सड़कों पर पैदल चलते, दम तोड़ते मजदूरों के लिये सरकार की संवेदनाएं मर चुकीं हैं ?

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कोरोना के ख़तरे के मद्देनज़र प्रधानमंत्री के साथ बैठक में अधिकतर राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने लॉकडाउन बढ़ाने का समर्थन किया है। इस बैठक में पैदल घरों को लौट रहे मजदूरों के लिये क्या बात हुई है? सड़कों पर पैदल चलते, दम तोड़ते मजदूरों के लिये सरकार की संवेदनाएं मर चुकीं हैं? सड़क पर बच्चा जनती महिला मजदूर के लिये सरकार के पास कोई संवेदना बची भी है या नहीं? उत्तर प्रदेश सरकार ने सड़क पर मरने वाले यूपी के मजदूर के लिये दो लाख रुपये मुआवज़ा देने का ऐलान किया है। क्या अजीब विडंबना है, सरकार से मदद भी तब मिलेगी जब मजदूर मरेगा! यह कैसी असंवेदनशील सरकार है? बीते रोज़ दिल्ली की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई है, जिसमें उजबेकिस्तान से अपने वतन वापस लौटा एक दंपत्ति का कुत्ता भी सकुशल दिल्ली पहुंच गया। लेकिन अफसोस मुंबई, दिल्ली, जैसे महानगरों से मजदूर पैदल ही अपने घरों को लौट रहे हैं। किसी के कांधे पर बच्चा है, किसी के बूढ़े मां बाप, किसी के सर पर गठरी है. क्या इसी गठरी में सरकार की मुर्दा संवेदनाएं हैं, जिसे मजदूर ढ़ो रहा है?

इस देश में कांवड़ियों पर हेलीकॉप्टर से पुष्प वर्षा की गई है. इसी देश में कोरोना वॉरियर्स पर हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा की गई है. लेकिन इस देश के मेहनतकश के लिये सरकार की संवेदनाएं मानो मर ही गईं हैं। आज उत्तर प्रदेश के अमरोहा के एक युवक ने हैदराबाद में आत्महत्या कर ली. आत्महत्या करने वाला शख्स हैदराबाद में रहकर मेहनत मजदूरी करता था, लॉकडाउन की वजह से उसका काम बंद हो गया, वह अपने घर लौटना चाहता था, लेकिन उसे लगातार निराशा ही मिल रही थी. इसी से तंग आकर उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। दो दिन पहले 16 मजदूर ट्रेन से कटकर मर गए, इससे पहले अलग अलग दुर्घटनाओं में पचास के क़रीब लोग दम तोड़ चुके हैं।

सड़कों पर पैदल चलने वालों में बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक शामिल हैं, क्या इनके दर्द की कराहट सरकार के कानों तक नहीं पहुंचती? क्या यह वही सरकार नही है जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश से ‘हिंदुओं’ को लाकर भारत में बसाने के ऐलान कर रही थी? क्या यह वही सरकार नही है जो बहुत बड़ी रक़म खर्च करके एनआरसी कराना चाहती है? पाकिस्तान, बंग्लादेश, अफगानिस्तान में रहने वाले ‘हिंदुओं’ के उप्पीड़न पर उबल पड़ने वाली सरकार अपने देश के नागरिकों के प्रति इतनी असंवेदनशील क्यों बनी बैठी है? इसीलिये कि इनमें से अधिकर मजदूर चुनाव में हिस्सा नहीं लेते? वे चुनाव के वक्त दूर दराज शहरों में होते हैं, वोट नहीं डाल पाते? या फिर इन मजदूरों को बचाने से ध्रुवीकरण नहीं हो पाएगा? चुनावी लाभ भी नहीं मिल पाएगा? यह कैसा लोकतंत्र है? क्या हमारे देश में ऐसा समाज नहीं बचा है जो सरकार पर यह दबाव बना पाए कि कम से कम पैदल चल रहीं गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों, बच्चों या बीमार लोगों को उनके घर पहुंचा दिया जाए। कोरोना से लड़ने के लिये जो हजारों करोड़ रुपया ‘पीएम केयर्स’ में जमा हुआ है अगर वह पैसा देश के नागरिकों के काम नहीं आ सकता तो किसके काम आएगा?

-वसीम अकरम त्यागी

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