राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र और मुसलमान

संसद में मुसलमानों की हिस्सेदारी न के बराबर हो चुकी है। आगे भी इसके बढ़ने की संभावनाएं कम ही नज़र आती हैं। मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी तो मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट भी नहीं देती है। देखा-देखी कुछ ऐसा माहौल बन गया है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी मुस्लिम उम्मीदवारों से बचने लगी हैं कि कहीं बहुसंख्यक तबक़ा उनसे नाराज़ न हो जाए और उनके जीतने की संभावना कम न हो जाए। ऐसे में सवाल उठता है कि मुसलमानों को अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए?

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राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र और मुसलमान

फ़ुरक़ान क़मर

एक मज़बूत और सुदृढ़ लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था में हर राजनीतिक दल को चुनाव से बहुत पहले, या कम-से-कम आचार संहिता लागू होने से पहले अपना चुनावी घोषणा-पत्र जारी कर देना चाहिए, ताकि जनता उनकी नीतियों और उन पर काम करने के तौर-तरीक़ों से अच्छी तरह अवगत हो सके। और भी अच्छा हो कि राजनीतिक दलों के लिए यह आवश्यक कर दिया जाए कि वे अपने घोषणा-पत्र के आधार पर लोगों से वोट मांगें, न कि अपने विरोधी या विपक्षी राजनीतिक दल या उनके नेताओं पर कीचड़ उछाल कर या उन्हें नीचा दिखा कर!

साथ ही हर राजनीतिक पार्टी के लिए यह भी अनिवार्य किया जाना चाहिए कि चुनाव परिणाम के नतीजे में सरकार बनने पर वह अपने घोषणा-पत्र की पाबंद होगी और उस पर काम करने करने के लिए ज़िम्मेदार और जवाबदेह भी! उनके लिए यह भी अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे लोगों को यह बताएं कि पहले घोषणा-पत्र में, जिसके आधार पर चुनाव जीत कर उन्होंने सरकार बनाई थी, उनको किस हद तक पूरा किया! और यदि नहीं पूरा कर सके तो उसके कारण क्या थे और यदि उन्होंने दूसरी बार सरकार बनाई तो जनता को विश्वास कैसे दिलाएंगे कि वे उन चुनावी वादों को पूरा करेंगे?

राजनीतिक दल घोषणा-पत्र तो जारी करते हैं लेकिन उस पर काम कम ही करते हैं। चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद वह उनको ठंढे बस्ते में नहीं तो कम-से-कम किनारे ज़रूर धकेल देते हैं। जनता का एक बड़ा तबक़ा अपनी अज्ञानता के कारण राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों को न तो पढ़ता है और न ही उसको लागू करने की मांग करता है। जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है तो वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जनता का ध्यान घोषणा-पत्रों पर नहीं जाने देना चाहते हैं। रैलियों, रोड शोज़, आधे सच और पूरे झूठ पर आधारित धुआंधार भाषणों और सोशल मीडिया पर तरह-तरह की अफ़वाहों को फैला कर जनता का ध्यान ज़रूरी और बुनियादी मुद्दों से भटका दिया जाता है और छोटी और मामूली बातों के माध्यम से जनता की भावनाओं को यूं भड़का दिया जाता है कि है उनके सोचने और समझने की क्षमता ही ख़त्म हो जाए और वे सोच-समझकर कोई फ़ैसला करने के बजाए भावनात्मक उथल-पुथल में घिर जाएं।

यूं तो वोट हासिल करने की इस राजनीति का नुक़सान समाज के हर वर्ग को होता है जिसका नुक़सान पूरे देश को उठाना पड़ता है लेकिन इसका सबसे ज़्यादा असर उन सामाजिक वर्गों पर पड़ता है जो दबे-कुचले और हाशिए पर पड़े पसमांदा वर्गों से ताल्लुक़ रखते हैं। इससे भी ज़्यादा असर उन सामाजिक वर्गों पर पड़ता है जिनके लिए अलग चुनावी क्षेत्र या सीटें आरक्षित नहीं होतीं। उनमें सबसे ऊपर देश के मुसलमान आते हैं। उनका अपना कोई प्रभावी राजनीतिक दल नहीं है। ऐसे नेताओं की भी कमी है जो मुसलमानों की सामूहिक समस्याओं के हल के लिए संघर्ष करें या कम-से-कम उसके लिए माहौल बनाएं। मुसलमानों के लिए संसद या विधानसभाओं में कोई आरक्षण नहीं है, बल्कि सच्चर कमेटी के अनुसार ऐसे बहुत से चुनावी क्षेत्र जहां मुसलमान इतनी संख्या में हैं कि वे चुनाव परिणाम पर प्रभावी हो सकते हैं, उन्हें दूसरे सामाजिक वर्गों के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।

इसके अलावा ऐसे मुसलमान लीडर जो प्रभावी तरीक़े से मुसलमानों की समस्याओं की तरफ़ देश का ध्यान केंद्रित करा सकते हैं, उन्हें अक्सर ऐसा करने में झिझक महसूस होती है। इसके विपरीत दूसरे सामाजिक वर्गों की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियां हैं। उनके अधिकारों का संरक्षण करने वाले नेता बढ़-चढ़कर बेझिझक अपने वर्ग की राजनीति करते हैं और उस पर गर्व भी महसूस करते हैं।

नतीजा हमारे सामने है। संसद में मुसलमानों की हिस्सेदारी न के बराबर हो चुकी है। आगे भी इसके बढ़ने की संभावनाएं कम ही नज़र आती हैं। मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी तो मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट भी नहीं देती है। देखा-देखी कुछ ऐसा माहौल बन गया है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी मुस्लिम उम्मीदवारों से बचने लगी हैं कि कहीं बहुसंख्यक तबक़ा उनसे नाराज़ न हो जाए और उनके जीतने की संभावना कम न हो जाए। ऐसे में सवाल उठता है कि मुसलमानों को अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए? चुनावी प्रक्रिया में सुधार की बात तो बहुत दिनों से चल रही है मगर अब उसका रुख़ एक नई दिशा में मोड़ दिया गया है। राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की ज़िम्मेदारी तय करने या जनता को इस संबंध में और अधिक अधिकार देने की बात कोई नहीं कर रहा है। फ़िलहाल सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि एक देश में एक से ज़्यादा बार चुनाव क्यों कराए जाएं?

ऐसे में मुसलमानों के भीतर राजनीतिक चेतना को जगाना ही एक रास्ता है और इसकी शुरुआत राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों का अध्ययन और विश्लेषण से की जा सकती है। पढ़े-लिखे लोगों को चाहिए कि वे तमाम राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों में मुसलमानों के संबंध में जो बातें कही गई हैं या जिनका असर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों पर पड़ता है, उन्हें उजागर करके जनता के बीच पहुंचाएं ताकि वे भावनाओं में बहने के बजाय सोच-समझकर उस राजनीतिक दल को वोट दें जिन्होंने अपने घोषणा-पत्र में मुसलमानों के अधिकारों के संरक्षण, शांति, सुरक्षा की गारंटी देने की बात की हो और मुसलमानों की शिक्षा, उनके विकास और उनके सामाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने का वादा किया हो।

देश के हालात इस वक़्त कुछ ऐसे हो गए हैं कि शायद इक्का-दुक्का पार्टियों ने ही अपने घोषणा-पत्र में सीधे तौर पर मुसलमानों की समस्याओं पर ध्यान दिया है। कुछ ऐसे राजनीतिक दल भी हो सकते हैं जो मुसलमानों को इस देश में बराबर का नागरिक मानते हों और उनकी सुरक्षा और विकास के बारे में सोचते भी हों लेकिन उन्हें अपने घोषणा-पत्र में यह दर्ज करने में भी डर लगता हो कि दूसरे लोग नाराज़ होकर उन्हें वोट न डालें, ऐसे में उनके ज़ुबानी वादों पर यक़ीन करना ख़ुद को धोखा देने जैसा होगा।

ऐसे भी राजनीतिक दल हो सकते हैं जिनके घोषणा-पत्रों में न सिर्फ़ यह कि मुसलमानों के संबंध में कोई वादा ही न हो बल्कि कुछ ऐसे दूसरे मुद्दे हों जो मुसलमानों के अधिकारों की सुरक्षा के बजाय उनके मौजूदा अधिकारों को भी छीनने की बात करते हों। ज़ाहिर है कि उनसे सिर्फ़ इसलिए उम्मीद लगाना कि सबका विकास होगा तो मुसलमानों का भी विकास होगा, किसी ग़लतफ़हमी से कम नहीं है।

बुनियादी तौर पर यह देखा जाना चाहिए कि देश के संविधान में मुसलमानों को जो अधिकार दिए गए हैं, क्या उनको और ज़्यादा मज़बूत करने का वादा कोई राजनीतिक पार्टी कर रही है या नहीं? क्या उस पार्टी का घोषणा-पत्र उन्हें अपने धर्म का पालन करने और अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा के प्रचार और विकास की आज़ादी देने को तैयार है या नहीं? मुसलमान बच्चों को उनकी अपनी पसंद के अनुसार शिक्षा हासिल करने की न सिर्फ़ इजाज़त हो बल्कि अगर वह पार्टी सरकार बनाती है तो क्या वह दूसरे वर्गों की तरह मुसलमानों को वे तमाम सुविधाएं देगी या नहीं जिसके वे हक़दार हैं? यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों की स्वायत्तता क़ायम रखी जाएगी या नहीं?

ये सिर्फ़ कुछ उदाहरण हैं। ऐसे सवालों की एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है क्योंकि हर किसी को हमेशा मुकम्मल जहां नहीं मिलता, इसलिए इन सवालों की अहमियत को देखते हुए इन्हें बुनियादी, ज़रूरी और बेहद अहम जैसे श्रेणी में रखा जा सकता है। हर राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र की मुसलमानों के संबंध में एक रैंकिंग तैयार की जा सकती है जिससे वोटर्स को अपने क्षेत्र में प्रभावी उम्मीदवार को चुनने में मदद मिल सके।

(फ़ुरक़ान क़मर जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रबंधन के प्रोफ़ेसर, योजना आयोग के पूर्व शिक्षा सलाहकार, राजस्थान विश्वविद्यालय और हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं।)

हिंदी अनुवाद: एमडी‌ स्वालेह अंसारी

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