शाहीन बाग के आंदोलन के दौरान तीन दादियों की चर्चा ज़ोरों पर थी जिन्होंने ठंड में भी प्रतिरोध की ध्वनि को मंद नहीं पड़ने दिया. इन्हीं दादियों में एक हैं बिलकीस जिन्हें टाइम मैगज़ीन द्वारा विश्व के 100 प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया गया है.
CAA विरोधी आन्दोलन के समय इन दादियों ने समय-समय पर अपने बयानों के ज़रिए मीडिया का ध्यान केंद्रित किया था. जनवरी की सर्द रातों में लगातार डट कर नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरुद्ध ऐतिहासिक आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाली इन दादियों में से 82 वर्षीय बिलकिस को टाइम मैगज़ीन में जगह मिलना इस आन्दोलन की स्वीकार्यता को दर्शाता है.
बिलकिस, शाहीन बाग इलाके में रहती हैं और 15 दिसम्बर के बाद शाहीन बाग आंदोलन से जुड़ी थीं. टाइम मैगज़ीन में शाहीन बाग़ की दादी बिलकिस का नाम शामिल किए जाने को लेकर पत्रकार और गुजरात फाइल्स की लेखिका राणा अय्यूब ने टाइम मैगज़ीन में लिखा अपना लेख साझा किया है.
उन्होंने लिखा, “जब मैं पहली बार बिलकिस से मिली, तो वह एक भीड़ के बीच बैठी थीं. वे उन विरोध कर रही महिलाओं से घिरी हुई थीं जिनके हाथ में प्रतिरोध के नारे लिखी हुई तख्तियां थीं. एक 82 वर्षीय बूढ़ी महिला जो एक हाथ में तावीज़ और दूसरे हाथ में देश का झंडा लिए सुबह 8 बजे से देर रात तक धरना स्थल पर बैठा करती थीं, वह 82 वर्ष की महिला बिलकिस भारत में सताए जा रहे लोगों की आवाज़ बन गयीं.”
बिलकिस हजारों महिलाओं के साथ दिल्ली की उस सड़क पर धरने में शामिल हुईं और प्रतिरोध की आवाज़ बन गईं. ऐसे माहौल में जहां मोदी सरकार द्वारा महिलाओं और अल्पसंख्यकों की आवाज़ों को व्यवस्थित रूप से दबाया जा रहा था. शाहीन बाग़ की दादी बिल्किस ने उन कार्यकर्ताओं और छात्र नेताओं को हिम्मत दी जो सत्ता के सताए जाने के खिलाफ खड़े थे और इसी कारण जेलों में डाले जा रहे हैं.
पत्रकार राना अय्यूब ने लिखा है कि उन्होंने मुझसे कहा, “मैं यहां तब तक बैठूंगी जब तक मेरी रगों में खून बहना बंद नहीं हो जाता है, इस देश और दुनिया के बच्चे न्याय और समानता की फिज़ा में सांस ले सकें.”
नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध देशभर में हुए आंदोलन के दौरान महिलाओं की भूमिका पर विशेष चर्चा रही. आंदोलन के दौरान ये बात प्रमुखता से कही जाती रही कि दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों की अगुवाई महिलाएं कर रही हैं.
इस आंदोलन के दौरान जब महिलाओं की भागीदारी को लेकर लिखा गया, बोला गया या विचार-विमर्श हुआ तब एक तस्वीर से इस चर्चा की शुरुआत हुई. ये तस्वीर 15 दिसम्बर को पुलिस की बर्बर कार्यवाही के दौरान जामिया की छात्राओं का वह दृश्य याद दिलाती है जिसमें वे अपने साथी छात्र को पुलिस की मार से बचाने के लिए ढाल बने खड़ी हैं.
दिल्ली समेत देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे शाहीन बाग के आंदोलनों की फेहरिस्त में महिलाएं ही नज़र आती हैं.
शाहीन बाग के आंदोलन में मंच संचालन से लेकर प्रेस कांफ्रेंस और दूसरी व्यवस्थाओं को भी महिलाएं ही सम्भाल रही थीं.
टाइम मैगज़ीन ने शाहीन बाग की दादी बिलकीस को दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों की फेहरिस्त में शामिल किया है जिसे हमें इस नज़रिए से देखना चाहिए कि ये दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर देश के सभी शाहीन बाग की उन महिलाओं की उपलब्धि है जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का डटकर विरोध किया था.
ये लखनऊ के घण्टाघर में चल रहे शाहीन बाग की उस 20 वर्षीय छात्रा तय्यबा की भी उपलब्धि कही जानी चाहिए जिसकी विरोध-स्थल पर बारिश में भीग जाने की वजह से मौत हो गयी थी.
ये उपलब्धि शाहीन बाग आंदोलन में शामिल उस नाज़िया बेगम की भी है जिसके पांच वर्षीय बच्चे की मौत कड़ाके की ठंड में धरने में शामिल होने के कारण हुई थी. बाद में उसी माँ का बयान आया कि वह फिरसे आंदोलन स्थल पर आएगी ताकि दूसरी महिलाओं को हिम्मत मिले और आन्दोलन कमज़ोर न पड़े.
आंदोलन के दौरान कई नारे प्रचलित रहे जिन्हें पोस्टर्स बैनर्स के ज़रिए लगातार प्रदर्शित किया जाता रहा, जहां लिखा होता था:
“जामिया की लड़कियों ने रास्ता दिखाया है, जामिया की लड़कियों को इंकलाब जिंदाबाद”
13 दिसम्बर को जामिया से शुरू हुए आंदोलन की अगुआई छात्राओं द्वारा ही की गई और बाद में बहुत सी लड़कियां, छात्राएं और महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.
टीवी डिबेट्स के दौरान शाहीन बाग की दादियों के बेबाक अंदाज़ को काफी सराहा गया.
इस दौरान इन महिलाओं को लेकर सोशल मीडिया पर पैसा लेकर बैठने जैसी भ्रामक खबरें और भद्दी मानसिकता के साथ टारगेट भी किया गया लेकिन शाहीन बाग की इन महिलाओं ने लगातार संघर्ष जारी रखा.
जामिया की छात्राओं ने आंदोलन के दौरान देशभर के विभिन्न हिस्सों में जाकर सीएए के विरुद्ध लोगों के बीच भाषण दिए और आन्दोलन की अलख जगाई.
समाज में महिलाओं को लेकर सदियों से व्याप्त एक सवाल जिसका जवाब हमेशा अधूरा रहा उसे पाटने का प्रयास इस आंदोलन ने बहुत हद तक किया. कहा जाता था कि महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है, उन्हें बाहर निकलर सवाल करने की आज़ादी नही है और ये समाज सवाल करने के अधिकार पर भेदभाव करता है. लेकिन शाहीन बाग के आंदोलन ने इस सवाल को सिरे से नकारते हुए ये महसूस कराया कि महिलाएं अगुवाई करने और सवाल को मजबूती से उठाने की हिम्मत रखती हैं और उन्होंने ये करके दिखाया है.
एक ऐसा ही सवाल मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के बाद से उठता रहा कि ये सरकार मुस्लिम महिलाओं की हितेषी रही है इसीलिए ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दे पर विशेष ध्यान केंद्रित करते हुए उनकी समस्याओं को कम करना चाहती है.
हालाँकि, जब शाहीन बाग की महिलाओं ने 100 दिन से ज़्यादा सर्दी की गला देने वाली रातों में अपने हक और अधिकार के लिए सड़कों पर संघर्ष किया तो यही सरकार मौन दिखाई दी. इन महिलाओं की अगुवाई में चलने वाला ये आंदोलन सिर्फ इस सरकार के काल्पनिक आरोपों को एक्सपोज़ ही नहीं कर रहा था बल्कि मुस्लिम महिलाओं को घरों से निकलने नहीं दिए जाने के झूठ का भी जवाब दे रहा था.
शाहीनबाग की दादी का प्रभावशाली होना इस देश की समस्त सविंधान प्रेमी सीएए विरोधी महिलाओं के लिए गर्व की बात है.
लेखक : अहमद कासिम