पेपर लीक की घटनाओं के बाद छात्र दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर विरोध करते हुए

क्या ‘नेट’ और ‘नीट’ की विफलता शैक्षिक महामारी की ओर इशारा कर रही है?

निहाल किडियूर

जब चुनाव का मौसम अपनी पूरी नाटकीयता और अजीबोग़रीब घटनाओं के साथ गर्म था, इंडिया गठबंधन ने यह कहते हुए एक अस्पष्ट पूर्ण विराम लगा दिया कि “उचित समय पर उचित कार्रवाई की जाएगी।” जनता शांत हो गई और अपने काम में लगी रही। उसी दिन, NEET-UG परीक्षा के परिणाम घोषित किए गए, जिसके बाद पूरे देश में बड़ा हंगामा खड़ा हो गया। कई छात्रों ने एक विशेष परीक्षा केंद्र से पूरे-पूरे अंक हासिल किए, और ग्रेस मार्क्स के मनमाने वितरण को लेकर मचे बवाल ने यह साफ़ कर दिया कि परीक्षा की अखंडता और शुचिता से समझौता किया गया था।

इस घटना के कुछ दिनों बाद ही लाखों छात्रों ने UGC-NET की परीक्षा दी, और उन्हें बड़ा झटका तब लगा जब अगले ही दिन NTA ने एक नोटिस जारी कर बताया कि यह परीक्षा रद्द कर दी गई है (आपने सही सुना, मैं परीक्षा की बात कर रहा हूं, ट्रेन की नहीं!)। इसके बाद सिलसिलेवार तरीक़े से NEET-PG और CSIR-UGC NET परीक्षा को भी रोक दिया गया। इन घटनाओं के क्रम को अलग-थलग नहीं देखा जाना चाहिए। यह घटनाएं स्पष्ट रूप से हमारी शिक्षा प्रणाली में व्याप्त सड़न की ओर इशारा करती हैं।

इस लेख में, मैं इन घटनाओं के तात्कालिक परिणामों पर बात करना चाहता हूं और NTA की विफलता, अधिकारियों के इस्तीफ़े और संस्थानों में विश्वास की कमी जैसे सतही शोरग़ुल से परे बड़ी तस्वीर को देखना चाहता हूं – जो सभी वास्तविक चिंताएं हैं। सबसे पहले, उभरती हुई तात्कालिक चिंताओं पर नज़र डालते हैं।

  1. जवाबदेही और सरकार की विफलता

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सार्वजनिक शिक्षा वर्तमान शासन के लिए प्राथमिकता नहीं है। शैक्षिक बजट में कटौती, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के लिए छात्रवृत्ति को समाप्त करना, कैंपस में लोकतांत्रिक माहौल को सीमित करना, और असहमति को दबाना इस सरकार की नीति और कार्यपद्धति बन गए हैं। इस माहौल में, पारदर्शी और निष्पक्ष परीक्षाओं को आयोजित करने में विफलता शासन की एक पूर्ण विफलता है। यह सरकार की प्राथमिकताओं को और उजागर करता है और उनके खोखले नारों का पर्दाफ़ाश करता है। यह पहली बार नहीं है; यहां तक कि कोरोना महामारी के दौरान भी, हमने स्वास्थ्य प्रणाली के पतन को देखा। सही कहा गया है कि संकट ही असली स्वभाव को उजागर करता है, और इन घटनाओं ने सरकार और शासन व्यवस्था को बेनक़ाब कर दिया है।

  1. परीक्षा की शुचिता और अखंडता से समझौता

हमारी शैक्षिक प्रणाली में दाख़िला लेने वाले लाखों छात्र और उनके माता-पिता इन परीक्षाओं में सफलता और उज्जवल भविष्य सुरक्षित करने के लिए रातों की नींद हराम कर देते हैं। छात्र अच्छी तैयारी करने के लिए अपने गृहनगर और राज्यों को छोड़ देते हैं। अब जब ऐसे घोटालों और धोखाधड़ी का पर्दाफ़ाश हो गया है, तो छात्रों के लिए उत्साह बनाए रखना और माता-पिता के लिए आगे बढ़ने का संकल्प और विश्वास रखना कठिन होगा। यह संबंधित हितधारकों के लिए एक बड़ा झटका है।

  1. भविष्य के बारे में अनिश्चितता

दुर्भाग्य से, ये परीक्षाएं एक बड़े दांव वाले पोकर खेल बन गई हैं, जहां जीतने वाला सब-कुछ ले जाता है। परिणामस्वरूप, लाखों छात्र एक ऐसी स्थिति में फंस गए हैं, जो केवल मांग-आपूर्ति के अंतर पर निर्भर हो गई है। इन परिस्थितियों में, ऐसी घटनाएं पहले से ही बोझिल शिक्षा प्रणाली पर अतिरिक्त दबाव डालकर उसे और बदतर बना देंगी, जिसके कारण छात्रों की मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं में भी वृद्धि हो सकती है।

इसके अलावा और भी चिंताएं हो सकती हैं। आगे मैं इस पुरानी बीमारी के प्रमुख कारकों को समग्र दृष्टिकोण से देखना चाहता हूं, जो कैंसर का रूप धारण कर चुकी है।

अ. शिक्षा का उपकरणीकरण

शिक्षा को मात्र एक वस्तु तक सीमित कर दिया गया है। शिक्षा के उच्च उद्देश्य – एक जागरूक मानव, एक नैतिक नागरिक, एक सूचित और बुद्धिमान व्यक्ति का निर्माण करना – बहुत पीछे छोड़ दिए गए हैं और अब शिक्षा को केवल निवेश और प्रतिफल के व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाता है। हमारे विश्वविद्यालयों को बाज़ारों में बदल दिया गया है, जो जॉर्ज रिट्ज़र की ‘McDonaldization of Society’ से लिया गया एक विचार है और जिसे ‘मैकयूनिवर्सिटी’ कहा जाता है। परिणामस्वरूप, शिक्षा माफ़िया देश-भर में फल-फूल रहे हैं। हमारे पाठ्यक्रम और दृष्टिकोण में मूल्यों और नैतिकता का महत्व नहीं रह गया है। इसके बजाय, हमारे पास एक असेंबली लाइन मॉडल है जिसमें मानकीकृत कक्षाएं होती हैं जो अंक उत्पन्न करने वाले, आज्ञाकारी छात्रों/ग्राहकों का उत्पादन करती हैं।

कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे अख़बार और सार्वजनिक होर्डिंग्स टॉपर्स के अंकों को ऐसे प्रदर्शित करते हैं जैसे कि वे किसी घुड़दौड़ के परिणाम हों। जब तक हम इस घटना को स्वीकार नहीं करते और इस मशीन के रूपकात्मक चक्र को नहीं तोड़ते, तब तक हम इस आत्मा-चूसने वाले अधर में ही अटके रहने के लिए अभिशप्त हैं। इसलिए, पेपर लीक से हमें वास्तव में आश्चर्य नहीं होना चाहिए; कभी-कभी, वे एक सस्ता निवेश साबित हो सकते हैं।

ब. शिक्षा का व्यवसायीकरण

एक ओर, शिक्षा के उपयोगितावादी दृष्टिकोण ने उसकी वास्तविक भावना को धुंधला कर दिया है, जिससे शिक्षा के महान क्षेत्र को एक वाणिज्यिक, धन कमाने वाले व्यवसाय में बदल दिया गया है। कोचिंग कंपनियों का तेज़ी से फैलना, जो छात्रों को सफलता और उज्जवल भविष्य के सपने बेचकर धोखा देते हैं, ग़रीबों को लूटने का ज़रिया बन गए हैं। कोटा पर एक नज़र डालने से, जो तेज़ी से भारत की आत्महत्या राजधानी बनता जा रहा है, पूंजीवादी शिक्षा मॉडल की मार्मिक स्थिति उजागर होती है। निजी कॉलेजों की अत्यधिक फ़ीस इस मॉडल की बढ़ती सफलता को और रेखांकित करती है, जहां माता-पिता की बचत को कोर्सेज़ के भुगतान के लिए फूंक दिया जाता है। सार्वजनिक शिक्षा की दुखद स्थिति सरकार की एक सुनियोजित नीति प्रतीत होती है, जिससे अपनी ज़िम्मेदारी से बचा जा सके और पूरे क्षेत्र को निजी शिक्षा माफ़ियाओं के लिए खोल दिया जाए।

स. मानकीकृत वस्तुनिष्ठ परीक्षा 

एक मौलिक रूप से जुड़ा हुआ मुद्दा मानकीकृत वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन का हमला है। इस महामारी ने उच्च शिक्षा तक पहुंच को सीमित कर दिया है। उदाहरण के लिए, यूजीसी-नेट परीक्षा पर विचार करें, जहां छात्रों की शोध करने की क्षमता का मूल्यांकन विचारों के साथ उनके आलोचनात्मक जुड़ाव के बजाय लेखकों द्वारा लिखी गई वर्षों पुरानी पुस्तकों को याद करने की उनकी क्षमता के आधार पर किया जाता है। पहले, FTII पुणे, जो एक फ़िल्म अध्ययन संस्थान है, में एक निबंध खंड होता था जहां छात्र अपने विचारों और कल्पना को शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर सकते थे। अब, ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश को मानकीकृत वस्तुनिष्ठ परीक्षण तक सीमित कर दिया गया है। इससे मुझे फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ में की गई उस चर्चा की याद दिलाती है जो प्रशिक्षित और शिक्षित होने के अंतर पर बात करती है। ऐसा लगता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली गंभीरता से सोचने वाले मनुष्यों के बजाय अच्छी तरह से ‘प्रशिक्षित बंदरों’ का उत्पादन करने को प्राथमिकता देती है। इसके अलावा केंद्रीकरण की नीति के चलते ऐसे मामले और भी जटिल हो जाते हैं।

द. दौड़ में पीछे छूटे मूल्य और नैतिकता

शिक्षा के उपयोगितावादी मॉडल का एक मार्मिक परिणाम मूल्यों और नैतिकता को कहीं पीछे छोड़ देना है। अंक और डिग्रियां इस मॉडल का एकमात्र केंद्र बन गए हैं। हाल की महामारी ने उजागर किया कि सहानुभूति, देखभाल, एकजुटता, और सामुदायिकता मानवता के ख़ज़ाने हैं, फिर भी हम इस अंधी दौड़ में उलझे रहते हैं। ध्रुवीकरण, नफ़रत, अश्लीलता, और अशोभनता ऐसी शिक्षा के परिणाम हैं जिनमें मूल्यों, संवेदनशीलता और जवाबदेही का अभाव है। यह सही समय है, जैसा कि भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद ने कहा था, कि दिल से दी गई शिक्षा समाज में क्रांति ला सकती है।

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के दौर में, रट्टा केंद्रित शिक्षा और केवल अच्छी तरह से प्रशिक्षित, आज्ञाकारी व्यक्ति वर्तमान युग की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम नहीं होंगे। हमें ऐसी शिक्षा की ज़रूरत है जो सहानुभूति, विनम्रता, जुनून, और जिज्ञासा के इर्द-गिर्द हो ताकि शांति और समृद्धि के एक नए युग की शुरुआत हो सके। अरुंधति रॉय ने लिखा है कि महामारी भी नए और पुराने के बीच एक दरवाज़ा है, एक पोर्टल है, और अगर हम एक बेहतर भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, तो हम ख़ुद को वहां पहुंचा सकते हैं। चुनौती हमारे सामने है; आइए हम इसमें शामिल हों!

हिंदी अनुवाद: तल्हा मन्नान

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