बजरंग दल की जलाभिषेक यात्रा बनी नूह में हिंसा की वजह

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राजधानी दिल्ली से सटा हरियाणा राज्य हिंसा की चपेट में है। हरियाणा के विभिन्न इलाक़ों से आने वाले कई वीडियोज़ सोशल मीडिया पर गर्दिश कर रहे हैं जिनमें यह साफ़ देखा जा सकता है कि हिंसा जान-बूझकर भड़काई जा रही है। फ़िलहाल कुछ इलाक़ों में धारा 144 लागू है और कुछ जगहों पर पूरी तरह कर्फ़्यू लगा दिया गया है। साथ ही भारी मात्रा में पुलिस बल भी तैनात किया गया है।

यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, मुस्लिम आबादी और चार शादियों का प्रॉपगैंडा

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‘नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे’ की रिपोर्ट यह बताती है कि एक से ज़्यादा शादियां करने का रिवाज सब से ज़्यादा ईसाईयों में (2.1%) है। मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं में 1.3% और अन्य कम्युनिटीज़ में 1.6% है। इसमें नोट करने की बात यह है कि मुसलमानों में यह प्रतिशत उस स्थिति में है जब उनके यहां एक से ज़्यादा शादियों की क़ानूनी रूप से अनुमति है, जबकि दूसरी कम्युनिटीज़ में क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित है।

मणिपुर हमारी मानवीय संवेदना पर सवाल है

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क्या आज के इस आधुनिक समाज में, जहां महिला अधिकारों की बात की जाती है, जहां सरकार ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ का नारा देती है, वहां महिलाओं का कोई मोल नहीं कि इस भयप्रद स्थिति में उनका साथ दिया जाए और आरोपियों को गिरफ़्तार कर के सज़ा दी जाए?

दक्षिणपंथ का वैश्विक उभार लोकतांत्रिक मूल्यों और समावेशी संरचना के लिए ख़तरा

भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में दक्षिणपंथी पार्टी का वर्चस्व लोकतंत्र के लिए ख़तरा माना जा रहा है, जहां देश की विभिन्नता पर कुठाराघात करते हुऐ समान नागरिक संहिता जैसा क़ानून लाने की चर्चा चल रही है।

अन्याय से लड़ने के लिए ‘सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी है’

ऐसे लाखों केस आज भी न्यायालय की तिजोरियों में बंद होंगे जिन पर तारीख़ें तो आती हैं, लेकिन फ़ैसले नहीं आते। मुजरिम खुले आम घूम रहे हैं और पीड़ित अपना मुंह छुपाते फिर रहे हैं कि कोई उन पर लांछन न लगाए। यह फ़िल्म कहती है कि अब समय बदलना चाहिए। पीड़ित अगर हर हाल में अडिग रहे तो फ़ैसले भी उनके पक्ष में होंगे।

धार्मिक स्वतंत्रता, धर्मांतरण और राज्य

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राज्य का कोई धर्म न होना और प्रशासनिक कार्यों में धर्म का प्रत्यक्ष रूप से दख़ल न होना भी धार्मिक स्वतंत्रता क़ायम रखने के लिए ज़रूरी है। यदि राज्य ने बहुलतावादी समाज में किसी एक धर्म को सरकारी धर्म का दर्जा दिया और यदि विधि निर्माण और प्रशासनिक फ़ैसले किसी विशेष धर्म के आधार पर होने लगे या सरकारों को किसी विशेष धर्म की रक्षा अथवा प्रचार की चिंता होने लगे, तो अन्य धर्मों व दर्शनों की आज़ादी का दायरा तंग होने लगेगा और नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ जाएगी।

लॉकडाउन की त्रासदी को दर्ज करती है ‘भीड़’

फ़िल्म में यह भी बहुत दिलचस्प तरीक़े से दिखाया गया है कि कैसे कोविड की महामारी के दौरान मीडिया की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना कवरेज ने इस्लामोफ़ोबिया को आम किया और मुसलमानों की छवि को समाज में बदतर बना दिया। अचानक और अनियोजित तरीक़े से लगे लॉकडाउन से देश में जो कुछ घटा उसे बहुत-ही शानदार तरीक़े से इस फ़िल्म में दिखाया गया है। कहा जा सकता है कि ‘भीड़’ लॉकडाउन का दस्तावेज़ है।

पीर अली ख़ान : स्वतंत्रता संग्राम का अनाम योद्धा

अंग्रेज़ी हुकूमत ने 7 जुलाई, 1857 को पीर अली और उनके साथियों को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था। आज बिहार की राजधानी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान के पास उनके नाम पर बना एक छोटा-सा पार्क “शहीद पीर अली ख़ान पार्क” उनकी यादगार है।

मणिपुर क्यों जल रहा है?

देश के ज़्यादातर हिस्सों में कट्टर हिंदुत्ववादी ताक़तें नफ़रत का जो ज़हरीला एजेंडा चला रही हैं, उसके तहत आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वे ईसाइयों को ख़तरनाक दुश्मन के तौर पर पेश कर रही हैं। इस एजेंडे से लगता है कि ये दंगे आदिवासी बनाम ग़ैर-आदिवासी नहीं, बल्कि सांप्रदायिक हैं। यह बात इससे भी सिद्ध होती है कि इन दंगों में पहली बार धार्मिक स्थलों पर हमले किए गए।

[व्यंग्य] हम आज तक टमाटर की ग़ुलामी से बंधे हुए हैं!

देश फिर से 2014 में आज़ाद हो गया है मगर हम आज तक टमाटर की ग़ुलामी से बंधे हुए हैं! शर्म आनी चाहिए हमें कि हम आज तक इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हुए हैं, जबकि पिछले नौ साल से प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि मेरी और मत देखो, आत्मनिर्भर बनो! हम शर्म तक के मामले में उनकी ओर देख रहे हैं कि पहले उन्हें किसी एक बात पर तो शर्म आए, तब हमें भी आने लगेगी!