भौतिकवादी दौर में नैतिकता का चयन बोझ नहीं है

मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ान

नैतिकता (Morality) को इन्सान के जीवन में जो महत्व प्राप्त है उससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता। इतिहास में किसी ऐसी सभ्यता का उदाहरण नहीं मिलता जिसमें सच और झूठ की सिरे से कोई कल्पना और धारणा ही न पाई जाती हो। जो लोग नियतिवाद (Determinism) के समर्थक हैं वे भी खुलकर इस बात का दावा नहीं कर सकते कि उनकी दृष्टि में सच और झूठ में या ईमानदारी और बेईमानी में कोई अन्तर नहीं है।

इससे कौन इन्कार कर सकता है कि सच्चाई, शुभेच्छा और नियमबद्ध आचरण इन्सान के अपेक्षित गुण हैं। इन्सान की अन्तरात्मा के लिए यह कभी सम्भव नहीं हो सकता कि वह वचनबद्धता की तुलना में छल-प्रपंच को और त्याग के स्थान पर स्वार्थ को और प्रेम और बन्धुत्व की तुलना में ईर्ष्या-द्वेष और अत्याचार को बेहतर समझने लगे।

इन्सान से किसी विशेष प्रकार की नैतिकता की अपेक्षा रखने का अर्थ यह है कि हम उसके संकल्प-स्वातन्त्र्य (Free Will) में विश्वास करते हैं। इसलिए कि जहाँ कोई संकल्प और चुनाव की आज़ादी न पाई जाती हो, वहाँ किसी चरित्र और नैतिकता का सवाल ही नहीं उठता। यह एक तथ्य है कि नैतिकता का सम्बन्ध इन्सान के संकल्प और चुनाव की आज़ादी से है। इन्सान को दुनिया में संकल्प और चुनाव की आज़ादी हासिल है, इसलिए उसका एक नैतिक अस्तित्व है। यही वह चीज़ है जो उसे अन्य जीवों की तुलना में विशिष्टता प्रदान करती है।

इन्सान का चरित्र और उसके कर्म की कोई भौतिक व्याख्या सम्भव नहीं। चेतना को जड़ की उत्पत्ति समझना सच नहीं है। जड़ पदार्थों का अध्ययन एक भौतिक शोध हो सकता है किन्तु भौतिक साधनों के द्वारा चेतना की व्याख्या किसी प्रकार नहीं की जा सकती। मैक्स प्लैंक (Max Planck) ने कहा है, “कोई व्यक्ति, चाहे कितना ही अक़्लमन्द क्यों न हो, मात्र कारण-कार्य नियम (Law of Cause and Effect) के द्वारा अपने सचेतन कर्मों के निर्णायक प्रेरकों के सम्बन्ध में कभी भी सही परिणाम पर नहीं पहुँच सकता। इसके लिए किसी अन्य नियम, अर्थात नैतिक नियमों, की आवश्यकता है।” (The Universe in the Light of Modern Physics)

इन्सान को संकल्पवान अस्तित्व समझने के लिए आवश्यक है कि उसकी स्थायी और स्वतन्त्र हैसियत को स्वीकार किया जाए, क्योंकि इसके बिना उसे नैतिक और चारित्रिक गुणों से सम्पन्न मानने का कोई मतलब बाक़ी नहीं रहता।

नैतिकता और चरित्र के लिए, संकल्प और चुनाव की आज़ादी के अलावा ऐसे वास्तविक, स्थायी और निरपेक्ष (Real, Permanent and Absolute) जीवन-मूल्यों की भी आवश्यकता है जो नैतिक नियमों का आधार बन सकें। जिनका मूल्य और महत्व सापेक्ष और अस्थायी न हो, बल्कि उनका मूल्य स्थायी और अपना स्वयं का हो। जिनकी सुरक्षा के लिए इन्सान अपना सब कुछ क़ुर्बान कर सके।

नैतिकता, भौतिकवाद और वैश्विक अर्थवत्तापूर्ण नियम

इन्सान के लिए किसी ऐसी नैतिक व्यवस्था की अवधारणा, जिसका आधार भौतिकवाद के बजाय वैश्विक अर्थवात्तापूर्ण नियमों पर हो, कोई ऐसी अवधारण नहीं है जिससे हमारा जीवन कोई सामंजस्य न रखता हो। हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने हर सांसारिक मामले में कोई-न-कोई अर्थवत्तापूर्ण दृष्टिकोण रखने पर मजबूर है। इन्सान अचेतन रूप में केवल यान्त्रिक रूप से कोई कार्य नहीं करता। उसके प्रत्येक कार्य के पीछे उसका ज्ञान और संकल्प कार्यरत होता है। परिणामदर्शिता उसका स्वभाव है। विशुद्ध भौतिकवाद के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है कि कोई व्यक्ति नैतिक नियमों के अनुसार कर्म क्यों करे? अपने निकटतम हित को छोड़कर दूसरों के काम क्यों आए? कमज़ोरों और पीड़ितों के साथ हम सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार क्यों करें? इसमें सन्देह नहीं कि भौतिकवाद के झंडावाहकों में ऐसे लोग भी मिलते हैं जिन्होंने क़ुर्बानियां दी हैं। दरिद्रों, मोहताजों और शोषितों के समर्थन में वे सक्रिय रहे हैं, लेकिन उनकी यह कार्यशैली उनके मौलिक सिद्धान्तों से मेल नहीं खाती। ज़रूर यह भौतिकता से परे किसी और चीज़ का प्रभाव था जो उनके मन के किसी कोने में छिपा रहा है।

भौतिकता या नैतिकता?

भौतिकवाद के पक्षधर पदार्थ ही को सब कुछ समझते हैं। उनकी दृष्टि में यहाँ जो कुछ भी है वह मात्र भौतिक पदार्थों का चमत्कार है। जैसे बहुत-से भौतिकवादियों का मत यह है कि अर्थव्यवस्था की संरचना ही में इन्सान के जीवन का सम्पूर्ण रहस्य निहित है। धर्म और नैतिकता, सभ्यता और संस्कृति सब आर्थिक परिस्थितियों की पैदावार हैं। दरअस्ल यथार्थ का यह अत्यन्त सतही अध्ययन है। मार्क्स और उसके अनुयायी कम-से-कम मनोविज्ञान और मानवशास्त्र ही से परिचित होते तो मनोविज्ञान उन्हें बताता कि उत्पादन के साधन इन्सान के मस्तिष्क की क्रियाओं और तकनीक की व्याख्या में सर्वथा असफल हैं। इन्सान का मन उत्पादन के साधनों को अपने उद्देश्य के लिए प्रयोग करता है और उन पर प्रभाव डालता है। मानव विज्ञान उन्हें इस बात से परिचित कराता कि इन्सान की आत्मा मात्र भ्रम या भ्रम की निर्मिति नहीं है, बल्कि इन्सानी संस्कृति के उद्भव और विकास में वस्तुतः आत्मा ही अपने को व्यक्त करती है। भौतिक साधनों को वही काम में लाती है और उनसे काम लेकर विभिन्न शैलियों की रचना करती है। विभिन्न शैलियों में उसी की अभिव्यक्ति होती है।

स्वयं यह संसार मात्र उपयोगिता (Utility), अर्थात् जिससे हमारे भौतिक हित जुड़े होते हैं, को ही व्यक्त कदापि नहीं करता। इस संसार में दूसरे अन्य ध्यान देने योग्य संकेत भी पाए जाते हैं जो उपयोगिता से श्रेष्ठतर हैं, जिनकी उपेक्षा करते हुए संसार की जो भी व्याख्या की जाएगी दोषपूर्ण और ग़लत होगी। संसार अर्थमय है और जीवन की अपनी अर्थवत्ता है जिसे जानने में भौतिकवाद नितान्त असमर्थ है। संसार में स्पष्ट रूप से किसी उच्च और श्रेष्ठ सत्ता का ज्ञान और संकल्प कार्यरत प्रतीत होता है, जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि यहाँ समस्त क्रियाशीलता नैतिकता की है। ज्ञान और संकल्प की अभिव्यक्ति सदैव नैतिकता के साथ होती है। उदाहरणार्थ आप देखेंगे कि इन्सान की ज़रूरतों और संसार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली चीज़ों में अत्यन्त गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। शरीर को बनाए रखने के लिए जिन चीज़ों की ज़रूरत है उन सबको इन्सान अपने आस-पास और संसार में मौजूद पाता है। ये बहती नदियाँ, जलस्रोत और मैदान, ये विभिन्न प्रकार के वृक्ष और जानवर, ये फल-फूल और खेतियाँ इन्सान की प्राकृतिक अपेक्षाओं और ज़रुरतों के उत्तर हैं। इन्हें संसार के रचयिता की अनुकम्पा के सिवा किसी और चीज़ से व्यक्त नहीं किया जा सकता। ये चीज़ें, जिन्हें हम अपने चारों ओर देखते हैं, वास्तव में ईश्वरीय स्वभाव ही के जीवन्त प्रतीक हैं। यह इस बात का खुला प्रमाण है कि संसार में वास्तव में भौतिकता नहीं बल्कि नैतिकता कार्यरत है।

नैतिक कार्यशीलता की इससे भी ज़्यादा साफ़ और स्पष्ट तस्वीरें मौजूद हैं लेकिन इन्सान उनकी ओर बहुत कम ध्यान देता है। आप जानते हैं कि बच्चे के पालन-पोषण में वास्तविक भूमिका माता-पिता या सगे-सम्बन्धियों के उस वात्सल्य और प्रेम की होती है जो उन्हें बच्चे से होता है। यह नैतिकता का चमत्कार है न कि विशुद्ध भौतिकता का। इसी प्रकार हम देखते हैं कि एक ओर अगर हमें सौन्दर्यबोध प्रदान किया गया है तो दूसरी ओर संसार की प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य पाया जाता है। इसे मात्र भौतिक तत्वों की करामात ठहराना और इसी पर सन्तुष्ट होकर रहना बौद्धिक और वैचारिक आत्महत्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं। मार्क्स और दूसरे भौतिकवादी इस तथ्य को समझने में असमर्थ हैं कि जीवन को जड़ और भौतिक पदार्थों पर श्रेष्ठता प्राप्त है। एक श्रेष्ठतर वस्तु अपने से निम्नतर के अधीन कैसे हो सकती है? जीवन चेतना और अनुभूतियों से भरी एक आबाद दुनिया है जिसका स्रोत कोई चैतन्य और परम सत्ता ही हो सकती है, और केवल वही सत्ता जीवन का अभीष्ट और अभिप्राय हो सकती है। ईश्वर को अपने जीवन से अलग करके न केवल यह कि इन्सान ईश्वर के अधिकारों को नज़र अन्दाज़ कर देता है बल्कि उसकी यह नीति स्वयं उसके अपने ख़िलाफ़ भी है, क्योंकि इस प्रकार वह अपनी हैसियत को गिरा देता है।

इस बात को एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। हमारे शरीर के समस्त अवयव हाथ, पैर आदि देखने में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं किन्तु सत्य यह है कि इनकी हैसियत जो कुछ है वह हमारे व्यक्तित्व के सापेक्ष है। अगर हमारे हाथ और पैर हमारे व्यक्तित्व के अधीन न हों तो उनका अस्तित्व निरर्थक होकर रह जाए। शारीरिक व्यवस्था में केन्द्रीय महत्व हमारे व्यक्तित्व को प्राप्त है। इसलिए हमारे समस्त अवयव अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए प्रति क्षण हम पर निर्भर करते हैं। ठीक इसी प्रकार हमारी वास्तविक हैसियत का निर्धारण ईश्वर की ओर से होता है। इस सम्बन्ध और सम्पर्क के बिना हमारी हालत ऐसे हाथ-पैर की रह जाती है जिनको शरीर से काटकर फेंक दिया गया हो। ऐसे कटे हुए हाथ-पैर और मिट्टी के ढेर में कोई मौलिक अन्तर शेष नहीं रहता। इन्सान यह तो समझता है कि हाथ या पैर का शरीर से कटकर अलग होना उसके लिए घातक है किन्तु अपनी दृष्टिहीनता के कारण वह उस घातक परस्थिति को महसूस करने में सामान्यतः असमर्थ रहता है जिसमें वह ईश्वर से अलग होकर जा पड़ता है।

नैतिकता बोझ नहीं है

नैतिकता इन्सान के लिए कोई अप्रिय बोझ बिल्कुल नहीं है। रंग और सुगन्ध फूलों पर बोझ नहीं होते। परिन्दों के पंख उनके के लिए कभी भार नहीं होते, बल्कि ये उनकी शोभा भी हैं और उड़ान में उनके सहायक भी। यही हाल फूलों के रंग और गन्ध और आँखों की पलकों का भी है। इन्सान के जीवन में भी वास्तविक सौन्दर्य नैतिकता ही से उत्पन्न होता है। नैतिकता से वंचित हो जाने के बाद इन्सान के पास कोई मूल्यवान वस्तु शेष नहीं रहती। नैतिक अपेक्षाएँ हमारी प्रकृति और स्वभाव को ही दर्शाती हैं।

नैतिकता वास्तव में एक वैश्विक और व्यापक नियम का नाम है। वही हमारे आन्तरिक जीवन का भी नियम है। नैतिकता ही है जिसके द्वारा इन्सान के आन्तरिक जीवन में सन्तुलन और उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सामंजस्य और एकात्मता उत्पन्न हो सकती है। यही वह वैश्विक नियम है जिसे हम संसार की व्यवस्था में भी देखते हैं। संसार की सभी चीज़ें एक सही और स्वाभाविक नियम के अधीन हैं जिसके पीछे ईश्वर का संकल्प क्रियाशील है। इसे स्वीकार करने पर आज बड़े-से-बड़े चिन्तक अपने को विवश पा रहे हैं। उन्हें यह मानना पड़ा है कि यह संसार किसी मशीन के बजाय मन से अधिक सादृश्यता रखता है।

इसमें सन्देह नहीं कि भौतिक जीवन-दर्शन उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में अपने यौवन पर था। किन्तु बीसवीं शताब्दी में स्वयं यूरोप के कितने ही विचारकों और वैज्ञानिकों को नए अनुसन्धानों और शोधकार्यों के बाद अपनी धारणा को बदलना पड़ा है। जॉन स्कॉट हाल्डेन ने लिखा है कि जीवन की समस्या को भौतिक और रासायनिक समस्या समझना ग़लत है। जीवन और इन्सान का व्यक्तित्व का अस्तित्व इस बात का प्रमाण है कि विश्व की मात्र भौतिक व्याख्या सम्भव नहीं। (The Philosophical Basis of Biology)

विज्ञान ने अब हमें ऐसे स्थान पर ला खड़ा किया है जहाँ बड़े-बड़े वैज्ञानिक यह स्वीकार करने लगे हैं कि विश्व में जो कुछ भी दिखाई देता है वह वस्तु (Thing) सिरे से है ही नहीं, बल्कि केवल कार्य है या घटनाओं (Events) का भवन है। इससे इस बात को अतिरिक्त बल मिलता है कि यह संसार अन्धे-बहरे भौतिक पदार्थों की संरचना नहीं बल्कि इसका अस्तित्व-स्रोत कोई मन और संकल्प है। दूसरे शब्दों में यह संसार ईश्वरीय रचनाकर्म की अभिव्यक्ति है। इन्सान का दायित्व है कि वह अपने संकल्प और कर्म-स्वातन्त्र्य की दुनिया में अपने प्रभु का आज्ञापालन करे। क़ुरआन में कहा गया है – “निश्चय ही मेरा प्रभु सीधे रास्ते पर है।” (11:56)

मतलब यह है कि ईश्वर का कोई कार्य न्याय, तत्वदर्शिता और सत्य के विरुद्ध नहीं हो सकता। उसने सत्य और शुभ के अन्तर्गत संसार की रचना की है। हमें संकल्प और कर्म-स्वातन्त्र्य प्रदान करने से भी जो चीज़ अभीष्ट है वह सत्य और शुभ के सिवा कुछ और नहीं हो सकती। इन्सान का कल्याण और उसकी सफलता उत्तके अंतःकरण की शुद्धि पर निर्भर करती है। बाहर और अन्तर को ‘ख़ुल्क़’ (Creation) और ‘ख़ुल्क़’ (शील) से परिभाषित किया जाता है। कहते हैं कि‌ ‘फ़ुलानुन हुस्नुल ख़ुल्क़ वल ख़ुल्क़’ अर्थात् ‘अमुक का अन्तर भी अच्छा है और बाहर भी।’ बाहर को यदि हम आँख से देखते हैं तो अन्तर या आत्मा का बोध अन्तर्दृष्टि के द्वारा होता है। बाहर हो या अन्तर, हर एक का अपना एक विशिष्ट रूप और आकार होता है। यह रूप और आकार अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। ख़ुल्क़ (शील) या मन की रूपाकारिक सुदृढ़ता ही है जिससे कर्मों का संचालन होता है। अगर हमसे अच्छे कर्म होते हैं तो यह इस बात का संकेत है कि हमारा अन्तर्मन अच्छा है। इसी को सुशीलता कहते हैं। इन्सान के स्वभाव, प्रवृत्तियों और अभिरुचियों से उसके आन्तरिक रूपाकार का भली-भाँति अनुमान किया जा सकता है। किसी की प्रवृत्ति और अभिरुचि को उसके चरित्र और व्यक्तित्व से अलग नहीं किया जा सकता। रस्किन ने ग़लत नहीं कहा है कि अभिरुचि वास्तव में नैतिकता का कोई अंग या शाखा नहीं बल्कि स्वयं अभिरुचि ही नैतिकता है। किसी को जाँचने के लिए पहला और अन्तिम सवाल जो उससे कर सकते हैं वह यही है कि उसे क्या पसन्द है? इन्सान की पसन्द और नापसन्द से यह भेद खुल जाता है कि स्वयं वह इन्सान क्या है।

नैतिकता के अध्ययन में सत्य, शुभ और सौन्दर्य को मौलिक महत्व दिया जाता है। इनका सम्बन्ध वास्तव में हमारे ज्ञान, अनुभव और कर्म से है। अगर इन्सान सत्य के अनुसन्धान में असफल रहा तो वास्तव में वह सत्य ज्ञान से वंचित है। उसका जीवन अगर एक सौन्दर्यानुभव में न ढल सका तो उसके एहसास की दुनिया वीरान ही रही। इसी प्रकार अगर वह शुभ को समझने में सफल न हो सका तो व्यावहारिक रूप से वह सर्वथा घाटे में रहा।

इन्सान का यह स्वभाव है कि वह जानना चाहता है कि सत्य (Truth) और यथार्थ (Reality) क्या है? वह उन वस्तुओं को महत्व देता है जिनमें सौन्दर्य और गुणवत्ता हो। इसी प्रकार वह उस कर्म को अपनाना चाहता है जिसमें शुभ निहित हो। साधारण अध्ययन में केवल इन्सान के व्यवहार का अध्ययन ही नैतिकता के अन्तर्गत किया जाता है। सत्य की उपलब्धि को दर्शन (Philosophy) का विषय निश्चित किया गया है और सौन्दर्य और गुणवत्ता को सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetics) के तहत रखा गया है। लेकिन जीवन के इन तीनों मूल्यों में इतना गहन सम्बन्ध है कि एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ सत्कर्म को ज्ञान से अलग नहीं कर सकते। जो कर्म ज्ञान के अनुसार न हो वह पथभ्रष्टता है। सुकरात ने कहा है – “सत्कर्म ज्ञान ही का एक प्रकार है।” (Virtue is a kind of Knowledge) सुकरात का अभिप्राय यह है कि नैतिक दायित्वों के परिणाम अगर हम पर पूर्णरूपेण स्पष्ट हों तो अनिवार्यतः हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। अनुचित नीति स्वयं अपने विरुद्ध एक अनुचित प्रयास है। अपने विरुद्ध कोई क़दम उठाकर कोई अपनी सुरक्षा के दायित्व का निर्वाह कैसे कर सकता है।

नैतिकता से सौन्दर्यबोध को भी अलग नहीं कर सकते। अरस्तू के दृष्टिकोण के अनुसार नैतिक जीवन स्वयं उसके अपने सौन्दर्य के कारण ही स्वीकार्य होता है – “सौन्दर्य ही शुभ है।” (Only Beauty is Good)

सौन्दर्य का सम्बन्ध मात्र शरीर से ही नहीं है। नैतिक दृष्टि से भी कुछ चीज़ें सुन्दर (Morally Excellent) होती हैं। कांट के शब्दों में वे हीरे की तरह स्वयं अपनी रौशनी से चमक रही होती हैं। वे उस वस्तु की तरह होती हैं जिसका मूल्य स्वयं उसके अपने अस्तित्व से स्थापित होता है।

इसी तरह आनन्द (Pleasure) का भी नैतिकता से गहरा रिश्ता होता है। सही कार्यशैली से सच्ची प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह प्रसन्नता मात्र आध्यात्मिक नहीं होती बल्कि बौद्धिक और हार्दिक होती है और साथ ही साथ सौन्दर्यबोध से भी इसका सम्बन्ध होता है। इसीलिए कहा गया है – “सत्कर्म अपना प्रतिदान स्वयं है और अपकर्म अपना दंड स्वयं है।” (Virtue is its own Reward and Vice is its own Punishment)

नैतिकता और मनुष्य की पूर्णता

नैतिकता ही के द्वारा मनुष्य की पूर्णता सम्भव है। पूर्णता की उपलब्धि नैतिकता के बिना असम्भव है। ये और इस प्रकार के विचार जिन्हें विभिन्न विचारकों ने प्रस्तुत किया है, इनके द्वारा वास्तव में जीवन ही के विभिन्न पहलुओं और मूल्यों को उजागर करने का प्रयास किया गया है। नैतिकता के द्वारा जीवन का निर्माण होता है। नैतिकता जीवन को एक स्वरूप देती है। नैतिक मूल्यों का आदर जीवन के समस्त क्षेत्रों में अपेक्षित है।

नैतिकता में दार्शनिकों ने अपना प्रमुख दायित्व यह समझा है कि वे जीवन के परम लक्ष्य की खोज करें। प्लेटो और अरस्तू से लेकर स्पिनोज़ा, कांट, हीगल और ग्रीन तक सभी ने इस सम्बन्ध में अपने दायित्व के निर्वाह का प्रयास किया है। परम लक्ष्य के निर्धारण के बाद इन्सान का दायित्व स्वतः निर्धारित हो जाता है और इसकी अनिवार्यता अपने आप ही सिद्ध हो जाती है। इसी परम लक्ष्य के सन्दर्भ में इन्सान का पूरा जीवन अपना एक स्वरूप और आकार ग्रहण कर लेता है। चिन्तकों को उनके प्रयास ने यहाँ तक पहुँचा दिया है कि वे यह मानने पर बाध्य हुए हैं कि जीवन के परम लक्ष्य (Ultimate Goal) का इन्सान के वर्तमान जीवन से इतना निकट का सम्बन्ध है कि वर्तमान जीवन और अस्तित्व को उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। जीवन उसी में प्रविष्ट और सम्मिलित है। नीतिशास्त्र के दार्शनिकों का काम केवल यह है कि वे इस तथ्य को इस सीमा तक स्पष्ट और लोगों की दृष्टि में इतना उजागर कर दें कि साधारण इन्सानी चेतना भी इसे ग्रहण कर सके।

जहाँ तक विधि-विधान या क़ानून की बात है तो इस विषय में यह स्वीकार किया गया है कि नैतिकता और चरित्र का स्तर जब उच्च हो जाता है तो नैतिक नियम और सिद्धान्त इन्सान के लिए अजनबी नहीं रहते, बल्कि वे उसकी अपनी ही चेतना और अनुभूति का एक मूर्त रूप सिद्ध होते हैं। आदमी जिस चीज़ को अपने दिल की गहराई में पा रहा हो, उसे धारण करने के लिए किसी बाहरी नियम और सिद्धान्त के दबाव की आवश्यकता ही नहीं रहती। ऐसे क़ानूनों और सिद्धान्तों के पालन का अर्थ इसके सिवा और कुछ नहीं कि आदमी स्वयं अपने साथ विश्वासघात न करे, वह स्वयं अपने लिए सच्चा हो।

“तुम अपने प्रति सच्चे बनो।”

To Thine Own Self Be True

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