एग्ज़िट पोल्स: सिर्फ़ धंधा है या कुछ और इरादे भी हैं?

सही या ग़लत जो हो, नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा यह मान रहा है कि इस बार बड़े पैमाने पर परिणामों में धांधली की जा सकती है। इस धांधली की पूर्वतैयारी के लिए एग्ज़िट पोल्स के जरिये वातावरण बनाया जा रहा है ताकि दीवार पर मोटे-मोटे हुरूफ़ में लिखी जनभावनाओं की इबारत से उलट फ़ैसला आने पर उसे ‘एग्ज़िट पोल्स ने भी तो यही कहा था’ कहकर गले उतारा जा सके।

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एग्ज़िट पोल्स: सिर्फ़ धंधा है या कुछ और इरादे भी हैं?

बादल सरोज

मतदान पूरा होते ही – जैसी कि आशंका थी – सारा मीडिया एग्ज़िट पोल्स से बजबजाने लगा। कथित सर्वे के आधार पर निकाले गए अनुमानों को सचमुच के परिणामों की तरह दिखाया जाने लगा। इतने अधिकारपूर्वक सीटों का ऐलान किया जाने लगा कि जैसे गिनती पूरी हो चुकी है और निर्वाचित सांसद भी घोषित किये जा चुके हैं। क़रीब चार दशक पहले भारत में इस बीमारी की शुरुआत हुई थी, तब से लेकर आज तक इनके सटोरिया अनुमान कितनी कम बार सही और कितनी ज़्यादा बार ग़लत साबित हुए, इसका लेखा-जोखा याद दिलाना इन पंक्तियों के लिखे जाने का मक़सद नहीं है। जब-जब – प्रायः हमेशा ही –  ये ग़लत साबित हुए, तब-तब इसे करने वाले क्या-क्या बहाने बनाने आये, कई बार तो मुड़कर झांकने भी नहीं आये, यह सब जानते हैं, इसलिए इसे बताने की भी ज़रूरत नहीं। यहां सिर्फ़ इससे जुड़े कुछ पहलुओं पर नज़र डाल लेना काफ़ी है।

जिस तरह झूठ अर्धसत्य,‌ असत्य से कई गुना ख़तरनाक होता है उसी तरह साफ़-साफ़ दिखने वाले अज्ञान और अंधविश्वास से ज़्यादा घातक होता है छद्म विज्ञान। यही छद्म विज्ञान था जिसने कोरोना में थाली बजाने से बनने वाली झनझनाहट और मोमबत्ती जलाने से होने वाले प्रकाश से कोरोना वायरस के ख़त्म हो जाने के ‘वैज्ञानिक’ दावे किये, नतीजा यह निकला कि 40 से 45 लाख भारतीय बिना समुचित इलाज के मर गए। यही छद्म विज्ञान है जो जाति श्रेणीक्रम की जघन्यता को सही ठहराने के लिए ‘विज्ञानसम्मत तर्क’ ढूंढकर लाता है। एग्ज़िट पोल का धंधा – यह छोटा-मोटा नहीं हज़ारों करोड़ का कारोबार है –  करने वाले भी अपनी क़यासबाज़ी के समर्थन में इसी तरह का दावा करते हैं, इसे सेफ़ोलॉजी बताते हुए कहते हैं कि यह भी एक विज्ञान है।

प्रसंगवश बता दें कि सेफ़ोलॉजी यूनान से आया शब्द है – इसका शाब्दिक अर्थ कंकड़शास्त्र होगा, क्योंकि ग्रीक सभ्यता में चुनाव का काम कंकड़ (पत्थर का छोटा-सा टुकडा) डालकर किया जाता था। बहरहाल इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यूनानियों ने कभी इसे विज्ञान माना हो। सिर्फ़ कंकड़ के आगे ‘लॉजी’ लगा देने से यदि इसे विज्ञान मानने का दावा किया जाता है तब तो फिर फेंकोलॉजी को भी वैज्ञानिक मानना होगा! लिहाज़ा पहले तो इस ग़लतफ़हमी को दूर कर लेना चाहिए कि इस धंधे का कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार है। अब तक इस तरह का न कोई विज्ञान आया है, न ही ऐसा कोई त्रुटिहीन – फ़ूलप्रूफ़ – गणितीय फ़ॉर्मूला ही बना है जिसके आधार पर मतदान के बाद नतीजों के अनुमान लगाने का कोई माड्यूल बनाया जा सके।

दूसरी बात, मतदाता चावल का बोरा या रंधता हुआ भात नहीं है कि दो चार चावलों को देखकर सबके बारे में अंदाज़ा लगाया जा सके। मतदाता कोई ख़त भी नहीं है कि उस पर ‘ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफ़ाफ़ा देख कर’ के मिसरे को शब्दश: लागू किया जा सके। हालांकि, ऐसा कहने से पहले ख़ुद इसके शायर ने अपनी बात साफ़ करते हुए इसी शेर में कहा है कि ‘आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर’ मतलब हर आदमी एक-सा नहीं होता, उसकी पहचान उसके क़याफ़ा – शक्ल-ओ-सूरत, बनावट, व्यक्तित्व – को देखकर की जानी चाहिए। क्या एग्ज़िट पोल का पोलियो फैलाने वाले एग्ज़िट-पोलिये हर आदमी के क़याफ़े, उसकी भिन्नता, विशिष्टता को आधार बनाते हैं? नहीं।

ज़्यादातर पोलिये तो सर्वेक्षण में कहां, कितने और कैसे लोगों से बात की उसकी जानकारी ही नहीं देते। जो देते हैं उनके सर्वे का सैंपल सीटों का 10 प्रतिशत और कुल मतदाताओं का 0.0000001 प्रतिशत भी नहीं होता। कोई आधी सदी से वोट डाल रहे इन पंक्तियों के लेखक से आज तक किसी सर्वे कम्पनी ने पूछताछ नहीं की। आज तक किसी पोलिंग बूथ पर किसी से पूछताछ होती हुई भी नहीं देखी।

क्या इतने छोटे से सैंपल के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के जनादेश का समीकरण निकाला जा सकता है? इस ख़ालिस सट्टेबाज़ी की हिमायत करने वाले अक्सर अमरीका और यूरोप के देशों में इस तरह के पोल्स का ज़िक्र करते हैं – बिना यह बताये कि उन देशों में भी वे कितने सही और कितने ग़लत साबित हुए हैं। वहां भी अब लोग एग्ज़िट पोल के झमेले को छोड़ चुके हैं और पोस्ट-पोल पर आ चुके हैं। पोस्ट-पोल यानि मतदाता जैसे ही वोट डालकर मतदान केंद्र से बाहर निकलता है वैसे ही बाहर भी उससे उसी तरह गोपनीय वोट लिया जाता है। इसके कुछ हद तक, कुछ ही हद तक, सही निकलने की संभावना होती भी है‌। मगर अभी भारत में सर्वे उद्योग की कंपनियों का टेसू एग्ज़िट पोल पर ही अड़ा हुआ है।

इसके अलावा भारत, भारत है, यूरोप नहीं है । यहां का मतदाता एक मतदान केंद्र, एक बसाहट में रहने वाला बराबरी वाला वोटर नहीं है। वह अनेक निर्णायक विविधताओं और गुणात्मक भिन्नताओं वाला मनुष्य है। यूरोप में एडविन या लिओन, एडविन या लिओन ही होते हैं, इसके अलावा अपनी वर्गीय स्थिति के मुताबिक़ वे ग़रीब, अमीर या मध्यमवर्गी हो सकते हैं। जम्बूद्वीपे भारतखंडे में रामप्रसाद और श्यामप्रसाद सिर्फ रामप्रसाद या श्यामप्रसाद नहीं होते। उनकी पहचान वर्गीय आर्थिक पृष्ठभूमि के अलावा बल्कि उससे ज़्यादा – अपवादों को छोड़ दें तो – नियमतः उनके नाम के पहले या बाद में लगे शब्द संबोधन, उनके वर्ण और जाति से तय होती है। यह पहचान उनकी सामाजिक हैसियत को ही नहीं, खुलकर बोलने या न बोलने की उनकी स्थिति को भी निर्धारित करती है।

भारतीय समाज जिस रूढ़ और घुटन भरी अवस्था में है, वह एग्ज़िट पोल में दिए जाने वाले जवाब, यदि दिए जाते हैं तो, की प्रामाणिकता को प्रभावित करती हैं। सिर्फ़ यूपी – बिहार, बुन्देलखण्ड, रूहेलखंड ही नहीं देश के बहुमत गांवों का ग़रीब, दलित, आदिवासी या ओबीसी समुदाय का मतदाता, किसको वोट देकर आया है यह पूछे जाने पर, खरा-खरा सच बोल देगा यह ग़लतफ़हमी वे ही पाल सकते हैं जिन्होंने भारत के गांव-मोहल्ले देखे नहीं हैं। यही, बल्कि इससे भी ज़्यादा ख़राब स्थिति महिलाओं की है – इनका विराट हिस्सा वोट देने की अपनी पसंद तय नहीं कर सकता, जो छोटा-सा हिस्सा अपनी पसंद से वोट डालने का साहस कर भी लेता है, वह उसके बारे में अपने परिवार तक में कह नहीं सकता।

इस बार के चुनावों में तो यह और भी मुश्किल था। इस बार चुनाव अजब सन्नाटे में हुए। नागरिक समाज में न कहीं राजनीतिक चर्चाएं थीं, न बहस थी। एक अजीब सी घुटन भरी ख़ामोशी थी। न बोलना, न बतियाना, न कहना, न सुनना। पूछे जाने पर सूनी आंखों से देखना और जवाब देने से कतराना इस ख़ामोशी की अभिव्यक्ति थी। यह ख़ामोशी अकारण नहीं थी – इसके पीछे अनिश्चितता या संकोच या कोऊ नृप होय … वाला कैकेयी भाव नहीं था। इसके पीछे डर था, जिसे योजनाबद्ध तरीक़े से पनपाई गयी दहशत के ज़रिये पैदा किया गया और एक चक्रव्यूह सा रच कर क़ायम रखा गया है। ऐसे में एग्ज़िट पोल्स में लोग बोले होंगे,‌ यह सोचना ही ग़लत है।

फिर क्यों बजाया जा रहा है एग्ज़िट पोल का ढोल?

इस बहाने मीडिया और कंपनियों द्वारा हज़ारों करोड़ रुपयों की कमाई के अलावा भी इस ढोल के शोर में कुछ है। चुनाव एक राजनीतिक संग्राम है और युद्ध शास्त्र में एक मोर्चा मनोवैज्ञानिक युद्ध का भी होता है। वोट डाले जाने के बाद असली ख़बर के लिए धीरे-धीरे अनुकूलन करने की आवश्यकता होती है। पिछली वर्षों में यह काम इन एग्ज़िट पोल्स ने किया है। इस बार ख़ास यह है कि जनता के बड़े हिस्से के मन में निर्वाचन प्रक्रिया को लेकर संदेह और अविश्वास पैदा हुआ है। ईवीएम को लेकर जो था सो था ही, केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ) की सत्ता पार्टी के प्रति खुल्लमखुला और निर्लज्ज पक्षधरता, डाले गए वोटों की संख्या बताने से इनकार और अनावश्यक देरी ने आशंकाओं की आग में घी डाला है। सही या ग़लत जो हो, नागरिकों  का एक बड़ा हिस्सा यह मान रहा है कि इस बार बड़े पैमाने पर परिणामों में धांधली की जा सकती है। इस धांधली की पूर्वतैयारी के लिए एग्ज़िट पोल्स के जरिये वातावरण बनाया जा रहा है ताकि दीवार पर मोटे-मोटे हुरूफ़ में लिखी जनभावनाओं की इबारत से उलट फ़ैसला आने पर उसे ‘एग्ज़िट पोल्स ने भी तो यही कहा था’ कहकर गले उतारा जा सके।

यदि ऐसा हुआ तो यह भारत के लोकतंत्र की कपाल क्रिया ही नहीं होगी, यह डेढ़ अरब पहुंचती आबादी वाले देश को अनिश्चितता के घोर अंधेरे में धकेलने का कुकर्म भी होगा। इतिहास गवाह है कि जब-जब संवैधानिक संस्थाओं ने भरोसा खोया है, तब-तब इस देश की जनता ने उन्हें और उनसे ऐसा करवाने वालों को सज़ा सुनाई है। उम्मीद है इस बार भी हम भारत के लोग – इन्हीं चार शब्दों से शुरू होने वाले संविधान की रक्षा के लिए सजग रहेंगे। ज़रूरी हुआ तो सड़क पर उतरेंगे ताकि संसद आवारा होने से बचाई जा सके।

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