पुरुषवादी समाज में औरत की तलाश करती है ‘लापता लेडीज़’

सहीफ़ा ख़ान, अबु शहमा फैज़

फ़िल्मों के किरदार और उनके बीच लिखी गई पटकथा व संवाद द्वारा एक बेहतर और ख़ूबसूरत निष्कर्ष तक पहुंचने की संकल्पना ही किसी भी फ़िल्म की समीक्षा और मूल्यांकन का सटीक पैमाना है। समाजिक सरोकार की फ़िल्में अपने समकालीन मुद्दों और पारिस्थितिकी क़वायद के अंतर्संबंध को उजागर करती हैं। हालिया दिनों में किरण राव की चर्चित फ़िल्म ‘लापता लेडीज़’ इसी संदर्भ का चरित्रार्थ है।

एक ऐसे दौर में जब सिनेमा के माध्यम से किसी वर्ग विशेष के ख़िलाफ़ समाज में नफ़रत का ज़हर घोलने का प्रयास किया जा रहा हो, रचनात्मकता और मनोरंजन जैसे तत्वों से भारतीय सिनेमा का नाता टूट रहा हो और मनोरंजन के नाम पर केवल अश्लीलता परोसी जा रही हो, तब लापता लेडीज़ जैसी फ़िल्में भारतीय सिनेमा में बची हुई संवेदनशीलता और उसके आशामय भविष्य का एहसास कराती हैं। धोबीघाट जैसी शानदार फ़िल्म डायरेक्ट कर चुकीं किरण राव इस बार ‘लापता लेडीज़’ लेकर आयीं तो लोगों को इस फ़िल्म से वैसी ही उम्मीदें थीं और अपने सधे डायरेक्शन के दम पर किरण राव और आमिर ख़ान प्रोडक्शन ने लोगों की उम्मीदों पर पानी नहीं फिरने दिया।

ये फ़िल्म दुनिया भर में सदियों से चली आ रही स्त्री विमर्श और उनकी द्वंदात्मक समस्याओं को रेखांकित करने वाली पुनरावृत्ति है। फ़िल्म में मौजूदा दौर की आधुनिक स्त्री और उसके पंख फैलाते सपनों के बीच समाज की डिकंडीशनिंग और रूढ़िवादिता से मर्माहत उनकी वेदनाओं का गहरा अंतर-संघर्ष देखने को मिलता है। किरण राव ने स्त्री प्रसंग में समाज की वस्तुनिष्ठ परिस्तिथियों और उनके सभी किरदारों को साहित्यिक और कलात्मक शैली के रूप में प्रतिबिंबित किया है।

फ़िल्म की कहानी ग्रामीण भारत की महिलाओं के दमदार किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है और समाज की पितृसत्तात्मक सोच पर बहुत ही सधे हुए अंदाज़ में कटाक्ष करते हुए दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है। कहानी की शुरुआत होती है दो दुल्हनों के बदल जाने से। दीपक शादी करके अपनी नई नवेली दुल्हन फूल को अपने घर ले आता है लेकिन जब ससुराल पहुंच कर दुल्हन का घूंघट हटाया जाता है तो पता चलता है कि ट्रेन में दुल्हन बदल गई। वजह है वह घूंघट जो ग्रामीण परंपरा का एक ज़रुरी हिस्सा है कि दुल्हन बिना लंबे घूंघट के विदा नहीं हो सकती। इस लंबे घूंघट की वजह से ट्रेन में दीपक अपनी दुल्हन को पहचान नहीं पाता और किसी और की दुल्हन को अपने साथ घर ले आता है। वहीं दीपक की दुल्हन ‘फूल’ स्टेशन पर उतर कर एकदम अकेले पड़ जाती है। ना उसके पास फ़ोन होता है और ना ही उसे अपने ससुराली गांव का नाम याद होता है। ऐसे में उसकी मदद के लिए आगे आती है एक महिला जो स्टेशन पर ही अपनी टपरी चलाती है। धीरे-धीरे किरदारों के चेहरों से परतें उठती हैं और महिलाओं को उनके अधिकार के लिए सतर्क और सशक्त होते हुए बड़े ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में दिखाया गया है। बीच-बीच में कॉमेडी और सस्पेंस का मिला जुला डोज़ भी दर्शकों को मिलता रहता है और कई ऐसे दृश्य भी सामने आते हैं जिनमें आप अपने आंसू आंखों से निकलने से रोक नहीं पाएंगे।

दीपक के रुप में स्पर्श श्रीवास्तव की एक्टिंग काफ़ी दमदार है। उन्होंने अपने किरदार को बेहद अच्छे अंदाज़ में निभाया है और अपनी एक्टिंग की अलग ही छाप छोड़ी है। इसके अलावा रवि किशन की भी एक्टिंग काफ़ी ज़बरदस्त है जिसके दम पर फ़िल्म में एक अलग ही जान पड़ती हुई दिखाई देती है। फ़िल्म के डॉयलाग भी दिल को छू जाने वाले हैं। ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फ़िल्म दर्शकों को एक रोमांचक दुनिया की सैर कराती है जहां ख़ुशी भी है, ग़म भी है, असहाय महिलाएं भी हैं और उनको सशक्त बनाने वाली आदर्श महिलाएं भी मौजूद हैं। दो दुल्हनों के किरदार के ज़रिए इस फ़िल्म में भारतीय रुढ़िवादी परंपराओं ख़ासकर पितृसत्तात्मक सोच और उससे पनपी सामाजिक जटिलताओं को बेहद ख़ूबसूरत अंदाज़ में सामने लाया गया है और ना केवल उन्हें सामने लाकर असहाय छोड़ दिया गया है बल्कि फूल और जया के किरदार के ज़रिए सामाजिक कुरीतियों को कड़ी चुनौती देते हुए अंत में एक आदर्श संदेश भी दिया गया है।

आम तौर पर समाज के गढ़े गए सांचे में एक औरत की अभिव्यक्ति, जिज्ञासा, वेदना और व्यथा उसके आंचल और घूंघट से लिपट कर रह जाती है। इसके बावजूद भी औरत कभी समाजिक रीति-रिवाजों के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाने की कल्पना नहीं कर पाई। उसने तो सिर्फ़ इन बंधनों से सामंजस्य साधते हुए ख़ुद को गंवा दिया। जब किसी औरत ने अपने सपनों के साथ अपनी पहचान को आगे बढ़ाया, जब उसने अपनी आकांक्षाओं के स्वर को ऊंचा किया तो उसे स्वार्थी कहा गया। वो समाज में अपने स्वार्थी होने का आरोप भी बहुत पहले से सुनती आई है, वो अपने घर की दहलीज़ को लांघते ही अपनी ज़ात के लांछन का शिकार हो गई, लेकिन जब कभी समाज के इस कालचक्र ने उसे कोई मौक़ा दिया तो उस औरत ने आगे बढ़कर ख़ुद को साबित भी किया।

मगर सार्वजनिक जगहों पर उसे ख़ुद को स्थापित करने से पहले अपनी ज़ात के पूर्वाग्रह को तोड़ना भी उसके लिए एक जटिल चुनौती रही है। समाज में मर्दों के बीच अपने लिंगभेद के प्रतिकर्षण और समाज की मिसॉजिनी उसे हाशिए पर रहने के लिए मजबूर करती है। इन सब विसंगतियों के बावजूद भी औरत ने अपने साहस और आत्मबल से इस समाज में पहले भी अपने अभूतपूर्व उदारण दिए हैं और अब भी अपनी मिसालें पेश कर रही हैं। ‘लापता लेडीज़’ दक़ियानूसी पुरुषवादी समाज के अंदर औरत ज़ात के अलग-अलग किरदारों के पर्दे में उस औरत की तलाश है जो हमारी सभ्यता का अनिवार्य नियम है। फ़िल्म अपनी बेहतरीन कास्टिंग के ज़रिए औरतों की आंखों में अधजले सपनों की राख को उकेरते हुए उसके ज़हन में एक रोशन ख़याल दुनिया का नक्शा खींचती है जहां पर उसकी उमंगों और ख़्वाबों का खुला आसमान भी है।

फ़िल्म अपने क्लाइमेक्स में बताती है कि एक ऐसे परिवार और समाज का समागम हो जहां औरत की इंडिविजुअलिटी और उसकी पहचान को बराबर का मान एवं अवसर मिलता रहे। शुरु से अंत तक फ़िल्म अपने डायरेक्शन, एक्टिंग और डॉयलाग के दम पर बांधे रखती है लेकिन कहीं-कहीं स्क्रीनप्ले कमज़ोर दिखाई पड़ता है और फ़िल्म की स्पीड स्लो महसूस होती है। इस तरह के कुछ तकनीकी अपवाद फ़िल्म में देखने को मिल सकते हैं, लेकिन कहानी, शीर्षक और उद्देश्य के लिहाज़ से पूरी तरह सफल है। बेहतरीन डायलॉग्स और फ़िल्म की लोकेशन इस तरह की कमियों को पूरी तरह छिपा ले जाने में समर्थ साबित होते हैं। अगर आप अपने व्यस्त लाइफ़-स्टाइल से स्ट्रेस में आ चुके हैं और हल्के-फुल्के मनोरजंन के साथ एक अहम सामाजिक समस्या पर आधारित फ़िल्म देखना चाहते हैं तो ‘लापता लेडीज़’ आपके लिए एक बेहतरीन विकल्प है।

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