फ़िलिस्तीन एक राष्ट्र के रूप में कैसे वजूद में आया?

फ़िलिस्तीन कोई ख़ाली पड़ी ज़मीन नहीं थी। यह एक समृद्ध और उपजाऊ पूर्वी भूमध्य सागरीय दुनिया का हिस्सा था जो उन्नीसवीं सदी में आधुनिकीकरण और राष्ट्रीयकरण की प्रक्रियाओं से गुज़र रहा था, जो एक आधुनिक समाज के रूप में बीसवीं सदी में प्रवेश करने की कगार पर था। ज़ायोनी आंदोलन द्वारा इसके उपनिवेशीकरण ने इस प्रक्रिया को वहां रहने वाले अधिकांश मूल लोगों के लिए एक आपदा में बदलकर रख दिया।

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इज़राइल के दस झूठ – भाग 2

इलान पापे

(छात्र विमर्श अपने पाठकों के लिए प्रसिद्ध इतिहासकार Ilan Pappé की किताब Ten Myths About Israel का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा है। पढ़िए इस किताब के पहले अध्याय ‘फ़िलिस्तीन एक ख़ाली ज़मीन थी’ का अनुवाद।)

फ़िलिस्तीन एक राष्ट्र के रूप में कैसे वजूद में आया?

… दूसरा ऐतिहासिक कथानक एक अलग कहानी का ख़ुलासा करता है जिसमें ओटोमन काल के दौरान फ़िलिस्तीन अपने आस-पास के अन्य सभी अरब समाजों की तरह ही एक समाज था। यह अपनी समग्रता में पूर्वी भूमध्य सागरीय देशों से अलग नहीं था। घिरे हुए और अलग-थलग पड़े होने के बजाय, व्यापक ओटोमन साम्राज्य के हिस्से के रूप में, फ़िलिस्तीनी लोगों का आस-पास की अन्य संस्कृतियों के साथ आसान व व्यापक संपर्क था। दूसरे, परिवर्तन और आधुनिकीकरण के लिए खुला होने के कारण, फ़िलिस्तीन ज़ायोनी आंदोलन के आगमन से बहुत पहले ही एक राष्ट्र के रूप में विकसित होना शुरू हो चुका था। दहेर अल-उमर (1690-1775) जैसे ऊर्जावान स्थानीय शासकों के हाथों, हाइफ़ा, शेफ़ा-अम्र, तिबरियास और एकर शहरों का नवीनीकरण और पुन: ऊर्जाकरण किया गया था। बंदरगाहों और क़स्बों का तटीय नेटवर्क यूरोप के साथ व्यापार संबंधों के माध्यम से फल-फूल रहा था, जबकि आंतरिक मैदानी इलाक़े आस-पास के क्षेत्रों के साथ अंतर्देशीय व्यापार करते थे। रेगिस्तान होने के बिल्कुल विपरीत, फ़िलिस्तीन बिलाद अल-शाम (उत्तर की भूमि), या अपने समय के लेवांत का एक समृद्ध हिस्सा था। बल्कि ठीक ज़ायोनी आगमन के समय, यह एक समृद्ध कृषि उद्योग क्षेत्र, छोटे-छोटे क़स्बों और ऐतिहासिक शहरों वाला देश पांच लाख आबादी का घर था।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक यह एक बड़ी आबादी बन चुकी थी, जिसका, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, केवल एक छोटा-सा प्रतिशत यहूदी था। यह उल्लेखनीय है कि यह समूह उस समय ज़ायोनी आंदोलन द्वारा प्रचारित विचारों का विरोधी था। अधिकांश फ़िलिस्तीनी गांवों में रहते थे, जिनकी संख्या लगभग 1,000 थी। इस बीच, संपन्न शहरी संभ्रांत वर्ग ने तट के किनारे, आंतरिक मैदानों और पहाड़ों में अपना घर बनाया हुआ था।

अब हमें इस बात की बेहतर समझ हो चुकी है कि देश के ज़ायोनी उपनिवेशीकरण के पूर्व वहां रहने वाले लोग ख़ुद को कैसे परिभाषित करते थे। इसी समय मध्य पूर्व और इसके अलावा अन्य स्थानों की तरह, फ़िलिस्तीनी समाज का उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी की सबसे शक्तिशाली परिभाषित अवधारणा ‘राष्ट्र’ से परिचय हुआ। दुनिया के अन्य किसी भी देश की तरह यहां भी कुछ स्थानीय और बाहरी गतिशीलताएं थीं जिन्होंने आत्म-संदर्भ के इस नए तरीक़े को प्रेरित किया। राष्ट्रवादी विचारों को आंशिक रूप से अमेरिकी मिशनरियों द्वारा मध्य पूर्व में आयात किया गया था, जो उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में धर्मांतरण की इच्छा के साथ-साथ आत्मनिर्णय की नवीन धारणाओं को फैलाने की इच्छा के साथ आई थीं। अमेरिकियों के रूप में उन्हें लगा कि वे न केवल ईसाई धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि वैश्विक मानचित्र पर नवीनतम स्वतंत्र राज्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। फ़िलिस्तीन का शिक्षित संभ्रांत वर्ग भी इन विचारों को पचाने और एक प्रामाणिक राष्ट्रीय सिद्धांत तैयार करने में अरब दुनिया के अन्य लोगों के साथ शामिल हो गया, जिसके साथ ही उन्होंने ओटोमन साम्राज्य के भीतर अधिक स्वायत्तता और अंततः स्वतंत्रता की मांग करनी शुरू कर दी।

उन्नीसवीं सदी के मध्य से अंत तक ओटोमन बौद्धिक और राजनीतिक संभ्रांत वर्ग ने रोमांटिक राष्ट्रवादी विचारों, जो ओटोमनवाद को तुर्कीवाद के समान मानता था, को अपना लिया। इस प्रवृत्ति ने इस्तांबुल की ग़ैर-तुर्की प्रजा, जिनमें से अधिकांश अरब थे, को ओटोमन साम्राज्य से अलग करने में योगदान दिया। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तुर्की में राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ सेक्युलरिज़म की प्रवृत्ति भी शुरू हो गई, जिससे एक धार्मिक सत्ता और केंद्र के रूप में इस्तांबुल का महत्व कम हो गया।

अरब जगत में धर्मनिरपेक्षीकरण भी राष्ट्रवाद की प्रक्रिया का हिस्सा था। आश्चर्य की बात नहीं कि यह मुख्य रूप से ईसाई जैसे अल्पसंख्यक थे, जिन्होंने साझा क्षेत्र, भाषा, इतिहास और संस्कृति के आधार पर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय पहचान के विचार को गर्मजोशी से अपनाया। फ़िलिस्तीन में, राष्ट्रवाद से जुड़े ईसाइयों को मुस्लिम संभ्रांत वर्ग के बीच उत्सुक सहयोगी मिले, जिससे प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक पूरे फ़िलिस्तीन में मुस्लिम-ईसाई समाजों का विकास हुआ। अरब दुनिया में यहूदी भी विभिन्न धर्मों के इस तरह के गठबंधन में कार्यकर्ताओं के बीच शामिल हो गए। फ़िलिस्तीन में भी ऐसा ही हुआ होता अगर ज़ायोनवाद ने वहां के अनुभवी यहूदी समुदाय से पूर्ण वफ़ादारी की मांग न की होती।

ज़ायोनवाद के आगमन से पहले फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवाद कैसे उत्पन्न हुआ, इसका गहन और व्यापक अध्ययन मुहम्मद मुस्लीह और राशिद ख़ालिदी जैसे फ़िलिस्तीनी इतिहासकारों के कामों में पाया जा सकता है। वे स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि 1882 से पहले एक राष्ट्रीय आंदोलन और भावना विकसित करन में फ़िलिस्तीनी समाज के कुलीन और ग़ैर-संभ्रांत वर्ग दोनों शामिल थे। ख़ालिदी विशेष रूप से बताते हैं कि कैसे देशभक्ति की भावनाएं, स्थानीय वफ़ादारी, अरबवाद, धार्मिक भावनाएं और उच्च स्तरीय शिक्षा एवं साक्षरता नए राष्ट्रवाद के मुख्य घटक थे, और कैसे यह बाद में चलकर ही हुआ कि ज़ायोनवाद के प्रतिरोध ने फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवाद को परिभाषित करने में एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ख़ालिदी, एवं अन्य, दर्शाते हैं कि इससे पहले कि ज़ायोनवाद यहूदी मातृभूमि के ब्रिटिश वादे (1917) के साथ फ़िलिस्तीन में अपना असर दिखा सके – आधुनिकीकरण, ओटोमन साम्राज्य का पतन और मध्य पूर्वी क्षेत्रों के प्रति यूरोपीय लालच ने किस प्रकार फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवाद को मज़बूत करने में योगदान दिया।  इस नई आत्म-परिभाषा की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्तियों में से एक फ़िलिस्तीन को भौगोलिक और सांस्कृतिक इकाई और बाद में एक राजनीतिक इकाई के रूप में संदर्भित करना था। फ़िलिस्तीनी राज्य का अस्तित्व न होने के बावजूद फ़िलिस्तीन की सांस्कृतिक स्थिति बहुत स्पष्ट थी। अपनेपन की एक एकीकृत भावना मौजूद थी। बीसवीं सदी की शुरुआत का अख़बार ‘फ़िलस्तीन’ अवाम द्वारा अपने देश का नाम रखने के तरीक़े को प्रतिबिंबित करता है। फ़िलिस्तीनी अपनी बोली बोलते थे, उनके अपने रीति-रिवाज और रस्में थी, और वे दुनिया के मानचित्रों पर फ़िलिस्तीन नामक देश में रहते हुए दिखाई देते थे।

उन्नीसवीं सदी में, ओटोमन साम्राज्य की राजधानी इस्तांबुल से शुरू किए गए प्रशासनिक सुधारों के मद्देनज़र, फ़िलिस्तीन, अन्य पड़ोसी क्षेत्रों की तरह, एक भू-राजनीतिक इकाई के रूप में अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित होता गया। परिणामस्वरूप, स्थानीय फ़िलिस्तीनी संभ्रांत वर्ग ने एकजुट सीरिया, या एकजुट अरब राज्य (कुछ हद तक संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह) के भीतर स्वतंत्रता की मांग करना शुरू कर दिया। इस अखिल अरबवादी राष्ट्रीय अभियान को अरबी में ‘क़ौमिया’ कहा जाता था, और यह फ़िलिस्तीन और बाक़ी अरब दुनिया में लोकप्रिय रहा।

1916 में ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच हुए प्रसिद्ध, बल्कि कुख्यात, साइक्स-पिकोट समझौते के बाद, इन दो औपनिवेशिक शक्तियों ने इस क्षेत्र को नए राष्ट्र राज्यों में विभाजित कर दिया। जैसे-जैसे क्षेत्र विभाजित हुआ, एक नई भावना विकसित हुई: राष्ट्रवाद का एक अधिक स्थानीय स्वरूप, जिसे अरबी में ‘वतनिया’ नाम दिया गया। परिणामस्वरूप, फ़िलिस्तीन स्वयं को एक स्वतंत्र अरब राज्य के रूप में देखने लगा। अगर ज़ायोनवाद ना आया होता तो मुमकिन था कि फ़िलिस्तीन भी लेबनान, जॉर्डन, या सीरिया की राह चलकर आधुनिकीकरण और विकास की प्रक्रिया को अपनाता। वास्तव में, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ओटोमन सुधार के परिणामस्वरूप, यह 1916 से पहले ही शुरू भी हो चुका था। 1872 में, जब इस्तांबुल सरकार ने यरूशलेम के संजाक (प्रशासनिक प्रांत) की स्थापना की, तो उन्होंने फ़िलिस्तीन में एक एकजुट भू-राजनीतिक स्थान बनाया। एक पल के लिए, इस्तांबुल सरकार ने संजक में वर्तमान फ़िलिस्तीन का अधिकांश भाग शामिल करने की संभावना पर भी विचार किया जिसमें नब्लस और एकरे के उप-प्रांत भी शामिल हैं। यदि उन्होंने ऐसा कर लिया होता, तो ओटोमन शासकों ने एक ऐसी भौगोलिक इकाई बना दी होती जिसमें एक विशेष राष्ट्रवाद पहले भी पैदा हो सकता था, जैसा कि मिस्र में हुआ।

हालांकि, उत्तर (बेरूत द्वारा शासित) और दक्षिण (यरूशलेम द्वारा शासित) में इसके प्रशासनिक विभाजन ने फ़िलिस्तीन को उसकी पिछली हाशिये की स्थिति से ऊपर उठाया, जब इसे छोटे-छोटे क्षेत्रीय उप-प्रांतों में विभाजित किया गया था। 1918 में, ब्रिटिश शासन की शुरुआत के साथ उत्तर और दक्षिण प्रांत एक इकाई बन गए। और इसी तरह, उसी वर्ष, अंग्रेज़ों ने मोसुल, बग़दाद और बसरा के तीन ओटोमन प्रांतों को एक आधुनिक राष्ट्र रूपी राज्य में बदल कर आधुनिक इराक़ की बुनियाद रखी। फ़िलिस्तीन में, इराक़ के विपरीत, पारिवारिक संबंधों और भौगोलिक सीमाओं (उत्तर में लितानी नदी, पूर्व में जॉर्डन नदी, पश्चिम में भूमध्य सागर) ने दक्षिण बेरूत, नब्लुस और यरूशलेम के तीन उप-प्रांतों को एक सामाजिक और सांस्कृतिक इकाई में पिरोने का काम किया। इस भू-राजनीतिक क्षेत्र की अपनी प्रमुख बोली-भाषा, अपने रीति-रिवाज, लोककथाएं और परंपराएं थीं।

इसलिए 1918 तक, फ़िलिस्तीन ओटोमन काल की तुलना में अधिक एकजुट हो चुका था, लेकिन इसमें और बदलाव होने बाक़ी थे। 1923 में फ़िलिस्तीन की स्थिति की अंतिम अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति की प्रतीक्षा करते हुए, ब्रिटिश सरकार ने भूमि की सीमाओं पर फिर से बातचीत शुरू की, जिससे राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए संघर्ष करने के लिए एक बेहतर परिभाषित भौगोलिक स्थान और इसमें रहने वाले लोगों के लिए अपनेपन की अधिक स्पष्ट भावना पैदा हुई। अब यह स्पष्ट था कि फ़िलिस्तीन क्या है; लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि यह किसका है: मूल फ़िलिस्तीनियों का या नए आए यहूदी बाशिंदों का? इस प्रशासनिक शासन की अंतिम विडंबना यह थी कि सीमाओं के पुनर्आकार ने ज़ायोनी आंदोलन को भौगोलिक रूप से “एरेत्ज़ इज़राइल”, यानी इज़राइल भूमि की वह अवधारणा बनाने में मदद की, जहां केवल यहूदियों को भूमि और उसके संसाधनों पर अधिकार होगा।

इस प्रकार हमने देखा कि फ़िलिस्तीन कोई ख़ाली पड़ी ज़मीन नहीं थी। यह एक समृद्ध और उपजाऊ पूर्वी भूमध्य सागरीय दुनिया का हिस्सा था जो उन्नीसवीं सदी में आधुनिकीकरण और राष्ट्रीयकरण की प्रक्रियाओं से गुज़र रहा था। यह कोई रेगिस्तान नहीं था जो हरियाली का इंतज़ार कर रहा था; यह एक ग्रामीण देश था जो इस तरह के परिवर्तन के सभी फ़ायदों और नुक़्सानों के साथ, एक आधुनिक समाज के रूप में बीसवीं सदी में प्रवेश करने की कगार पर था। ज़ायोनी आंदोलन द्वारा इसके उपनिवेशीकरण ने इस प्रक्रिया को वहां रहने वाले अधिकांश मूल लोगों के लिए एक आपदा में बदलकर रख दिया।

हिन्दी अनुवाद: उसामा हमीद

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