(झारखण्ड स्थापना दिवस पर विशेष लेख )
शारिक अंसर, नई दिल्ली
झारखण्ड बने 19 साल हो गए। आज पूरे प्रदेश में धूमधाम से स्थापना दिवस मनाया जा रहा है। बीजेपी यहाँ लगभग 15 साल से अधिक सत्ता में रही लेकिन आज भी यह पिछड़े राज्यों का दंश झेल रहा है। यहाँ के लोग बदहाली और तंगी में जीवन जीने को मज़बूर हैं। लेकिन राजनैतिक फायदे के लिए इसका दोहन अब भी जारी है। झारखण्ड का नाम लेते ही जो चीज़ें सबसे पहलेज़ेहन में आती हैं वो यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता,पेड़, पहाड़ और यहाँ की आदिवासी जनता । जल,जंगल और ज़मीन को लेकर उनकी आस्था और उन्हें बचाने के लिए उनका संघर्ष। जब देश 2 अक्टूबर को महात्मा गाँधी की जयंती में अहिंसा दिवस मना रहा था उसके एक दिन पुर्व संध्या को झारखण्ड में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के द्वारा खून की होलियां खेली जा रही थी।
झारखण्ड के उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल मुख्यालय हज़ारीबाग़ से क़रीब 30 किलोमीटर की दूरी में बड़कागांव प्रखंड के चेपाखुर्द गाँव में पुलिस फायरिंग में चार लोग मारे गए जबकि बड़ी तादाद में लोग ज़ख़्मी हुए। मामला नेशनल थर्मल पावर पावर (एनटीपीसी) के ज़रिये किये गए किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण का था,जो पिछले पंद्रह दिनों से कफ़न सत्याग्रह के तहत मुआवज़ा और ज़मीन की बेदखली पर सरकारी न्याय की मांग कर रहे थे। इस घटना ने राज्य का राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया साथ ही खूनी विकास के इस स्वरुप पर फिर से सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल उठना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि आदिवासी बहुल ये राज्य प्राकृतिक संसाधनों का ज़खीरा अपने पास रखता है।
देश के कुल खनिज संपदा का 40 प्रतिशत से भी अधिक यहाँ पाया जाता है। जिसमे कीमती यूरेनियम, ग्रेफाइट, सोना, ताँबा, बॉक्साइट, अभ्रक, लोहा, कोयला आदि है। इसमें लोहा, ताम्बा, माइका, कैनाइट आदि मेंये देश का सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है। 30 प्रतिशत के क़रीब ये राज्य वनाच्छादित है जिसमे कीमती सागवान, शीशम आदि लकड़ियां पाई जाती है। पथरीली ज़मीन पेड़, पहाड़, जंगल और पानी की प्रचुर मात्रा और सस्ते श्रमिक। किसी भी उद्योग के लिए ये चीज़ें अति महत्वपूर्ण है। पहली निगाह में तो ये बात बहुत खुशनुमा लगती है लेकिन जब हम गहराई से निगाह डालते हैं तो पता चलता है कि यही प्राकृतिक सम्पदा की बहुलता ही झारखण्ड के लिए मुसीबत बन गई है। इस राज्य की अजीब विडम्बना है कि इतने सारे कीमती प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद भी यहाँ के लोग गरीबी में जी रहे हैं, बुनियादी विकास की जगह पिछड़ापन और बेबसी का आलम है, बल्कि यूँ कहा जाए कि इन धातुओं के यहाँ पाए जाने के कारण उनकी जीवन दशा ज़्यादा खराब हुई है। औद्योगीकरण और विकास के इस कॉकटेल में आम जनता,मज़दूर, किसान और गरीबलोग कहाँ हैं ये सवाल हमेशा कचोटता है।
70 साल के लंबे संघर्ष के बाद 15 नवम्बर 2000 को झारखण्ड अलग राज्य बना। झारखण्ड के आदिवासियों और दबे कुचले लोगों ने अलग राज्य के लिए अपना सबकुछ दाव पर लगा दिया। ये लड़ाई ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं थी बल्कि ये लड़ाई अपने अस्तित्व,संस्कृति और परंपरा को बचाने की थी, जो जल, जंगल और ज़मीन के साथ जुड़ा था। अलग राज्य बननेके बाद लोग खुशहाली और उम्मीदों की एक नई रौशनी की आस में थे। लेकिन अलग झारखण्ड बनने के बाद सबसे ज़्यादाज़ुल्म इन्ही प्राकृतिक संसाधनों की लूट को लेकर हुआ।
झारखण्ड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट के एक आंकड़े के अनुसार यहाँ औद्योगीकरण के नामपर तक़रीबन 100से ज़्यादा एमओयु हुए हैं,जिसमे 4,67,240 का पूंजी निवेश किया गया और इस दौरान लगभग दो लाख एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया। जिसमे टाटा,मित्तल,हिंडाल्को,अम्बानी, भूषण, डालमिया और अब अडानी जैसे देश की बड़ी बड़ी कंपनियों ने अपने प्लांट्सलगाए हैं। इनमे ज़्यादातर स्टील प्लांट्स, लोहा,एल्युमुनियम और तांबा के कारखाने थे जिस से लाखों लोग विस्थापित हुए और कई हज़ारलोग अब भी मुआवज़े और ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
कोइलकारी इलाके मे 1973 मे एक वृहत जल परियोजना से क़रीब डेढ लाख लोगो के विस्थापन होने आशंका थी। सरकार के पास विस्थापित लोगो के पुनर्वास केलिये कोई समुचित व्यवस्था नही थी. लोगो ने इसके खिलाफ आंदोलन चलाया और एक लंबे आंदोलन के बाद 2008 में परियोजना के वापसी की घोषणा हुई। इसी तरह नेतरहाट के पास भी 1471 वर्ग किलोमीटर ज़मीन के अधिग्रहण से 245 गांव के 2,62,853लोगोंके विस्थापन होने का डर था। इसके खिलाफ भी अहिंसक आंदोलन, सत्याग्रह चलाया गया जिसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गूँज सुनाई दी।
आज से ठीक आठ साल पहले 1 अक्टूबर 2008 को जमशेदपुर स्थित कोहिनूर स्टील प्लांट में स्थानीय आदिवासियों ने इस लिए काम रुकवा दिया था क्योंकि उनकी खेती की ज़मीनों का अधिग्रहण किया गया था। न ठीक से मुआवजे दिए गए न नौकरी। प्लांट की वजह से पर्यावरण में ज़बरदस्त असंतुलन हो गया था जिससे पानी, खेती और स्वास्थ बुरी तरहप्रभावित हो रहे थे।
विश्व प्रसिद्ध स्टील किंग लक्ष्मीनिवास मित्तल ने भी आर्सेलर-मित्तल ने भी तोरपा कामडेरा में 11000 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया जिसमे 8800 एकड़ ज़मीन में 12 मिलियन टन स्टील उत्पादन क्षमता का प्लांट बैठाया गया। 2400 एकड़ ज़मीन टाउनशिप प्लान के लिएरखी गयी। ग्रामीणों ने इसका विरोध शुरू किया गया। क्योंकि ये ज़मीनें सीएनटी-एनपीटी का खुला उलंघन कर के ली गई थे जो कि आदिवासियों की थी और बिना आदिवासियों की सहमति के ज़मीन का हस्तांतरण नहीं हो सकता था। साथ ही खेती की ज़मीन होने के कारण भी उसका उपयोग औद्योगिक उत्पादन के लिए नहीं किया जा सकता था।
6 दिसम्बर 2008 में दुमका के काठीकुंड में दो आदिवासियों को मार दिया गया। यहाँ एक पॉवर प्रोजेक्ट के विरोध में गरीबों को ज़मीन से बेदखल कर दिया गया था। गरीबों ने ‘जान देंगे पर ज़मीन नहींदेंगे’ नारे के साथ अपनी शहादत दी। इसी तरह खरसावां में जुपिटर सीमेंट फैक्ट्री, रांची में एचइसी और नगड़ी में, रामगढ के गोला और अब हज़ारीबाग़ के बड़कागांव में विस्थापन को लेकर आन्दोलनों में लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और बचे लोगों को अदालतों का चक्कर काटना पड़रहा है। दरअसल आंदोलन के बाद बड़े पैमाने पर सामूहिक गिरफ्तारियां और अत्याचारका दौर शुरू होता है। बड़कागाँव केस में भी क़रीब 400-500 लोगों पर मामला दर्ज किया गया और गिरफ्तारियों के लिए पुलिस दबिश से कई गांव के लोग डरे सहमे गांव छोड़ने पर मजबूर हुए।
दरअसल ऐसे विस्थापन के दर्द की कई दास्ताँ हैं यहाँ कई बार तो तो बेहद धोखाधड़ी करके आदिवासियों और किसानों की ज़मीन को हथियाने की कोशिश ये बड़ी बड़ी कंपनियां करती हैं और इसमें हमारी चुनी हुई सरकार भी इनको पूरा सहयोग करती है। ऐसी ही एक घटना नेगोसिया आदिवासियों के साथ हुई था जब उनसे बैल और बकरी के नाम पर सरकारी अधिकारियों ने सादे कागज़ पर उनके अंगूठे के निशान ले लिए। बाद में नागोसिया के लोगों को पता चला कि उनसे ये लिखवाया गया हैकि वे लोग अपनी ज़मीन हिंडाल्को कम्पनी को बॉक्साइट खनन के लिए देने को तैयार हो गए हैं। इस लूट और धोखाधड़ी के विरुद्ध लंबे समय तक आंदोलन चला।
दरअसल ये सवाल हमेशा उठते रहे कि सरकार या कंपनियों को यहाँ के लोग क्यों अपनी ज़मीन नहीं देना चाहते हैं? क्योंकि कई बार इनके साथ सुनियोजित तरीके सेधोका किया गया। औद्योगीकरण के नाम पर हज़ारों लोग बेघर और सैकड़ों एकड़ ज़मीन से लोग वंचित हो गए। हर परियोजना में विस्थापित हुए लोगों में से केवल 25 प्रतिशत लोगों को ही नौकरी या मुआवज़ा मिल पाता है बाक़ी 75 प्रतिशत लोग अपनी मांगों के लिए ज़िन्दगी और मौत से जूझते रहते हैं।
राज्य की बदकिस्मती है कि इतने सारे उद्योगों का फ़ायदा केवल पूंजीपति वर्ग, कंपनी के दलाल, राजनेता और बिचौलिये ही उठाते हैं। राज्य की गरीब जनता अब भी बदतर ज़िन्दगी जीने को विवश है। सरकारी नीतियों में कुछ है और उसकी धरातल पर सच्चाई कुछ और है। देखना यह है कि सरकार की इन जनविरोधी नीतियों में कब बदलाव आएगा और यहाँ के लोग जिस खुशहाल राज्य के लिए सुनहरे ख्वाब देखे थे वो वास्तव में कब पूरा होगा ?