व्हाइल वी वाच्ड: हमारे देखते-देखते एक पत्रकार की ज़िंदगी बदल गई

यह उस दौर की कहानी है जो ‘हमारे देखते-देखते’ बीत भी गया। उस दौर का पूर्व कथन भी जो हमारे देखते-देखते बीत रहा है। नए समय को देखते हुए यह एक पत्रकार के पूर्वाभास की कहानी भी लगती है।

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व्हाइल वी वाच्ड: हमारे देखते-देखते एक पत्रकार की ज़िंदगी बदल गई

उमेश पंत

‘जियो मामी मुंबई फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ के लिए हमारी फ़िल्म ‘डियर लतिका’ का चयन हुआ था। वहां विनय शुक्ला की फ़िल्म ‘व्हाइल वी वाच्ड’ भी चुनी गयी थी, तो अपनी फ़िल्म के चयन की ख़ुशी के साथ इस फ़िल्म को देखने का उत्साह भी था, पर उस फ़िल्म को इतने लोग देखना चाहते थे कि टिकिट पहले से बुक हो चुकी थी। सो फ़िल्म नहीं देखी जा सकी। ख़ैर, जो मुंबई में नहीं देख पाया उसे कल मुबी पर देख लिया।

यह उस दौर की कहानी है जो ‘हमारे देखते-देखते’ बीत भी गया। उस दौर का पूर्व कथन भी जो हमारे देखते-देखते बीत रहा है। नए समय को देखते हुए यह एक पत्रकार के पूर्वाभास की कहानी भी लगती है।

फ़िल्म जहां से शुरू होती है, वहां एक टीवी स्टूडियो है जिसमें तोड़-फोड़ चल रही है। उसी अंधेरे टूटते हुए कमरे में कहीं से रोशनी की किरण आ रही है और हताश से लग रहे रवीश कुमार कुछ सोचते हैं और फिर किसी निश्चय के साथ उस रोशनी की तरफ़ बढ़ जाते हैं। शुरू में बेवजह सा लगता यह दृश्य आगे चल कर किस हद तक प्रासंगिक लगने लगेगा, यह कल्पना आप फ़िल्म की शुरुआत में नहीं कर पाते।

विनय शुक्ला द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में मेरे लिए फ़िल्म का यह ओपनिंग शॉट एक तरह से बहुत प्रतीकात्मक दृश्य रहा। फ़िल्म जिस दौर को दिखाती है, वह एक तोड़-फोड़ भरा दौर है। इस टूटन की ज़द में राष्ट्रवाद की आदर्श परिभाषा है, जिसकी जगह नई हिंसक परिभाषा ले रही है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानी मीडिया है जो टूट-टूट कर भीतर से खोखला हो गया मालूम होता है। अलग-अलग धर्म के लोगों का ‘आपस में भाई-भाई’ होने का वह जाता हुआ ग़ुरूर है जिसे एक देश के रूप में हमने हमेशा से पाले रखा। विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में स्वायत्त सोच और विचारधाराओं को पनपने देने की परंपरा है जिस पर प्रहार अपने ज़ोरों पर है। एक सर्वहितकारी, समावेशी, लोकतांत्रिक सरकारी तंत्र की कल्पना है जो अपने इन उत्तरदायित्वों को ध्रुवीकरण और निजीकरण की भेंट चढ़ाने पर अमादा है। उन युवाओं के हौसले और उम्मीदें हैं जो सुनवाई के अभाव में इस हद तक लाचार हैं कि सरकार की जगह पत्रकार से उम्मीद लगाए बैठे हैं। एक संस्थान है जो अपने पत्रकार को वह सब बोलने की आज़ादी दे रहा है जिसे देश का बहुसंख्यक समाज सुनना ही नहीं चाहता और इसी क्रम में वह लगातार कमज़ोर होता जा रहा है। तीन लोगों का एक छोटा-सा परिवार है जिसमें बदली हुई परिस्थितियों में एक पत्नी अपने पति की टूटन को लगातार देख रही है, जिसके लिए फ़िलहाल कुछ किया नहीं जा सकता। एक प्यारी-सी बच्ची है जो मुश्किल दौर से जूझते अपने पिता की गोद में बैठी गालों पर चपत मारकर कहती है – गधे हो तुम!

तोड़-फोड़ इतने स्तरों पर है जिनमें से कुछ दृश्यमान हैं, कुछ अदृश्य। यह तोड़-फोड़ जितनी बाहरी है, उससे कई ज़्यादा मानसिक है। फ़िल्म दोनों ही तरह की तोड़-फोड़ से उपजे तनावपूर्ण माहौल को अच्छी तरह से रूपांतरित करने में कामयाब होती है। इसके लिए विनय शुक्ला और उनकी टीम बधाई की पात्र हैं।

रवीश कुमार फ़िल्म के नायक हैं, जिन्हें फ़िल्म के मुताबिक़ देश का एक बड़ा हिस्सा खलनायक की तरह देख रहा है। इसके लिए एक पूरा तंत्र काम करता दिखाई देता है, जिसमें मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया दोनों ही बड़ी भूमिका निभाते हैं। कारोबारी मीडिया का एक पत्रकार जब सत्ता के ख़िलाफ़ हो जाता है तो कैसे अपने कारोबार को दरकिनार करना सिर्फ़ उसे ही नहीं बल्कि पूरे संस्थान को प्रभावित करता है, फ़िल्म ने इसे बख़ूबी दिखाया है।

फ़िल्म में सुन्दर दृश्यों की कोई गुंजाइश नहीं है। फ़िल्म का ज़्यादातर हिस्सा दफ़्तर के छोटे-छोटे क्यूबिकल्स, स्टूडियो की बंद दीवारों के बीच और कार की बेहद सीमित जगह पर फ़िल्माया गया है। ज़्यादातर दृश्यों में रोशनी भी सीमित है। लगता है कि रवीश की ज़िंदगी के मुश्किल समय को फ़िल्माते वक़्त फ़िल्मकार का यह सायास प्रयास रहा जो तनाव को बनाए रखने में मदद करता है।

इस दौर में हुई कुछ अप्रत्याशित घटनाएं फ़िल्म में एक नाटकीयता ले आती हैं, जिन्हें देख लगता है जैसे वक़्त ही पोएटिक जस्टिस कर रहा है। जैसे एक ऐसे वक़्त में रवीश कुमार को एक प्रतिष्ठित पुरस्कार (रेमन मैग्सेसे अवार्ड) मिल जाना, जब लग रहा है कि सारी उम्मीदें ख़त्म हो रही हैं। हारते हुए लोगों के बीच जीते हुए अपने साथी के लिए ख़ुश उनके सहकर्मियों के आंसू उनके भीतर के हारे, हताश और टूटे हुए पत्रकार की मनोदशा को भी ज़ाहिर कर देते हैं। नौकरी से निकाले जाने वाले, या दबाव में आकर नौकरी छोड़ रहे सभी पत्रकारों की विदाई के लिए जितनी बार केक कटते हैं, एक छुरी जैसे दर्शक के दिल में भी चलती है। रवीश की सुरक्षा में लगा वह व्यक्ति जो इस पूरे फिल्मांकन का पहला मूक दर्शक है, अपने तबादले से जिस तरह निराश लगता है, वह देख कर एक कसक सी उठती है।

फ़िल्म माध्यम की अपनी एक सीमा है कि प्रभाव बनाये रखने के लिए एक नायक को केंद्र में रखना होता है। जब एक व्यक्ति नायक की भूमिका में आता है तो नायकत्व के कई दूसरे हक़दारों को उनके हिस्से का हक़ नहीं मिल पाता। हालांकि फ़िल्म में उन दूसरे नायकों की एक छवि ज़रूर दिखाई गयी है। इस भूमिका में यहां स्वरलिपि, सौरभ शुक्ला, सुशील बहुगुणा, सुशील मोहापात्रा, दीपक चौबे जैसे किरदार भी हैं जो रवीश के कलीग हैं। उनके साथ फ़िल्माए गए दृश्य आपसी तनाव, नौकरी जाने के भय, अलग-अलग कार्यशैली से उपजी बहसबाज़ी, और सहकर्मियों की विचारधारा के टकराव को भी गहराई से पकड़ पाते हैं जिसके लिए फ़िल्मकार तारीफ़ के क़ाबिल हैं।

‘चिल्लाने की ये जो तुम्हारी आदत है इससे बाज़ आओ’, एक अनुभवी साथी पत्रकार जब रवीश पर खीझते हुए उनसे कहते हैं तो यह देश के मुख्यधारा मीडिया और उनके पोषकों के भी मन की बात भी लगती है जो चिल्ला-चिल्ला कर उनसे यही कह रहे हैं। हालांकि उनके कलीग चौबे जी ने यह बात एक त्वरित प्रतिक्रया में कही है। मतभेद हो तो ज़रूरी नहीं कि मनभेद भी हो जाए, एक ही स्टूडियो में बैठे दो सहकर्मियों के बीच का यह रिश्ता इस बात को बख़ूबी ज़ाहिर करता है। ‘कभी कुछ भी हो तुम्हें पता है कि पहला फ़ोन किसे करना है’, जाते हुए कही गयी यह बात इसकी पुष्टि करती है कि तमाम मतभेदों के साथ भी एक दूसरे के साथ खड़ा हुआ जा सकता है।

शक्तिशाली मीडिया जब सत्ता के वर्चस्व को चुनौती देने लगे तो उसे शक्तिहीन कर देने के लिए सत्ता ही नहीं बल्कि उसके द्वारा पोषित मीडिया किस हद तक जा सकता है, एनडीटीवी का वह दौर इसकी बानगी भी पेश करता है। रवीश को लगातार आते अजनबियों के फ़ोन, जान से मार देने तक की धमकियां दिखाती हैं कि कैसे दर्शक को हिंसक भीड़ में तब्दील करने की परियोजनाएं काम करती हैं। कैसे किसी सत्ता का अंध समर्थक अपने ही सह नागरिक का इतना घोर विरोधी बन जाता है कि उसे उसकी मृत्यु में अपना संतोष नज़र आने लगता है। देशप्रेम से देश और उसके नागरिक ग़ायब हो जाते हैं और उनके लिए प्रेम नफ़रत में तब्दील हो जाता है। रवीश जब फ़ोन पर अपने ट्रोलर को कहते हैं – चलो मेरे साथ गाओ – ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’, तो देशभक्ति के गीत की ये पंक्तियां व्यंग्यपूर्ण नज़र आने लगती हैं। उस मौक़े पर लगता है नफ़रत को जिस एक चीज़ से मात दी जा सकती है वह प्रेम ही तो है।

यह बहस ज़रूर की जा सकती है कि क्या केवल सत्ता का विरोध कर देना ही पत्रकारिता है? लेकिन इस बहस में जाने से पहले यह जांच-परख लेना भी ज़रूरी है कि उस पत्रकारिता के केंद्र में विषय क्या-क्या हैं? किसी का विरोध करते हुए पत्रकार किसके पक्ष में खड़ा नज़र आता है? एक जनपक्षधर पत्रकार हमेशा विपक्ष की भूमिका में होना चाहिए और यह भी ज़रूर देखना चाहिए कि जब सत्ता बदलती है तो वह पत्रकार आपको कहां खड़ा मिलता है? जब हम सब कुछ देख ही रहे हैं तो हम यह भी देखेंगे कि मौजूदा वक़्त में एक साथ नायक और खलनायक की भूमिका में दिखता-दिखाया जाता वह पत्रकार, जब परिस्थितियां बदलेंगी तो कहां खड़ा होगा!

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