ताज़ा-तरीन
जब मौत ही वजूद का एकमात्र सार्थक रास्ता बन जाए
इन मौतों ने हमें यह हक़ीक़त फिर से बताई है जो हम धीरे-धीरे भूल रहे थे कि मानवता का एक बड़ा हिस्सा तथाकथित ‘पहली दुनिया’ में बैठे लोगों की पकड़ एवं नियंत्रण में है। इन्होंने हमें सिखाया है कि सच को नकारना बुरा है मगर सच को गढ़ना उससे भी बुरा है। इन मौतों ने उन अदाकारों और संस्थानों के नक़ाब उतार दिए हैं जो बनावटीपन और झूठ के समर्थक रहे हैं। इन्होंने हमारे बाहर झाँकने के लिए एक दरार बनाने का काम किया है।
सम्पादकीय
जब मौत ही वजूद का एकमात्र सार्थक रास्ता बन जाए
इन मौतों ने हमें यह हक़ीक़त फिर से बताई है जो हम धीरे-धीरे भूल रहे थे कि मानवता का एक बड़ा हिस्सा तथाकथित ‘पहली दुनिया’ में बैठे लोगों की पकड़ एवं नियंत्रण में है। इन्होंने हमें सिखाया है कि सच को नकारना बुरा है मगर सच को गढ़ना उससे भी बुरा है। इन मौतों ने उन अदाकारों और संस्थानों के नक़ाब उतार दिए हैं जो बनावटीपन और झूठ के समर्थक रहे हैं। इन्होंने हमारे बाहर झाँकने के लिए एक दरार बनाने का काम किया है।
अभिमत
सिनेमा
पुरुषवादी समाज में औरत की तलाश करती है ‘लापता लेडीज़’
दो दुल्हनों के किरदार के ज़रिए इस फ़िल्म में भारतीय रुढ़िवादी परंपराओं ख़ासकर पितृसत्तात्मक सोच और उससे पनपी सामाजिक जटिलताओं को बेहद ख़ूबसूरत अंदाज़ में सामने लाया गया है और ना केवल उन्हें सामने लाकर असहाय छोड़ दिया गया है बल्कि फूल और जया के किरदार के ज़रिए सामाजिक कुरीतियों को कड़ी चुनौती देते हुए अंत में एक ज़बरदस्त संदेश भी दिया गया है।
किताबों की दुनिया
फ़िलिस्तीन एक राष्ट्र के रूप में कैसे वजूद में आया?
फ़िलिस्तीन कोई ख़ाली पड़ी ज़मीन नहीं थी। यह एक समृद्ध और उपजाऊ पूर्वी भूमध्य सागरीय दुनिया का हिस्सा था जो उन्नीसवीं सदी में आधुनिकीकरण और राष्ट्रीयकरण की प्रक्रियाओं से गुज़र रहा था, जो एक आधुनिक समाज के रूप में बीसवीं सदी में प्रवेश करने की कगार पर था। ज़ायोनी आंदोलन द्वारा इसके उपनिवेशीकरण ने इस प्रक्रिया को वहां रहने वाले अधिकांश मूल लोगों के लिए एक आपदा में बदलकर रख दिया।
पत्रिका
छात्र विमर्श विशेषांक: वादे और वास्तविकता के बीच झूलती शिक्षा व्यवस्था
इस विशेषांक में आपके लिए है बहुत कुछ महत्वपूर्ण और दिलचस्प.
पढने के लिए क्लिक करें
इस विशेषांक पर अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर भेजें.
अपनी प्रतिक्रिया हमें [email protected] पर भेजें.
साक्षात्कार
देश में उत्पन्न आर्थिक संकट के लक्षण चिंतनीय – अभिजीत बनर्जी
भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को वर्ष 2019 के लिए अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनका जन्म 1961...
“संघर्ष केवल अपने अधिकारों के लिए नहीं बल्कि न्याय पर आधारित समाज के निर्माण...
केरल से सम्बन्ध रखने वाले नहास माला 2017 व 2018, दो वर्षों तक देश के प्रतिष्ठित छात्र संगठन ‘स्टूडेंट्स इस्लामिक आर्गेनाईजेशन’ के अखिल भारतीय अध्यक्ष...
शिक्षा विमर्श
शिक्षा तंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल
अकादमिक संस्थानों की प्रकृति प्रशासनिक संस्थानों जैसी होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में राज्य ने शैक्षिक सुधारों की गति को तेज़ करने के लिए जो प्रयास किए हैं, उसका एक परिणाम यह हुआ है कि अकादमिक संस्थानों को सेना और पुलिस के प्रशासनिक ढांचे की तरह बनाया जा रहा है। ‘युद्धस्तर पर कार्यवाही‘ जैसे मुहावरे चला दिए गए हैं।