[व्यंग्य] हम आज तक टमाटर की ग़ुलामी से बंधे हुए हैं!
देश फिर से 2014 में आज़ाद हो गया है मगर हम आज तक टमाटर की ग़ुलामी से बंधे हुए हैं! शर्म आनी चाहिए हमें कि हम आज तक इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हुए हैं, जबकि पिछले नौ साल से प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि मेरी और मत देखो, आत्मनिर्भर बनो! हम शर्म तक के मामले में उनकी ओर देख रहे हैं कि पहले उन्हें किसी एक बात पर तो शर्म आए, तब हमें भी आने लगेगी!
कविता : हम सरकार हैं,ज़ुबान बंद रखो
हम सरकार हैं...
हम सरदार है
हमारा हुक्म सर्वोपरि है
ज़ुबान बंद रखो
आंखे मूंद लो
तुम्हारी बुद्धि
तुम्हारा विवेक
तुम्हारा त्याग
तुच्छ हैं
हमारी शान के आगे
तुम्हारा दर्द
तुम्हारे आंसू
तुम्हारी शंकाएं
ज़िन्दगी और मौत
कुछ...
[दर्पण] कितना अच्छा होता
कितना अच्छा होता,
निकाल लेते सारा पोटेशियम नाइट्रेट बारूद से,
और ज़्यादा बना सकते थे उर्वरक,
पिघला देते हथियारों का सारा लोहा,
और अधिक बना सकते थे हल,
निकाल...
स्व. भिखारी ठाकुर की जयंती रंगवा में भंगवा परल हो बटोहिया !
Dhruv Gupt
लोकभाषा भोजपुरी की साहित्य-संपदा की जब चर्चा होती है तो सबसे पहले जो नाम सामने आता है, वह है स्व भिखारी ठाकुर का।...
फणीश्वर नाथ रेणु : धरती का धनी कथाकार
साहित्य चाहे किसी भी भाषा अथवा बोली में रचा जाए, उसका महत्व तभी है जब उसमें अतीत से मिले सबक हों और बेहतर भविष्य के निर्माण की परिकल्पना। हिंदी साहित्य में ऐसे रचनाकार जिनकी रचनाओं में यह बात स्पष्ट दिखती है, उनमें फणीश्वर नाथ रेणु अग्रणी हैं। इसकी ख़ास वजह यह कि उनकी रचनाओं में वर्तमान के द्वंद्व तो होते ही हैं लेकिन एक बुनियाद भी होती है जिसके सहारे वह बेहतर समाज के निर्माण का सपना संजोते हैं।
भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
शारिक़ अंसर, नई दिल्ली
आज़ादी हासिल करने में और भारत जैसे बहुसंख्यक, बहुभाषीय व बहुसांस्कृतिक समाज को बांधे रखने और उसे नई दिशा देने में...
लघु कथा! तजुर्बा
मेट्रो में एक बुजुर्ग महिला बैठी हैं... साथ उनकी बेटी है... दोनों भोजपुरी में बातें कर रही हैं... बातों का टॉपिक गाँव का कोई...
[कविता] तरस आता है उस देश पर
“लॉरेंस फ़र्लिंगहेटी की यह कविता ‘तरस आता है उस देश पर’, उस देश की है, जिसकी बदनामी इस देश में नहीं हो सकती। इस-उस देश के बीच फँसे एक देश के नागरिकों के सामने एक कविता खड़ी है।” - रवीश कुमार
कविता-किताबें खोलता हूँ
किताबें खोलता हूँ,
सैकड़ों पन्ने पलटता हूँ,
हज़ारों लफ्ज़ मिलते हैं,
सभी खामोश दिखते हैं,
यूंही बिखरे पड़े हैं सब,
क़लम ने क़ैद कर रख्खा है इनको,
किताबों के क़िले...
विकास ढूंढ़ता हूँ मैं…..
मैं अखबार पढ़ते ना जाने क्यों अपने देशका विकास ढूंढता हूँविकास हमारे मोहल्ले का खोया हुआकोई नन्हा बालक नहीं है,विकास हमारी प्रगति का है,विकास...