एएमयू और जामिया, बीएचयू के समान आरक्षण मानदंडों का पालन क्यों नहीं कर सकते?

भाजपा, आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों द्वारा समय-समय पर इस तरह के सवाल उठाए जाते रहे हैं कि इन दोनों विश्वविद्यालयों में अन्य शैक्षिक संस्थानों के समान आरक्षण नीति क्यों लागू नहीं होती? हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी जनसभा में यह मुद्दा छेड़ा है। चुनाव के दौरान इस तरह की टिप्पणियां भाजपा द्वारा उसके विरोधी अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के वोटों के विलय को रोकने के लिए एक हताश प्रयास प्रतीत होता है।

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एएमयू और जामिया, बीएचयू के समान आरक्षण मानदंडों का पालन क्यों नहीं कर सकते?

वजाहत जीलानी

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में आरक्षण नीति का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों द्वारा समय-समय पर इस तरह के सवाल उठाए जाते रहे हैं कि इन दोनों विश्वविद्यालयों में अन्य शैक्षिक संस्थानों के समान आरक्षण नीति क्यों लागू नहीं होती? हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी जनसभा में यह मुद्दा छेड़ा है। चुनाव के दौरान इस तरह की टिप्पणियां भाजपा द्वारा उसके विरोधी अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के वोटों के विलय को रोकने के लिए एक हताश प्रयास प्रतीत होता है। हालांकि, प्रधानमंत्री के बयान का समय और प्रकृति अच्छी तरह से सोची-समझी मालूम होती है, फिर भी हम उनके इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करते हैं।

बी.एच.यू. में आरक्षण लेकिन अन्य विश्वविद्यालयों में नहीं?

केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 सीटों के आरक्षण के लिए क़ानूनी फ़्रेमवर्क प्रस्तुत करता है। इसकी प्रस्तावना में यह कहा गया है कि यह अधिनियम “अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और नागरिकों के अन्य पिछड़े वर्गों के छात्रों के प्रवेश में उन चुनिंदा केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण सुनिश्चित करेगा जो केंद्र सरकार द्वारा स्थापित किए गए हैं अथवा जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा रख-रखाव हेतु सहायता दी जाती है।“

इससे दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, कि यह क़ानून केंद्र सरकार द्वारा धारा 2 (डी) के तहत परिभाषित केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण की व्यवस्था करता है, जिनकी स्थापना केंद्र सरकार द्वारा की गई हो या जिनके रख-रखाव हेतु केंद्र सरकार सहायता करती हो। इसीलिए, डी.यू., बी.एच.यू. के साथ-साथ ए.एम.यू., जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अन्य डीम्ड विश्वविद्यालय इसके दायरे में आते हैं।

दूसरा निष्कर्ष महत्वपूर्ण है। प्रस्तावना में केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों को परिभाषित करते हुए ‘चुनिंदा’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जो कि अनिवार्य रूप से यह इंगित करता है कि कहीं-न-कहीं छूट मौजूद है।

इस अधिनियम की धारा 2 (डी) ‘केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों’ को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित करती है:

  • किसी केंद्रीय अधिनियम द्वारा या उसके अंतर्गत स्थापित या निगमित विश्वविद्यालय;
  • संसद के एक अधिनियम द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महत्व की संस्था;
  • एक संस्थान, जिसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 (1956 का 3) की धारा 3 के तहत एक डीम्ड विश्वविद्यालय के रूप में घोषित किया गया है, और केंद्र सरकार द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त कर रहा है;
  • केंद्र सरकार द्वारा संचालित या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्राप्त करने वाली संस्था, और खंड (i) या खंड (ii) में निर्दिष्ट किसी संस्था से संबद्ध, या खंड (iii) में निर्दिष्ट संस्था की एक घटक इकाई;
  • सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 (1860 का 21) के तहत केंद्र सरकार द्वारा स्थापित एक शैक्षिक संस्थान।

धारा 3 विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की रूपरेखा और प्रतिशत विवरण प्रदान करती है, जबकि धारा 4 में इसके अपवाद शामिल हैं। यह नियम बताता है कि अध्ययन या संकाय की प्रत्येक शाखा में कुल संख्या में से एससी के लिए 15%, एसटी के लिए 7.5% और ओबीसी के लिए 27% आरक्षण होगा।

Screenshot of Section 3

अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों के पक्ष में अपवाद

धारा 4 उन मामलों के लिए है जिन पर यह अधिनियम लागू नहीं होता है, जैसे कि कुछ रिसर्च इंस्टीट्यूट आदि। धारा 4 में विशेष रूप से अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को अधिनियम और कुछ विशेष पाठ्यक्रमों के तहत परिभाषित किया गया है जो केंद्र सरकार निर्दिष्ट करती है। इसमें कहा गया है:

Screenshot of Section 4

इस अधिनियम की धारा 3 के प्रावधान निम्नलिखित पर लागू नहीं होंगे:

इस अधिनियम में परिभाषित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान;

इसके अलावा, भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(5) ‘अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों’ को नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों या एससी या एसटी के लिए राज्य द्वारा बनाए गए शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश से संबंधित किसी भी विशेष क़ानून के दायरे से छूट देता है।

उपरोक्त चर्चा से, जो केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण पर देश के क़ानून का सार है, यह स्पष्ट है कि:

  • क़ानून के अंतर्गत आने वाले सभी शैक्षिक संस्थानों के लिए प्रवेश में आरक्षण एक अनिवार्य प्रावधान है। इसलिए, यह सुझाव कि ए.एम.यू. को ऐसे आरक्षण प्रदान करना चाहिए जैसे कि बी.एच.यू. करता है, भ्रामक है। हालांकि, बी.एच.यू. की नीति का पालन प्रशंसनीय है, और एक प्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालय से यही उम्मीद भी की जानी चाहिए।
  • कुछ शैक्षिक संस्थानों को छूट दी गई है। इनमें अल्पसंख्यक संस्थान भी शामिल हैं। इस प्रकार, टी.वी. और सोशल मीडिया पर चल रही यह बहस कि ‘एक संस्था नियमों का पालन क्यों कर रही है और दूसरी क्यों नहीं’, सही नहीं है। क़ानून, अपनी स्थिति के अनुसार, बी.एच.यू. और ए.एम.यू. दोनों की वर्तमान प्रवेश नीति की अनुमति देता है।

ए.एम.यू. का अल्पसंख्यक चरित्र

बेशक, पूरी बहस इस बात पर निर्भर है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान हैं या नहीं? यदि वे नहीं हैं, तो वे किसी अन्य छूट के तहत नहीं आएंगे। वे उसी क़ानून के अधीन होंगे जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की एक अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में स्थिति विवादास्पद रही है। 1967 से, यह मामला अदालतों में रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील में, 25 मई 2006 को दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा जारी एक आदेश ने उल्लेख किया कि “अपीलकर्ता संस्थानों के अन्य सभी मामलों के संबंध में स्थिति, उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने की तिथि से यथावत बनी रहेगी।” परिणामस्वरूप, ए.एम.यू. एक अल्पसंख्यक संस्थान बना हुआ है।

यह छूट क्यों? संविधान किस तरह की समानता की परिकल्पना करता है?

हां, क़ानून छूट देता है, लेकिन क्या यह समानता के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ नहीं है? भारत के संविधान का अनुच्छेद 14-18 समानता के अधिकार की बात करता है। विशेष रूप से, अनुच्छेद 14 कहता है कि “राज्य भारत के क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को क़ानून के समक्ष समानता या क़ानूनों के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा।”

हालांकि, संविधान निर्माताओं ने सिर्फ़ औपचारिक समानता पर विचार नहीं किया था यानी कि किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए – बल्कि, नियम यह है कि ‘समान के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए न कि विपरीत के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए’, जिसे ‘वास्तविक समानता’ के रूप में भी जाना जाता है। इसके पीछे का तर्क टी.एम.ए. पाई फ़ाउंडेशन और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट की 11 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा एक परिवार के उदाहरण के माध्यम से समझाया है कि “सभी सदस्यों का गठन एक जैसा नहीं होता, चाहे शारीरिक और/या मानसिक। सामंजस्यपूर्ण और स्वस्थ विकास के लिए, माता-पिता और विशेष रूप से मां के लिए यह स्वाभाविक है कि वे कमज़ोर बच्चे पर अधिक ध्यान और भोजन दें ताकि उसे मज़बूत बनने में मदद मिल सके। …किसी विशेष वर्ग को अच्छे कारणों से कुछ अधिकार प्रदान करना, असमान नहीं माना जा सकता। भारत के सभी लोग एक जैसे नहीं हैं, और यही कारण है कि समाज के एक विशेष वर्ग के साथ तरजीही व्यवहार को नापसंद नहीं किया जाता है।”

क्या किसी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा ख़त्म किया जा सकता है?

संविधान में अनुच्छेद 29(2) के अनुसार जहां कोई शैक्षिक संस्थान राज्य से धन प्राप्त कर रहा है, वहां किसी भी नागरिक को धर्म, नस्ल, जाति या भाषा के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा। टी.एम.ए. पाई फ़ाउंडेशन मामले में, अदालत ने विचार किया कि यदि किसी अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान को अनुदान मिलता है, तो अनुच्छेद 30(1) के तहत अपनी पसंद के छात्रों को प्रवेश देने का उसका अधिकार सीमित हो सकता है और वास्तव में अल्पसंख्यक चरित्र नष्ट हो सकता है। इस पर निर्णय लेते समय, न्यायालय ने सबसे पहले सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय मामले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि “यह तथ्य कि अनुच्छेद 29(2) अल्पसंख्यकों के साथ-साथ ग़ैर-अल्पसंख्यकों पर भी लागू होता है, इसका मतलब यह नहीं है कि इसका उद्देश्य अनुच्छेद 30(1) में अल्पसंख्यकों को दिए गए विशेष अधिकार को रद्द करना था।”

न्यायालय ने टी.एम.ए. पाई फ़ाउंडेशन मामले में आगे कहा कि “अनुच्छेद 29 (2) में प्रयुक्त शब्द ‘केवल’ का काफ़ी महत्व है और इसका इस्तेमाल किसी उद्देश्य के लिए किया गया है। अल्पसंख्यक छात्रों को उचित सीमा तक समायोजित करने के उद्देश्य से ग़ैर-अल्पसंख्यकों को प्रवेश से वंचित करना केवल धर्म आदि के आधार पर नहीं होगा, बल्कि मुख्य रूप से संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को संरक्षित करने और अनुच्छेद 30(1) के तहत गारंटी को प्रभावी करने के लिए है…। ”

इस प्रकार स्थिति स्पष्ट है। अनुच्छेद 29(2) के दायरे में आने के बावजूद किसी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान को सिर्फ़ नाम के लिए ही ‘अल्पसंख्यक’ नहीं रखा जा सकता।

अनुच्छेद 15 (5) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों का बहिष्कार

चलिए मान लेते हैं कि अनुच्छेद 15(5) अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छूट नहीं देता यानि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों, एससी, एसटी को प्रवेश में आरक्षण देने के लिए राज्य द्वारा बनाया गया क़ानून अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी लागू होता है – परिणाम क्या होगा? इससे अनुच्छेद 30(1) के तहत संरक्षित संस्थानों का अल्पसंख्यक चरित्र प्रभावित हो सकता है।

यह बात प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, (2014) 8 एससीसी 1 में निम्नलिखित शब्दों में कही गई है:

“दूसरे शब्दों में, संविधान के अनुच्छेद 30 के खंड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों (चाहे सहायता प्राप्त हों या ग़ैर सहायता प्राप्त) का अल्पसंख्यक चरित्र नागरिकों के सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रवेश से प्रभावित हो सकता है। यही कारण है कि अल्पसंख्यक संस्थानों (चाहे सहायता प्राप्त हों या ग़ैर सहायता प्राप्त) को बहुमत द्वारा बनाए गए क़ानून से बचाने की दृष्टि से अनुच्छेद 15 के खंड (5) के तहत राज्य की सक्षम शक्ति से बाहर रखा गया है।”

अशोक कुमार ठाकुर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2008) 6 एससीसी 1 में कहा गया है कि, “अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान, अपने आप में, एक अलग वर्ग हैं और उनके अधिकार संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षित हैं, और इसलिए, अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को अनुच्छेद 15(5) से बाहर रखना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है।”

एससी/एसटी विद्यार्थियों की ए.एम.यू. में शिक्षा

2016-17 में नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ़्रेमवर्क (एनआईआरएफ़) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, ए.एम.यू. में विभिन्न स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में पढ़ने वाले छात्रों की कुल संख्या 17,259 थी। इनमें से 3,180 छात्र सामाजिक रूप से पिछड़ी श्रेणियों (एससी, एसटी और ओबीसी) से हैं, जबकि 14,011 छात्र आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों से हैं। इसलिए, ए.एम.यू. में सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के साथ-साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों से आने वाले कई विद्यार्थी पढ़ रहे हैं, यद्यपि संख्या में कम हैं, लेकिन एक अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में विश्वविद्यालय, पिछड़े वर्गों से आने वाले युवाओं को शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

आरक्षण नीति, क़ानून और अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छूट के पीछे का तर्क सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा उतरा है। एक समाज के रूप में, विशेषकर संवैधानिक पदों पर बैठकर, हमें उन कारणों को पहचानना चाहिए।

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से बी.ए. एल.एल.बी. और किंग्स कॉलेज लंदन से एल.एल.एम. हैं।)

हिंदी अनुवाद: तल्हा मन्नान

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