मुस्लिम समाज और ‘नया’ सीखने का रुझान (2-3) : सआदतुल्लाह हुसैनी

लेकिन जिस तरह से दूसरी चीजें उम्र के साथ समाप्त नहीं होती है, ठीक उसी तरह सीखने की प्रक्रिया को विराम देने का भी कोई कारण नहीं है।

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शिक्षा क्षेत्र के मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि योग्यता और क्षमता से हमारे सम्बन्ध के चार स्तर होते हैं।

सबसे निचला स्तर Unconscious Incompetence का होता है, अथार्त आदमी को इस प्रतिभा या स्किल के वुजूद का ही पता नहीं होता. वो नहीं जानता कि ‘वो नहीं जानता है’। एक सीधा साधा अनपढ देहाती समझ ही नहीं पाता कि बड़े बड़े कार्यालयों में बैठे बाबु लोग करते क्या हैं? और जो कुछ वो करते हैं उसकी इंसानी समाज को क्या आवश्यकता है? कुछ मामलों में एक पढ़ा लिखा आदमी भी unconsciousness की इस स्थिति में हो सकता है. उसे अपनी योग्यता का कुछ अंदाज़ा भी हो तो उसे उसके महत्व का अहसास नहीं रहता वो नहीं जानता कि उसका उससे सम्बन्ध क्या है, जो काम वो कर रहा है उसे करने के और भी प्रभावी तौर तरीके दुनिया में हैं, जिनसे वह अनभिज्ञ है इस बात का उसे पता ही नहीं रहता ।  ये ना जानने ‘अनभिज्ञता’ का सबसे निचला स्तर है.

दूसरा स्तर Conscious Incompetence का होता है, अथार्त आदमी में योग्यता नहीं है और वो जानता है कि ‘वो नहीं जानता’. उसे उन योग्यताओं के बारे में पता होता है जो उसके अन्दर नहीं हैं।  मैं जहाज नहीं उड़ा सकता, जर्मन भाषा नहीं बोल सकता, बीमार व्यक्ति की सर्जरी या पानी की पाइप लाइन फिक्स नहीं कर सकता, ये Conscious Incompetence के स्तर से संबन्धित है। मतलब मैं उन योग्यताओं के बारे में जानकारी रखता हूँ, उनके मामले में अपनी अक्षमता को जानता हूँ और जरुरत पड़ने पर अपनी अक्षमता को दूर भी करने का प्रयास कर सकता हूँ।

तीसरा स्तर Conscious competence का होता है. आदमी जानता है कि ‘मैं जानता हूँ’। इस स्तर पर उसे अपनी किसी योग्यता का उपयोग करने के लिए अपने पूर्व ज्ञान और चेतना का भी उपयोग करना पड़ता है।  अरबी भाषा पढ़नी हो तो उस भाषा की व्याकरण याद करनी पड़ती है, नई नई ड्राइविंग सीखी हो तो सारे स्टेप्स याद रखने पड़ते हैं कि कब कोनसा गियर डालना है। उर्दू टाइप करना सीखना हो तो याद करना पड़ता है कि कोनसी की दबाने से कोनसा अक्षर टाइप होता है।

चोथा स्तर Unconscious competence है। अथार्त आदमी कोई जानकारी या योग्यता में इतना निपुड हो जाए कि वह उसकी आदत बन जाए। फिर उसके उपयोग के लिए उसे अपने दिमाग पर जोर डालने की जरुरत ना पड़े। उर्दू या अंग्रेजी में कुछ लिखता हो तो व्याकरण की समस्या नहीं होती। वैसे ही दुकान पर हिसाब जोड़ते समय आठ का पहाडा या गुणा भाग के सिद्धांतो को नहीं याद पड़ता। मेरा विजदान उन सिद्धांतो के अनुसार मेरा काम कर देता है. एक निपुड ड्राइवर के हाथ पैर स्वत ही स्टेयरिंग, गियर, किलच ब्रेक पर काम करते रहते हैं। इसके लिए उसे कुछ सोचना या याद नहीं करना पड़ता। उर्दू टाइप करते समय मेरी उंगलियां दिमाग में आ रहे शब्दों के अनुसार टाइप करती चली जाती हैं। यह योग्यता का सबसे ऊपरी स्तर है जहाँ किसी कला के उपयोग के लिए किसी विशेष चेतना की जरुरत नहीं पड़ती है।

जीवन भर सीखते रहने की योग्यता में कमी का एक बड़ा कारण ये होता है कि नई योग्यताओं के मामले में हम Unconscious Incompetence के स्तर पर रहते हैं। इस स्तर से ऊपर उठने पर बाकी स्तरों को पार करना भी मुश्किल नहीं होता। एक समस्या ये है कि हमारे टीचरों को पता ही नहीं है कि शिक्षा-ज्ञान सीखने सिखाने कि कला उनके किये हुए B.Ed और M.Ed से कितनी आगे निकल चुकी है, शिक्षा के क्षेत्र में कैसे कैसे हैरान कर देने वाले रेवोलुशनरी प्रयोग हो रहे हैं और अगर उन्हें इन नए प्रयोगों का अंदाज़ा भी हो तो वो इनकी और विशेषताओं को नहीं समझ पाते, इस नई क्षमता को हासिल कर पाना ही उनके लिए मुश्किल होता है। वैसे ही हमारे लीडर्स भी नहीं समझ पाते कि लीडरशिप का काम भी कुछ नई कलाओं की डिमांड करता है, जो सीखी जा सकती हैं। हमारे शोद्धार्थियो, रिसर्च स्कॉलर्स को पता ही नहीं है कि रिसर्च मेथड या मेथडोलोजी नाम की चिड़िया भी दुनिया में पाई जाती है। और उनमे रोज़ नए नए रुझान सामने आ रहे हैं। अगर ये पहला स्तर अथार्त योग्यता की जानकारी, जरुरत और महत्व मालूम हो तो निश्चित ही सत्तर साल का आदमी भी उस योग्यता में तेज़ी से चोथे स्तर तक पहुँच जाता है.

लाइफ लॉन्ग लर्निंग का पहला स्टेप ये है कि हम अपनी आँखों को उन कलाओं व योग्यताओं को देखने लायक बनाए जो दुनिया में पायी जाती हैं और हमें उनकी जरुरत है, लेकिन वें हमारे पास नहीं हैं हमारे कुवें की ऊँची दीवारें रुकावट बन जाती है और हमारी नज़र उन तक नहीं पहुँच पाती।  ज़रूरत है कि हम कुंवे से सर बाहर निकाले और शिक्षा, कला और सर्विस की विस्तृत व वृहत दुनिया को देखने की कोशिश करें। हमें यह भी अहसास हो कि जो हम कर रहे हैं उसे करने के और भी प्रभावी तरीके मौजूद हैं जिन्हें हमें सीखने की ज़रूरत है। ये अहसास लाइफ लॉन्ग लर्निंग का पहला स्टेप है.

लाइफ लाँग लर्निंग की एक बड़ी रुकावट यह है कि हम सीखने के नए नए क्षेत्रों का पता ही नहीं लगा पाते और Unconscious Incompetence में अपना समस् जीवन गुज़ार देते हैं।

एक अन्य प्रमुख बाधा, जो उपरोक्त रुकावट का भी प्रमुख कारण है, वह हमारी कुछ धारणाएँ हैं। हमारी  सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि इन गलत धारणाओं का मुख्य कारण है। हम बचपन से ऐसी बातें सुनते रहते हैं, और यह चीज़ें हमारे unconscious का हिस्सा बनती जाती हैं। यही मान्यताएं हमारे लिए मजबूत आस्था बन जाती हैं और हमारे हमारे पैरों में बेड़ियाँ डाल देती हैं। लाइफ लॉन्ग लर्निंग के कल्चर के खत्म होने का प्रमुख कारण यही मान्यताएँ हैं। इन कल्पनाओं से यदि हम अपने मन और शरीर को मुक्त करने में सफल होते हैं, तो हमारे लिए जीवन भर सीखना बहुत आसान है। इस क़िस्त में हम इन गलत धारणाओं पर चर्चा करेंगे। उसके बाद इस विषय के अन्य पहलूओं पर आगे बढ़ेंगे। इंशा अल्लाह

पहली गलत धारणा: सीखने की उम्र के बारे में :

हमारे समाज ने हमारे दिमाग में एक बात कूट कूट कर भरदी है कि एक उम्र में ही नई चीजें सीखी जा सकती हैं, बाद में सीखना संभव नहीं है। व्यक्ति तीस चालीस की उम्र तक पहुंचता है, तब केवल अनुभव बढ़ता है, ज्ञान या प्रतिभा में वृद्धि नहीं होती है।

पोस्ट के साथ स्लंग्न फोटो, केन्या की एक प्रख्यात महिला, प्रिसेला सूतीनी हैं, जिन्होंने 90 वर्ष की आयू में अपने पोतों के पोतों के साथ एक प्राइमरी स्कूल मे नियमित प्रवेश लेने के साथ ही स्कूल जाना शुरू कर दिया है। बीबीसी के अनुसार, यह दुनिया की सबसे बूढ़ी छात्रा है। इस महिला ने 65 बर्ष की आयू में मिडवाइफ के रूप में सेवाएँ दी हैं।  इनके पास अफ्रीकी जड़ी-बूटियों एवं देसी दवाओं के बारे में कुछ ज्ञान है जिससे वह पूरी दुनिया को फायदा पहुंचाना चाहती है। इसलिए वह इस ज्ञान को एक किताब की शक्ल में दुनिया के सामने लाना चाहती हैं। उनकी असाक्षरता इस इरादे को पूरा करने में बाधा बनी हुई थी, इसलिए उन्होंने नब्बे साल की उम्र में इस बाधा को दूर करने का निर्णय लिया है।

इस तरह के उदाहरणों से दुनिया भर के समाज भरे पड़े हैं।

अरस्तू ने मानव मस्तिष्क को एक ऐसे मोम से उपमा (तशबीह) दी है जो आरंभ यानि बचपन में बहुत नरम था, इसलिए उस में नए कौशल एवं गुणों के लिए कोई भी परिवर्तन करना संभव होता है, लेकिन उम्र के साथ यह  मोम की तरह सख्त होता जाता है और नए परिवर्तन स्वीकार करने की योग्यता खोता चला जाता है। अरस्तू के इस विचार ने ही दुनिया भर के समाज में इस धारणा को पैदा किया है कि अधिक उम्र वाले लोग सीख नहीं सकते हैं।

न्यूरो-विज्ञान की नयी खोज, इस परिकल्पना को गलत साबित करती है और मस्तिष्क की एक अद्भुत क्षमता की खोज करती है, जिसे न्यूरोप्लास्टिसीटी कहा जाता है। इस शौध से पता चलता है कि मस्तिष्क प्लास्टिक की तरह लचीला है। जब आप एक नया कौशल पैदा करते हैं, तो दिमाग में न्यूरॉन्स के बीच नए कनेक्शन उत्पन्न होते हैं। अर्थात मस्तिष्क की शक्ल में बदलाव आता है। यदि ऐसा होता रहे तो दिमाग का लचीलापन बना रहता है।  आधुनिक चिकित्सा अनुसंधान से पता चलता है कि मस्तिष्क को नयी नयी और कठिन चीजें सीखने की प्रक्रिया में व्यस्त रखा जाना चाहिए। इसलिए, न केवल यह परिकल्पना स्वंय गलत और बेबुनियाद है कि लोग अधिक उम्र में  सीख नहीं सकते, बल्कि सही बात ये है कि नई चीजें सीखने से वृद्धावस्था का हमला भी कम होता जाता है और बुढ़ापे में भी आदमी मानसिक रूप से सक्रिय और एक्टिव रहता है। अगर कोई व्यक्ति सीखना छोड़ देता है, तो उसका दिमाग पैंतीस साल की उम्र में बूढ़ा हो जाता है और यदि वह सीखना जारी रखता है तो है, तो 90 वर्ष की उम्र में भी उसका दिमाग एक नौजवान की तरह लचकदार रह सकता है। हम अन्य लोगों को इसी 90 वर्ष की आयु में मानसिक रूप से काफी सक्रिय देखते हैं। खुशवंत सिंह 100 बरस के करीब पहुँच कर भी कई महत्वपूर्ण रचनात्मक लेख लिखते रहे हैं। इस तरह के उदाहरण हमारे समाज में कम हैं, इसका मुख्य कारण यह है कि हम दिमाग को लचकदार बनाए रखने की कोशिश नहीं करते हैं।

डॉ हमीदुल्लाह (रह) ने 85 साल की उम्र में, पूरी तरह से थाई भाषा सीखी। डॉ इब्ने फ़रीद ने अपने देहांत से कुछ महीने पहले ही कंप्यूटर सीखा और इस तरह की महारत पैदा की कि हिजाब का आखिरी अंक (शुमारा) उन्होने खुद ही कम्पोज़ किया था। यदि आप 85 साल के डॉ॰ नजातुल्लाह सिद्दीकी को ईमेल करते हैं, तो इसका जवाब कुछ घंटों में ही आ जाता है। इस नई तकनीक पर उनकी महारत और प्रतिभा युवाओं को भी शर्मिंदा कर देती है। अल्बेरूनी का वाकिया हम सभी ने  सुना है कि वे अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर बेहोशी की हालत में भी  सौतेली माँ की ‘विरासत’ में हिस्सेदारी वाले ‘मसले’ को हल करने की कोशिश में थे। “आदमी एक एक नई चीज सीख कर मरे, यह बात उसके बिना सीखे मरने से कहीं बेहतर है”

इस ऐतिहासिक कथन के साथ, उन्होंने इस समस्या को सुलझाया और इसका समाधान किया।

इन सभी स्वर्ण परंपराओं को जीवित रखने के लिए, हमें इस धारणा पर चोट करनी चाहिए कि “सीखने की प्रक्रिया उम्र के एक विशेष अंतराल तक सीमित है”। वास्तव में, बचपन और किशोराव्स्था ‘सीखने’ के लिए सबसे उपयुक्त समय है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सीखने की प्रक्रिया उसी समय तक सीमित है। नौजवानी जीवन का वसंत है। और यह सिर्फ सीखने और जानने का ही सबसे अच्छा समय नहीं है, बल्कि जीवन के अनेक कामों के  लिए भी लाभदायक है, लेकिन जिस तरह से दूसरी चीजें उम्र के साथ समाप्त नहीं होती है, ठीक उसी तरह सीखने की प्रक्रिया को विराम देने का भी कोई कारण नहीं है।

(उर्दू से अनुवाद :  अजहर अंसार)

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