दूसरों की रोशनी चुराकर चमकते दिखने की निर्लज्ज चाहतें
बादल सरोज
अभी तक देशों के अपने राष्ट्रीय पशु, पक्षी, पेड़, पर्वत, झंडे और दीगर प्रतीक चिन्ह होने के रिवाज प्रचलन में हुआ करते थे। मोदी राज में इनमें ख़ूब इज़ाफ़े हुए हैं; कई-कई नयी चीज़ें जुड़ी हैं। इन्हीं में से एक है राष्ट्रीय विवाह, जो मार्च से शुरू हुआ है और अभी तक चल ही रहा है। इसकी बेसुरी धमाधम शुरू हो चुकी है और गूंज-अनुगूंज उत्तरोत्तर तेज़ से तेज़ तर होने वाली है। कोई भ्रम न रह जाए इसलिए अम्बानी की अपनी सरकारों ने इसे बाक़ायदा सूचना निकाल कर एक सार्वजनिक (पढ़ें राष्ट्रीय) आयोजन का दर्जा दे दिया है।
देश की वाणिज्यिक राजधानी मानी जाने वाली मुम्बई में 12 जुलाई से 14 जुलाई तक घोषित रूप से दफ़्तर, बाज़ार यहां तक कि नेशननल स्टॉक एक्सचेंज (एन एस ई) बंद रहे। शादी के लिए तैयार महल और उसमें आये मेहमानों के ठहरने की जगहों की कई किलोमीटरों की परिधि में आने वाली सड़कें भी ‘इंडिया दैट इज़ भारत’ के नागरिकों के लिए बंद कर दी गयीं। इसमें ख़र्चा कितना होगा इसका अंदाज़ा भी लगाना सामान्य इस्तेमाल में लाये जाने वाले कैलकुलेटर्स को जाम कर सकता है; एक मोटा अनुमान इस शादी के पहले हुए दो शादी पूर्व आयोजनों (प्री वेडिंग सेरेमनी) को देखकर लगाने की कोशिश की जा सकती है।
जामनगर के जंगल में मंगल की तरह मार्च महीने के तीन दिवसीय समारोह में 1259 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे। 29 मई से 1 जून तक हुई दूसरी प्री-वेडिंग 7500 करोड़ रुपयों के पांच तारा आलीशान पानी के जहाज़ क्रूज़ पर 4380 किलोमीटर तक समन्दर पर चली; इटली से जेनेवा, रोम से फ़्रांस, कहीं लंच, कहीं डिनर, कहीं ब्रेकफ़ास्ट करते हुए यह कान्स तक पहुंची। इसमें शामिल हुए दुनिया भर से बुलाये गए कोई 800 मेहमान इस ऐश्वर्य के पर्याय जल-महल के जिन कमरों – रईस कमरों में नहीं रहते, वे उन्हें सुईट कहते हैं – उन एक-एक का किराया ही दसियों लाख रुपयों में था।
इसमें जामनगर से दो गुने से भी कहीं ज़्यादा के ख़र्च की ख़बर है। मगर ऐसा लगता है जैसे अम्बानी ने वैभव की अश्लीलता की अब तक की सारी हदें लांघने और मनुष्यता को लजाने वाली फिज़ूलख़र्ची के दिखावे की हवस को बढ़ाते जाने की ठान ली है। मुम्बई में होने वाली इस शादी में, जिसे अम्बानी की सरकारों ने लगभग राष्ट्रीय समारोह का दर्जा दे दिया है, इसी मनोरोग के तीसरे आयाम की फूहड़ता दिखाई जा रही है। इस शादी में बुलावे के लिए भेजा गया निमंत्रण कार्ड ही प्रति कार्ड 7 लाख रुपये का है।
जिस देश में ख़ुद उसके प्रधानमंत्री के दावे के हिसाब से 80-85 करोड़ लोग सरकार के 5 किलो राशन और हज़ार डेढ़ हज़ार रुपयों की बाट जोहते इतने हताश हो गए हैं कि किसी भी चिरकुट बाबा के यहां बीसियों हज़ार की भीड़ बनाकर भगदड़ में मौत के मुंह में जाने का जोखिम उठा रहे हैं, वास्तविक जीवन में कोई उम्मीद न देख काल्पनिक समाधान हासिल करने के लिए अंधविश्वासों की गहरी खाई में छलांग मारने को भी तत्पर हुए जा रहे हैं, ऐसे देश में इतनी विपुल मात्रा में धन का पानी की तरह बहाया जाना किसी भी सभ्य समाज के लिए क्षोभ और लज्जा का विषय है, एक राष्ट्रीय अपराध है।
ऐसा करने की हिम्मत कहां से आती है?
ऐसा करने की हिम्मत उस नाक़ाबिल और ज़रपरस्त राजनीति से आती है जिसकी हैसियत 2014 में तब नए नए चुने गए प्रधानमंत्री की पीठ पर हाथ रखकर मोटा भाई दुनिया भर को दिखा चुके हैं। जिन्हें अपने उत्पाद बेचने का मॉडल बनाकर विज्ञापनों में छपवा चुके हैं। उस मीडिया से आती है जो इस बेहूदगी का लाइव प्रसारण करते और सेठ जी का महिमा गान करते हुए रीढ़विहीन होकर तलछट में रेंग रहा है और इसे राष्ट्रीय गौरव बता रहा है। उस विचार समूह से आती है जिसकी मांद से निकले शाखा श्रृगाल सेठ जी के इस शादी काण्ड में शामिल सारे अतिथियों के भारतीय (?) पोशाक पहनने को सनातन का दुनिया भर में प्रचार करने का कारनामा बताते हुए एक्स और इंस्टाग्राम पर कोहराम मचाये हुए हैं। यही है संघ जिन्हें अपना गुरु मानता है उन गोलवलकर के आर्थिक सूत्र “हाथी को मन भर चींटी को कण भर” के सूत्र को जनता के गले उतारने का जतन! सनद रहे कि सेठ यह सारा तामझाम अपनी जेब से नहीं कर रहा है, उसने इसकी वसूली के लिए अपने जिओ के दाम झटाक से बढ़ा दिए हैं।
इधर सेठ जी हमारी आपकी जेब से रोशनी चुराकर अपनी चमकार का मेला लगाए बैठे हैं, उधर मोदी जी अपनी उठी हुयी हाट को फिर से सजाने, जनता द्वारा खड़ी की गयी खाट को फिर से बिछाने के लिए कोना तलाशने में लगे हैं। लोकसभा चुनाव में साफ़-साफ़ हुयी हार के सच को नकारने, संसद के पहले सत्र में ही विपक्ष के सवालों से हांफते-हकलाते हुए पूरे देश के सामने लाइव बेनक़ाब हो जाने की झेंप मिटाने के लिए मेहनत करके रोशनी कमाकर लाये नक्षत्रों की रोशनी में ख़ुद को चमकाने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते। यही कारगुज़ारी थी जो उन्होंने क्रिकेट का अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबला जीतकर लौटी भारतीय टीम के साथ की। देश लौटकर उस टीम को जाना था मुम्बई, जहां शाम को उनके स्वागत में मरीन ड्राइव पर हुजूम जुटने वाले थे, मगर उन्हें पहले बुला लिया गया दिल्ली ताकि प्रधानमंत्री उनके साथ अपनी फ़ोटो उतरवा कर इन खिलाड़ियों की अर्जित चमक में से रोशनी चुराकर जनता द्वारा अपने पर बरपाए अंधेरे में थोड़ी बहुत कमी ला सकें। कोहली, बुमराह और सूर्यकुमार यादव सहित पूरी क्रिकेट टीम की चकाचौंध में से कुछ किरणें अपने कुम्हलाये चेहरे पर चुपड़ सकें। भारत की जनता का धर्म बन चुके क्रिकेट के इस उल्लास में साझेदारी से अलग उनकी मंशा निश्चित ही खिलाड़ियों के साथ किये अपनी पार्टी और सरकार के जघन्य अपराधों को छुपाने की रही होगी, किन्तु लोगों की याददाश्त इतनी भी कमज़ोर नहीं होती। उन्हें याद है कि कुछ इसी तरह का स्वांग प्रधानमंत्री निवास में ओलम्पिक जीत कर लौटी महिला खिलाड़ियों के साथ भी किया गया था। नाश्ता भी कराया था, फ़ोटो भी खिंचवाए थे, वीडियो भी बनवाये थे। ख़ुद को उनका अभिभावक और उन्हें अपने परिवार का हिस्सा तक बताया था। मगर जब उसी दौरान इन खिलाड़ियों ने मोदी की पार्टी के सांसद बृजभूषण शरण सिंह द्वारा किये गए यौन शोषण के बारे में शिकायत की थी, तब यही स्वयंभू अभिभावक सुट्ट लगा गए थे।
बाद में इन्साफ़ की मांग को लेकर यही महिला खिलाड़ी मोदी की नाक के नीचे जंतर-मंतर पर धरने पर बैठीं तब उनके साथ जो हुआ वह इस देश के माथे पर लगाए गए कलंक की तरह आज भी लोगों की स्मृति में दर्ज है। इन्हें न सिर्फ़ जाट – जैसे जाट होना कोई अपराध हो – कहकर गालियां दी गयीं बल्कि भाजपा-संघ और उनकी पूरी मंडली ने इन शानदार खिलाड़ियों को चुके और ख़त्म हो चुके खिलाड़ी तक बताया। हालांकि इन तोहमतों और बद्दुआओं को धता बताते हुए इन्हीं महिला पहलवानों में से एक विनेश फोगाट दूर स्पेन में हुए एक मुक़ाबले में स्वर्ण पदक जीतने का करिश्मा दिखा आई है। यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि मोदी अब विनेश को चाय पिलाने के लिए भी न्यौतेंगे।
बहरहाल ये धब्बे इतने गहरे हैं कि क्रिकेट टीम के साथ फ़ोटो सेशन की रंगबिरंगी तस्वीरों से भी झलक-झलक कर दिखते रहेंगे। खेल के साथ ऐसा ही खेल वे नीरज चोपड़ा की मां के हाथों का बना चूरमा खाने की इच्छा जताने का ढकोसला करके कर रहे थे। हालांकि उन्हें याद होगा कि जब सचिन-वचिन जैसे सूरमा इन महिला पहलवानों के पक्ष में बोलने और उनके साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं थे तब कपिल देव के अलावा यह नीरज चोपड़ा और जिनके हाथों का बना चूरमा खाने को वे बेताब हैं, वही मां देश की इन बेटियों के साथ थीं।
हमारे कालखंड का नीरो इधर फ़ोटुओं में अपने परिधान और भंगिमाओं का मुज़ाहिरा कर रहा था और उधर हाथरस में एक कथित बाबा के समागम में जमा हुई भीड़ उत्तर प्रदेश सरकार की बदइंतज़ामी और इनके कुनबे द्वारा हवा दिए जा रहे अंधविश्वास के चलते एक दूसरे के पांवों तले कुचली जा रही थी। उनके प्रति संवेदना जताने, राहत वगैरह की व्यवस्था करने और इसके दोषियों को दण्डित करने की अपनी नैतिक संवैधानिक ज़िम्मेदारी को निभाने की जगह उधार की रोशनी में चमकने की निर्लज्ज चाहतों का प्रदर्शन किया जा रहा था। ये अलग बात है कि लगभग गृहयुद्ध जैसी आग में जलता मणिपुर इन चुराई हुई रोशनी के रेशे-रेशे को उधेड़ कर इसकी कालिमायें पहले ही उजागर कर चुका है।
विस्फ़ोट की तरह सामने आती यही कालिमायें हैं जिन्हें ढांपने के अब तक के सारे धतकर्मों में नाकाम रहने के बाद न्याय और अपराध संहिताओं में तानाशाही पूर्ण बदलाव लाकर इधर पीड़ितों की आवाज़ घोंटने और उधर अपराधियों को बचने के रास्ते मुहैया करने के प्रबंध किये जा रहे हैं। इनके ख़िलाफ़ देश भर में विकसित होता प्रतिरोध, संसद में एकजुट हुए विपक्ष की सड़कों पर उतरने की तैयारी और जनता तथा उसके संगठनों में बढ़ता दिखता आत्मविश्वास तय है कि इस चाल को भी विफल बनाएगा।