नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार का समूचा जोर नारों पर है, उसमें भी वे नारे, जो जनता का जीवन बदलें या न बदलें, उसे भ्रम में जरूर डाले रखें और इधर उन नारों की आड़ में सरकार की झोली भरती रहे। ‘स्मार्ट सिटी’ का नारा भी उसी में से एक है।दुनिया भर में ‘स्मार्ट सिटी’ की अवधारणा अपने आप में नई है। एक तरह से स्मार्ट सिटी 21वीं सदी का शब्द है, जिसे शायद स्मार्टफोन, स्मार्ट फैमिली, स्मार्ट डील, स्मार्ट कॉपल या स्मार्ट हाउस की तर्ज पर सोचा गया।किसी शहर को स्मार्ट कहने से वह स्मार्ट हो जाए, यह संभव नहीं, फिर हर शहर की अपनी संस्कृति होती है, कैरेक्टर होता है, इस स्मार्ट के चक्कर में उसका क्या होगा आखिर स्मार्ट सिटी से सरकार का आशय क्या है खुद सरकार भी अभी इस पर स्पष्ट नहीं है।

हालांकि सरकार की वेबसाइट पर जिसे वह ‘स्मार्ट सिटी मिशन: स्मार्ट भारत के निर्माण की ओर एक कदम’ के नारे सेनवाजती है, पर यह दावा किया गया है कि, – भारत की वर्तमान जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत को शहरों में बसता है और जनगणना 2011 के अनुसार इनका सकल घरेलू उत्पाद में 63 प्रतिशत का योगदान है। ऐसी उम्मीद है कि साल 2030 तक शहरी क्षेत्रों में भारत की आबादी का 40 प्रतिशत रहेगा और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान 75 प्रतिशत का होगा।

– इसके लिए भौतिक, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे के व्यापक विकास की आवश्यकता है। ये सभी जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने, लोगों और निवेश को आकर्षित करने, विकास एवं प्रगति के एक गुणी चक्र की स्थापना करने में महत्वपूर्ण हैं। स्मार्ट सिटी का विकास इसी दिशा में एक कदम है।  लगता है कि स्मार्ट सिटी की अवधारणा तेजी से भागते हुए शहरों की युवा, पर पैसा कमाने वाली पीढ़ी को अपनी तरफ आकर्षित कर, इन नगरों में बसने, रहने, और यहीं पर पैसा खर्च करा देने की इच्छा रखने वाले किसी तेज व्यापार पसंद दिमाग की देन है। आखिर ऐसा कौन सा शहर है, जो चाहे जिस भी दौर में बना हो, बिना बुनियादी सुविधाओं के अपना अस्तित्व बरकरार रखने में सफल हुआ है स्पष्ट है, सरकार का सीधा मकसद शहरों को गोल्ड माइंस के रूप में बदल देने का है, जिस पर ‘विकास’ शब्द का चश्मा चढ़ा देने के बाद कोई विरोध संभव नहीं है। अभी बमुश्किल 15-20 दिन पहले ही सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन में शामिल 88 शहरों के लिए योजनाएं तैयार करने की खातिर सलाहकारों का चयन किया, और इसके लिए, जो 37 सलाहकार कंपनियां चुनी गईं हैं, उनमें से ज्यादातर विदेशी हैं।

शहरी विकास मंत्रालय स्मार्ट सिटी मिशन में शामिल हर शहर के लिए संबंधित योजनाएं तैयार करने के वास्ते हर शहर 2 करोड़ रुपए पहले ही जारी कर चुका है। नई दिल्ली में इस विषय पर दो दिन का शिविर भी आयोजित किया गया, जिसका आयोजन ब्लूमबर्ग फिलानथ्रॉपीज ने किया, जो स्मार्ट सिटी मिशन के लिए शहरी विकास मंत्रालय की नॉलेज पार्टनर है।

आप इस बात पर चौंकेंगे कि जिस ‘स्मार्ट सिटी’  प्रोजेक्ट पर, जिसे हमारी सरकार मिशन कह रही है, और जिसके लिए केंद्र ने पांच साल में 48,000 करोड़ रुपए, प्रति वर्ष प्रति शहर करीब 100 करोड़ रुपये औसत वित्तीय सहायता देने का प्रस्ताव रखा है, और जिसकी राशि राज्य सरकार के धन को मिला देने के बाद एक लाख करोड़ रुपए पहुंच जानी है, की सलाहकार ही नहीं, काम करने वाली कंपनियां भी विदेशी हैं, और वह अभी भी इस का स्वरूप क्या हो, इस पर काम कैसे हो, जैसे सवालों का हल ढूंढने में लगी हैं।

काम स्पष्ट नहीं है, पर बजट स्पष्ट है। स्मार्ट सिटी के बजट के अलावा केंद्र सरकार शहरों में सफाई के नाम पर, जिसे स्वच्छ भारत मिशन कहा जा रहा है, पर भी अबाध पैसा खर्च कर रही है। शहरी विकास मंत्रालय ने स्वच्छता परिदृश्य के मूल्यांकन के लिए 75 बड़े शहरों को चुना है। स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत कुल 62,009  करोड़ रुपए में से लगभग 37,000 करोड़ रुपए केवल ठोस अपशिष्ट प्रबंधन पर व्यय होने हैं। अटल अभियान (अमृत) के अलावा धरोहर अभियान और प्रधानमंत्री आवास योजना अलग से हैं।

शहरी विकास मंत्रालय ने इसी अक्टूबर में आंध्र प्रदेश, गुजरात एवं राजस्थान राज्यों के 89 नगरों के लिए 2,786 करोड़ रुपए के बराबर की परियोजना को मंजूरी दी थी। अकेले गुजरात ने 31 मिशन शहरों में मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित करने पर 15,375 करोड़ रुपए की अमृत योजना का प्रस्ताव रखा। आंध्र प्रदेश ने 28,756 करोड़ रुपए की लागत पर 31 अमृत शहरों के लिए मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित करने की बात कही है। तेलंगाना तो नया राज्य है ही, इसलिए वहां तो विकास के नाम पर पैसा बहना ही है।

यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि इन तथाकथित स्मार्ट शहरों में, इसके नाम पर खुल रहे बाजार में मानवीय मूल्यों का,संवेदना का मानवीय संबंधों का क्या होने वाला है। इसमें रहने वाले कामकाजी तबके और प्रभुत्व वर्ग के बीच का सामंजस्य एक दूसरी समस्या हो सकती है। कृषि और अनाज बाजार, धार्मिक और पर्यटन स्थल, शैक्षणिक संस्थाएं, आरडबल्यूए, पुल एवं उपमार्ग, छावनी बोर्ड, जलीय और विहार स्थल, चिकित्सालय, पुराना शहर और नया शहर, सरकारी कार्यालय, उनकी स्थापना, कार्य संस्कृति एक अलग विचारणीय विषय है।

स्मार्ट शहर की कहानी में एक और अध्याय है और इसे एप्स, डीआईवाई सेंसर, स्मार्टफोन तथा वेब इस्तेमाल करने वाले लोग लिख रहे है। सच्चाई यह भी है कि दुनियाभर में इस समय जो स्मार्ट शहर बन रहे हैं, वो बहुत छोटे हैं। फिर अभी तक ऐसी कोई तकनीक नहीं है, जिससे पता लगाया जा सके कि वास्तव में इन स्मार्ट शहर में रहने वाले लोगों की जिंदगी में बदलाव आ रहा है या नहीं।

हमारे ज्यादातर पुराने शहर अनियोजित हैं, उनकी सही मैपिंग उपलब्ध नहीं है। इन शहरों की 70 से 80 फीसदी आबादी अनियोजित इलाकों में रहती है। शहर की एक बड़ी आबादी पक्के मकानों में रहती है, जबकि लगभग उतनी ही आबादी सड़कों और झुग्गी- झोपडिय़ों में रहती है। इन इलाकों में लगातार आवाजाही होती रही है। ऐसे में आप काम की शुरुआत भी कैसे कर पाएंगे। सरकार को ऐसे शहर बनाने चाहिए, जहां लोगों के रहन-सहन में थोड़ी समानता दिखे। ‘स्मार्ट सिटी’ के नाम पर सरकार अब कल्याणकारी राज्य की बजाय व्यापारी राज्य के तौर पर देश के युवा, कमाऊ और मध्य-उच्च आय वर्ग की जेब से पैसे निकाल कर बड़ी विदेशी कंपनियों को देना चाहती है। साथ ही जमीनें खरीद-बेच कर भी धनवान बनना, बनाना चाहती हैं।

इन सबके बीच सरकार लोगों से टैक्स के नाम पर फ्लोर एरिया अनुपात (एफएआर) के अलावा भूमि रूपांतरण शुल्क, अवसंरचना विकास शुल्क, इमारत की योजना की मंजूरी का शुल्क, पंजीकरण शुल्क और ईडब्ल्यूएस और एलआईजी के लिए किफायती आवासों को बढ़ावा देने के लिए समुन्निति (बैटर्मन्ट) शुल्क भी बटोरती है। प्रॉपर्टी टैक्स, रोड टैक्स, टोल टैक्स, मनोरंजन टैक्स, सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, वैट, सर्विस टैक्स और इन सब पर सैश लगा कर एक अलग तरह से कमाई करेगी ही। कोई अलग वजह नहीं कि दुनिया के अमीरतम लोग शहरों में ही रहते हैं।

(लेखक ड्रीम प्रेस कंसल्टेंट्स लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं)

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