ओडिशा ट्रेन हादसा: एक राहतकर्मी से बातचीत

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मुमताज़ ने छात्र विमर्श को बताया कि अब ज़्यादातर लोग, जो घायल थे, वे अपने-अपने स्थानों पर लौट गए हैं, जिनमें अधिकतर पश्चिम बंगाल से थे लेकिन मृतकों की जो तादाद सरकार बता रही है, वह बिल्कुल विपरीत है। ग्राउंड पर ये आंकड़े तक़रीबन एक हज़ार के क़रीब पहुंचते दिखाई दे रहे हैं।

पर्यावरण बचाने की बहसों के बीच एक समग्र आख्यान

आधुनिक मनुष्य की प्रवृत्ति ही प्रकृति से युद्ध करने की बन चुकी है। वह लूट-खसोट कर रहा है, जो कुछ भी पा रहा है, जितना चाहे उसे तबाह कर रहा है। मनुष्य महासागरों की गहराई और पहाड़ों की ऊंची चोटियों से लेकर धरती के सबसे गहरे क्षेत्रों तक को लूट रहा है। इन सभी हादसों का मूल कारण हमारा दृष्टिकोण है।

कॉमेडी की आड़ में कटाक्ष है ‘कटहल’

फ़िल्म उन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक मुद्दों की पड़ताल करती है जो मध्य भारत के अंदरूनी इलाक़ों में प्रचलित हैं, जहां कटहल की चोरी जैसे अपराध की जांच की जानी चाहिए, और इसे किसी भी हालत में नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ग़ायब हुआ कटहल किसी मामूली व्यक्ति का नहीं बल्कि एक राजनेता का है।

शिक्षा पर चैट जीपीटी के प्रभाव

ChatGPT नवंबर 2022 में शुरू हुआ और इसने बहुत जल्द लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया, और अब यह एक वायरल सनसनी में बदल चुका है। लेकिन छात्रों द्वारा ChatGPT का उपयोग शिक्षकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। शिक्षकों को डर है कि यह छात्रों को आलसी बना देगा और छात्र तर्कसंगत सोच, शोध या लेखन जैसे महत्वपूर्ण कौशल विकसित करने में असमर्थ होंगे।

अल्लामा इक़बाल की प्रासंगिकता बरक़रार है

दरअसल सत्ता के नशे में चूर हुक्मरानों का यह सोचना है कि उन्होंने इक़बाल को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर उन्हें दफ़्न कर दिया है लेकिन अल्लामा इक़बाल कोई टिमटिमाता हुआ दिया नहीं हैं जो उनकी फूंकों से बुझ जाएंगे। दुनिया में बहुत कम शायर ऐसे हुए हैं जिनकी शायरी को देशों की सीमाओं से परे, अवाम ने इतना पसंद किया हो।

लोकतंत्र में राजतंत्र के प्रतीकों का क्या काम?

जैसे ईंट-सीमेंट की बनी इमारत लोकतंत्र की संसद नहीं होती है वैसे ही राजतंत्र के किसी प्रतीक की जगह भी संसद में नहीं होती है। संसद में आप करते क्या हैं, कैसे करते हैं और जो करते हैं वह संविधानसम्मत है या नहीं, यही कसौटी है कि वह लोकतंत्र की संसद है या नहीं।

पीर मुहम्मद मूनिस : क़लम का सत्याग्रही

30 मई, 1882 में बेतिया शहर के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे पीर मुहम्मद मूनिस को दुनिया ‘क़लम के सत्याग्रही’ के नाम से जानती है। वे स्वतंत्रता आंदोलन के सक्रिय क्रांतिकारी, प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार थे। चम्पारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि तैयार करने व गांधी जी को चम्पारण लाने में उनकी अविस्मरणीय भूमिका रही, लेकिन विडंबना यह है कि देश क़लम के इस सत्याग्रही को आज पूरी तरह से भूल चुका है।

मौलाना आज़ाद के समावेशी विचारों पर बात करने की आवश्यकता है – प्रोफ़ेसर एस०...

अपने वक्तव्य में प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि, “मौलाना आज़ाद केवल राजनीतिक व्यक्ति या एक इस्लामिक विद्वान नहीं थे बल्कि उसके अलावा भी बहुत कुछ थे जिस पर बात करने की आवश्यकता है। मौलाना आज़ाद एक उत्कृष्ट लेखक, वक्ता, संगीत प्रेमी, कला प्रेमी, साहित्यकार, स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ भारत विभाजन के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़ थे, जिनसे प्रभावित होकर लाखों मुसलमानों ने मुस्लिम लीग और विभाजन का विरोध किया था।”

‘अफ़वाहों’ की भयावहता से आगाह करती फ़िल्म

इस फ़िल्म में आज के समय के ज्वलंत मुद्दों का बहुत ही सटीक तरीक़े से फ़िल्मांकन किया गया है। सांप्रदायिकता का ज़हर, फ़ेक न्यूज़, वर्किंग महिला के साथ यौन शोषण, अफ़वाहों को फैलाने का नियोजित प्रॉपगैंडा, गौ तस्करी इत्यादि का झूठ देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन तमाम मुद्दों पर फ़िल्म में बहुत बेबाक तरीक़े टिप्पणी की गई है।

हाशिमपुरा हिरासती हत्याकांड के 36 वर्ष

लगभग दस वर्षों से उत्तर भारत मे चल रहे राम जन्मभूमि आंदोलन ने पूरे समाज को बुरी तरह से बांट दिया था। उत्तरोत्तर आक्रामक होते जा रहे इस आंदोलन ने ख़ास तौर से हिन्दू मध्यवर्ग को अविश्वसनीय हद तक साम्प्रदायिक बना दिया था। विभाजन के बाद सबसे अधिक साम्प्रदयिक दंगे इसी दौर मे हुए थे। स्वाभाविक था कि साम्प्रदायिकता के इस अन्धड़ से पुलिस और पीएसी के जवान भी अछूते नहीं रहे थे।