

 

पंजाब की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। वर्तमान समय में प्रदेश में नौकरी और भ्रष्टाचार कोई बडे़ मुद्दे नहीं हैं। इस बार सबसे बड़ा मुद्दा ड्रग्स है, क्योंकि एक पूरी पीढ़ी को ड्रग्स ने अपने चपेट में ले रखा है। ड्रग्स की वजह से पंजाब का कितना नुकसान हो रहा है, इसे आप मुख्तियार सिंह के दर्द से समझ सकते हैं। बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में वे अपने पारिवारिक एलबम से अपने बेटे मंजीत की तस्वीर को दिखाते हुए कहते हैं, “ये तब की तस्वीर है जब उसने स्कूली प्रतियोगिता जीती थी। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके साथ क्या होगा?” ड्रग्स के ओवरडोज की वजह से 28 साल के मंजीत की मौत बीते साल जून में हो गई थी। मुख़्तियार सिंह राज्य सरकार के बिजली विभाग में लाइनमैन हैं। उन्होंने अपने बेटे के शव के साथ अपने पूरे गांव में मार्च किया और उसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को संबोधित एक ख़त भी लिखा। इस पत्र के बारे में उन्होंने कहा, “मैंने उन्हें खत लिखा कि पंजाब के युवाओं को ड्रग्स से बचाने की ज़रूरत है। हमारे बच्चे मर रहे हैं और कुछ भी नहीं किया जा रहा है।” हाल ही में हुए एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक़ राज्य में 15 से 35 साल के युवाओं में 8.60 लाख लोग किसी ना किसी रूप में ड्रग्स का सेवन कर रहे हैं। एक और अनुमान के मुताबिक पंजाब के दो तिहाई घरों में कम से कम एक सदस्य ड्रग्स की लत का शिकार है। पूरे राज्य के ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरी क्षेत्र तक, आप युवाओं को समूहों में बैठकर ड्रग्स लेते देख सकते हैं, चाहे वो खेत का मैदान हो या कोई खाली पड़ा मैदान या फिर कोई कब्रिस्तान। पंजाब का औसत युवा राष्ट्रीय औसत की तुलना में तीन गुना ज़्यादा ड्रग्स लेता है, इसकी वजह क्या है? दरअसल पंजाब में खेती-किसानी का विकास थम गया है। थोड़ा बहुत औद्योगिकीकरण भी हुआ है। इससे बेरोजगारी बढ़ी है। इसके अलावा 1980 के दशक में पंजाब चरमपंथी हिंसा की चपेट में भी रहा। इन सबके चलते ही युवाओं में ड्रग्स की लत तेजी से बढ़ी है लेकिन फिलहाल सरकारों के पास इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं है।

 

वैश्विक स्तर पर बात करें तो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) ने 2017 वर्ल्‍ड इम्‍प्‍लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक रि‍पोर्ट में कहा है कि इकॉनमिक ग्रोथ के ट्रेंड्स रोजगार की जरूरतों को पूरा करने में कामयाब नहीं होंगे। इस रिपोर्ट में भविष्य के लिए अनुमान जताया गया है कि पूरे 2017 साल में न सिर्फ बेरोजगारी बढ़ेगी बल्कि सामाजिक असमानता भी पहले से ज्यादा खराब होगी।

 

इस रिपोर्ट के हवाले से दैनिक भास्कर ऑनलाइन ने छापा है कि भारत में नौकरि‍यों को लेकर मुश्किल वक्त आ रहा है। इस खबर के मुताबिक, रि‍पोर्ट कहती है कि वर्ष 2017-18 में भारत में बेरोजगारी में बढ़ोतरी होगी।यानी, देश में नई नौकरि‍यां कम बनेंगी। ये आंकड़े यूनएन लेबर रि‍पोर्ट के हैं। भारत में नई नौकरि‍यां पैदा होने की प्रोसेस भी रफ्तार नहीं पकड़ पाएगी। रि‍पोर्ट कहती है कि भारत में बीते साल के 177 लाख बेरोजगारों के मुकाबले 2017 में बेरोजगारों की गि‍नती 178 लाख हो जाएगी और सन 2018 में यह 180 लाख पहुंच सकती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, बेरोजगारी की दर 2017-18 में भी तकरीबन 3.4 फीसदी बनी रहेगी।

 

न सिर्फ राज्य सरकारों के लिए बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी यह आँकड़े चिन्ता का विषय होना चाहिए। आगामी विधानसभा चुनावों के अवसर पर सभी राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में युवाओं को रोजगार देने का लाॅलीपाप देकर एक बार फिर सफेद झूठ बोला है। उत्तर प्रदेश में एक ओर जहाँ समाजवादी पार्टी ने दोबारा युवाओं को रोजगार देने की बात कही है वहीं दूसरी ओर भाजपा ने उन्हीं के घोषणा पत्र को दोहरा दिया है। एक दल छात्रों को लैपटॉप देने का हवाला देकर दामन बचा रहा है तो दूसरा दल लैपटॉप के साथ प्रतिमाह एक जीबी डाटा का चुनावी बोनस देने की बात कर रहा है। बीएसपी ने तो कोई घोषणा पत्र ही जारी नहीं किया। उन्हें सिर्फ़ दलित परोपकार के नाम पर वोट चाहिए।

 

ऐसी परिस्थिति में युवाओं को अपने वोट की ताकत को पहचानना होगा कि वे अपने बल पर इन राज्यों की राजनीतिक गणित बदल सकते हैं। उन्हें सियासी दलों के हाथों की कठपुतली न बनते हुए अपने मताधिकार का सही इस्तेमाल करना होगा एवं अपने भविष्य को केंद्र में रखकर उन्हें अपने राज्यों के रथ ऐसे हाथों में देने होंगे जो उन्हें सावधानी पूर्वक साध सकें।

 

 

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