Covid-19: वायरस संक्रमण से जनता पस्त सरकार मस्त

यातायात के साधन बन्द होने के अलावा दूसरी सबसे बड़ी समस्या भूख है बिहार का 11 साल का राहुल भूख से मर गया। एक हफ्ते से कुछ नहीं खाया था। नाम था राहुल। उसके गांव का नाम था जवाहर टोला। गांव का नाम गांधी टोला या मोदी टोला होता तो भी क्या फर्क पड़ता।

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कोरोना संक्रमण को लेकर यूनिसेफ़ द्वारा जारी दिशा-निर्देश

-शाहिद सुमन

जब पूरे देश में लॉकडाउन है,  लोगों को एक दूसरे से दूर रहने के लिए कहा जा रहा है। तब कुमार विश्वास और अनुपम खेर के साथ मिलकर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर भीड़ से तालियाँ बजवा रहे हैं। कुमार और अनुपम को घर से निकलकर स्टूडियो तक आने की इजाज़त है। कोई आम आदमी राशन खरीदने भी निकलेगा तो लाठियाँ खाएगा। कहीं दो आदमी भी खड़े हो गए तो उनसे कोरोना फैलने का खतरा है। यहाँ पूरी भीड़ है तालियाँ पीटने वालों की। मध्य प्रदेश में सरकार गठन हो जाता है, राज्यपाल की अगुआई में बीजेपी के नए मंत्री शपथ ले रहे हैं। ग्रुप फ़ोटो सेशन का आयोजन किया जाता है। उधर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने दल बल के साथ अयोध्या चले जाते हैं और बिना सोशल डिस्टेन्सिंग के मंदिर परिसर में धार्मिक कर्मकांड में भाग लेते हैं। प्रदेश की पुलिस का पूरा संरक्षण है। ये वही पुलिस है जो पिछले कई सालों से जबसे योगी की सरकार है के मुताबिक कानून का कड़ाई से पालन करवाने में मशहूर हैं। इस वक़्त भी जबकि लोग भूखे-प्यासे दिल्ली से दिहाड़ी मजदूर सरकार से बे आसरा होकर हजारों किलोमीटर पैदल अपने घर जाने के लिए मजबूर हैं तो ये पुलिस लॉकडाउन कानून का हवाला देकर लोगों से वसूली में लगी है। मैं ऐसा भी नहीं कह रहा हूँ कि सभी पुलिस वाले ऐसा कर रहे हैं। लेकिन जिस हिसाब से ये पीड़ित लोगों से व्यवहार कर रहें हैं, वो बिल्कुल भी जनता के रक्षकों को शोभा नहीं देता। दिल्ली में इधर-उधर भागते मजदूरों से पता चला कि जो लोग उत्तर प्रदेश पुलिस को पैसे दे रही है उसको उत्तर प्रदेश में आसनी से प्रवेश मिल जाता है। वरना कई किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे बॉर्डर एरिया या ऐसे गलियों से गुजरना पड़ता है जहां पुलिस से बार्डर पर मुलाक़ात नहीं हो सके। एक बार बॉर्डर के अंदर प्रवेश करने पर इस तरह की दिक्कतें पेश नहीं आती। लेकिन जरूरी सवाल यह है कि जब सरकार के पास इतनी बड़ी आबादी पलायन को रोकने के लिए कोई मजबूत प्लान नहीं है तो इनके घर तक पहुंचाने कि वयवस्था सरकारी पर क्यों नहीं किया जा सकता है? कल जामिया के कुछ स्टूडेंट्स जिनको बिहार के अररिया जिला जाना था। उनसे बात करने पर पता चला कि बिहार के लिए कुछ प्राइवेट गाडियाँ उत्तर प्रदेश के बॉर्डर एरिया से चल रहीं हैं, जो कि महारानी बाग़ के आसपास है, अब उनलोगों को शाहीन बाग़ 8 नंबर से पैदल महारानी बाग़ जाना है। तब जाकर बिहार कि गाड़ी मिलेगी। इस बीच कि दूरी 6 किलोमीटर है। जो पैदल सफर करके जाना है। अबतक सोशल मीडिया के जरिए जो खबर आई है उसके अनुसार लगभग 17 लोग पैदल चलने के कारण मौत हो चुकी है। एक तरफ प्रकृतिक आपदा है, तो दूसरी तरफ सरकार की पैदा की गई आपदा, जिसके चलते लाखों का जीवन संकट में फंस गया है। मेनस्ट्रीम मीडिया पल पल गिनती कर रहा है, लेकिन वह सिर्फ कोरोना की गिनती करेगा। प्रधानमंत्री ने इस महामारी और भगदड़ में भी अपने मन की बात की। क्या उन्होंने उन 17 मजदूरों की मौत का जिक्र किया? दूसरी अपुष्ट खबरों के मुताबिक 22 लोगों की मौत हो गई है अबतक। जवाब नहीं में है। क्योंकि इस देश में हर जान की कीमत बराबर नहीं समझी जाती। वे मजदूर हैं। गटर में डूब कर नहीं मरे तो पैदल चलकर मर गए। हम एक जाहिल देश हैं। हम इंसानों की मौत को इंसानों की औकात के हिसाब से देखते हैं, उसके असर और रुसूख़ से देखते हैं, और उसी हिसाब से दुखी होते हैं। दिल्ली दंगों में आईबी अधिकारी अंकित शर्मा पुलिस कॉन्स्टेबल रतनलाल के अलावा 50 हिन्दू-मुस्लिम भारतीय भी मारे गए वो भी सरकार प्रायोजित दंगों के कारण। मैं इसे सरकार प्रायोजित इस लिए कह रहा हूँ कि दिल्ली चुनाव के पूर्व से ही जिस प्रकार प्रकार की भाषा देश के गृह मंत्री उसके संतरी लोग बोल रहे थे। सरकारी गुंडों को सिंगनल यहीं से मिला था। लेकिन उन 50 लोगों को क्या मिला अंदाजा लगाइए सरकार के बही-खातों में हमारी हेसियत क्या है? उन हजारों लोगों को क्या मिला जिनकी लाखों करोड़ो जिंदगी भर की कमाई इस दंगे की भेंट चढ़ गया? क्या इनकी गरिमा के लिये प्रधानमंत्री के “मन की बात में” कोई रिक्त जगह है। एक जाहिल बीजेपी नेता कल कह रहा था कि ये लोग परिवार के साथ छुट्टी मनाने के लिए दिल्ली से भाग रहे हैं।

द हिन्दू अखबार के मुताबिक 20 मार्च को कर्नाटक के मुखमंत्री बिना सोशल डिस्टेन्सिंग के शादी समारोह में शामिल हो रहे थे..

असंगठित कामगरों की ये नियमित समस्या है

बहरहाल असंगठित क्षेत्रों से जुड़े इन कामगारों की समस्या सिर्फ दिल्ली-बिहार और उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के इस समय सभी लगभग राज्यों की समस्या है। असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे कामगारों की समस्या इस लिये भी बड़ी होती हैं क्योंकि इनका कार्यक्षेत्र छोटे-छोटे कल-कारखानों पर निर्भर है। ये ईंट भट्टों पर काम करते हैं। छोटे-छोटे ठेकेदारों के अंदर रहकर ये काम करके अपनी रोजी-रोटी का इंटेजम करते हैं। ये बड़े और मँझले किस्म के ठेकेदारों के अंडर कार्य करते हैं। मँझले और छोटे ठेकेदारों के पास बहुत ज्यादा संसाधन नहीं होता है, बस ये लोग यूपी बिहार झारखंड बंगाल के दूर दराज के गांवों से बड़े शहरों में रोजगार दिलाने के नाम पर कोंटेक्ट पर बुलाते हैं, और छोटे कल कारखानों से लेकर रोड अपार्टमेंट और घरों के कन्स्ट्रकशन के कामों में लग जाते हैं। इनके ठीक से रहने की व्यवस्था नहीं होती है, भारतीय जेलों की तरह एक छोटे से कमरे में 10 लोग होते हैं। मुंबई जैसे शहर में तो सुबह काम पर जाने से पहले टॉइलेट की लंबी लाइन लगते हैं। जुगगी झोपड़ी की हालत को कौन नहीं जनता है। आज भी पटना गांधी मैदान के बगल में डीएम साहब और दूसरे बड़े अधिकारी का आवास है पूरे पटना का सोंदर्यीकरण की प्लानिंग डीएम साहब करते हैं लेकिन उनके आवास के बगल में कई झोपड़ियाँ हैं, उनके बच्चे स्कूल नहीं जाते, कुपोषण के शिकार हैं, अच्छा भोजन नहीं है। इन छोटे-मोटे ठेकेदारों से लेकर इन मजदूरों का कोई रजिशट्रेशन की कोई सुविधा नहीं है। वाम दलों के लोग इनके मसले को आंदोलन के रूप में उठाते रहे हैं, लेकिन फिर भी इस तरफ सरकार ने कभी भी कोई बदलाव इस क्षेत्र के लोगों के नहीं किया है जिससे इनकी सेफ़्टी को मजबूत किया जाय। कई दफा बड़े पंजीकृत ठेकेदार मँझले और छोटे ठेकेदारों के पैसे भी बेईमानि हो जाती है, ये पैसे छोटे-मोटे रूपिये नहीं होता बल्कि कभी-कभी तो महीनों के कमाए रूपिये बैंक चेक और दूसरे गैर जरूरी जो इनको न समझ में आए बोलकर अपने ही कमाए पैसे से महरूम हो जाते हैं।

राष्ट्रीय मार्ग पर भूखे-प्यासे अपने घर जाने के लिए तैयार दिल्ली के अंसगठित क्षेत्र के कामगार

लोग पैदल सफर करके अपने बीवी बच्चों के साथ अपने घर जा रहें हैं। इस वक़्त भी इस भयानक दृश्य को देखकर कुछ लोग सरकार के बजाय इनलोगों पर ही अपनी सरकारी चाटुकारिता की भड़ास निकाल रहे हैं। इतनी बड़ी आबादी को किसी सामाजिक संस्था के बस की बात नहीं है कि ये संस्थाएं अपनी संशाधन का उपयोग करके सभी पीड़ित मजदूरों को उनके घर पहुंचा सकती है। क्योंकि पीड़ितों कि संख्या सेकड़ों हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है। ऐसे में केंद्र सरकार थोड़ा सा एक्टिव होकर दिल्ली सरकार को या उन सभी राज्यों को एक सर्कुलर जारी कहा जाता कि सभी राज्य अपने बसे दिहाड़ी मजदूर, स्कूल कॉलेजों एवं प्राइवेट होस्टल्स में फंसे सभी लोगों को या तो सुरक्षित घर को पहुंचाने का बेहतर साधन दिया जाय या फिर उन्हें पूरी उम्मीद दिलाई जाय कि इन मजदूरों कि जो समस्याएँ हैं उनका समाधान फौरन किया जाएगा। इसलिए इन दिहाड़ी मजदूरों को घबराने की कोई जरूरत नहीं है।

लॉकडाउन में भूख सबसे बड़ी समस्या

यातायात के साधन बन्द होने के अलावा दूसरी सबसे बड़ी समस्या भूख है बिहार का 11 साल का राहुल भूख से मर गया। एक हफ्ते से कुछ नहीं खाया था। नाम था राहुल। उसके गांव का नाम था जवाहर टोला। गांव का नाम गांधी टोला या मोदी टोला होता तो भी क्या फर्क पड़ता। देश तो ऐसा है जहां कोई भी फैसला करने से पहले उनके बारे में नहीं सोचा जाता जो इस देश को बनाते हैं। दिल्ली से भागने वाले लाखों लोगों की तरह राहुल के पिता भी मजदूर ही हैं। लॉकडाउन हुआ तो काम धंधा बंद हो गया।

द हिन्दू अखबार में 13 मार्च को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश स्वास्थ्य आपातकाल नहीं है

स्थानीय काउंसलर ने बताया है कि जब हम उनके घर पहुंचे तो देखा कि घर में अनाज का एक भी दाना नहीं था। प्रशासन ने इस बात से इनकार कर दिया कि बच्चे की मौत भूख से हुई है। वे कह रहे हैं कि हम अभी जांच कर रहे हैं।

जब जांच अभी कर ही रहे हैं तो यह कैसे पता कि भूख से मौत की बात झूठी है। यह दो दशक पुराना खेल है। इसके लिए आपको पी साईनाथ को पढ़ना चाहिए। पूरे देश में जहां भी भूख से मौत होती है तो प्रशासन रट्टू तोता की तरह यही बोलता है कि भूख से मौत नहीं हुई है, हम जांच कर रहे हैं। अपने घर जा रहे पैदल चलने वाले 17 से 22 लोगों की मृत्यु की खबरें आ रही हैं। वे अपनी घरों तक भी नहीं पहुँच पाये। जिन बच्चों के मजदूर बाप उन्हें कांधे पर लादकर महानगरों से पैदल भाग रहे हैं, वे भी भूख के डर से ही भाग रहे हैं। जिस मिट्टी में ये मजदूर पले-बढ़े अपनी जवानियाँ गवाईं जिस एक भारत श्रेष्ठ भारत को मजबूत बनाने के लिये इन्होंने अपने खून-पसीनों को पानी की तरह बहाया। उन्हीं लाखों-करोड़ों भारतियों के लिये सरकार के पास कोई साधन नहीं है। साधन के नाम पर कानून की किताबों में दर्ज कुछ पंक्तियाँ हैं। भोजन का अधिकार, जीने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि आदि उन बेसहारा गरीबों को तो मालूम भी नहीं है कि सरकार ने हमारी सुरक्षा के लिये इतने सुंदर लाइन लिखें हैं।

ओ सरकार! जांच करके क्या करोगे? छोड़ दो। वह तो मर चुका है। अब वापस नहीं आएगा। वह गरीब बाप का बेटा था। उसकी मौत के लिए किसी को सजा भी नहीं होगी। गरीबी अभिशाप है। इस जांच के बाद जब कोई तस्वीर ही नहीं बदलती है तो ऐसे जांच का क्या फाइदा? कल हम में से ही कोई फिर तुम्हारी लठियों डंडे के शिकार होंगे।

देश नौकरसाह की लापरवाही भुगत रहे आम जनता

जिस विश्वास के साथ हम गरीब जनता अपने लिए सरकार को चुनते हैं, आखिर सरकार बनते ही सारे वादे क्यों भूल जाती हैं? प्रकाश जावड़ेकर के फरमाइश पर कॉंग्रेस के जमाने कि बनी रामायण सीरियल देखने को कहा जाता है। केंद्रीय मंत्री अपने फेमिली के साथ लूडो खेलने का फोटो सोशल पर वायरल करते हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सप्ताह भर से गायब हैं, कल एएनआई ने अमित शाह कि फोटो एक मीटिंग कि है बाहर हैं देखने से लग रहे हैं कि इतनी दाबी आपदा उनके लिये कुछ भी नहीं है। उनके लिये तो बस अमानवीय कानून सीएए, एनपीआर और एनआरसी, से है इसके अलावा कुछ नहीं चाहिए। इन्हें बस पाकिस्तान की लाइव बरबादी देखनी है। वहाँ के हिन्दू माइग्रेंट को भारत में बसाने से मतलब है। देश के अंदर ही भारतीय उजड़ जाएँ भूखे-प्यासे मर जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये टेबल ठोक-ठोक कर देश की संसद में सड़क छाप गुंडों मवाली की अकड़ में बात करेंगे। अमित शाह आज क्यों चुप हैं? जिस तरह चुन-चुनकर घुसपैठियों को यानि सीधा इशारा मुसलमानों की तरफ करके मारने की बात करने वाले इन भारतीय हिंदुओं पर ही तरस खा जाओ।

देश के राष्ट्रीय मार्गों पर पैदल चलने पर मजबूर हुये दिहाड़ी मजदूर

केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप लगाने के बजाय अपने कर्तव्यों का पालन करें

देश में इतनी बड़ी मुसीबत आयी है और ब्लेम गेम का घटिया सिलसिला मोदी सरकार ने शुरु कर दिया है। मोदी सरकार अब राज्यों को दोषी बता रही है। कैबिनेट सचिव राजीव गौबा ने राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिख कर पूछ रहे है कि 18 जनवरी से 23 मार्च के बीच जो 15 लाख से ज्यादा यात्री विदेश से भारत आए हैं, वो कहाँ है? राज्य सरकारे उनकी निगरानी नहीं रख पा रही है, क्योंकि जितने लोगों को कोरोना के संदिग्धों की सूची में रखा गया है उनकी संख्या इस 15 लाख की संख्या से मेल नहीं खा रही  है। पत्र में कहा गया है कि यह गंभीर तौर पर कोरोनावायरस के खिलाफ उठाए गए कदमों को प्रभावित कर सकता है।

अरे पहले आप बताइये न? कि, आपने क्या किया? अब राज्यों पर क्यों डाल  रहे है सारी जिम्मेदारी? आप तो बोल रहे थे न कि आपने तो इन यात्रियो की एयरपोर्ट पर जांच की थी। यानी आपने माथे पर एक लेजर लाइट डाली और इन्हे जाने दिया क्योंकि ये लोग वीआईपी  लोग थे?  बड़े बाप की औलाद थे? आपको इन पर शक था तो हर एयरपोर्ट के बाहर सेकड़ो एकड़ खाली जमीन होती है वहां पर अस्थाई अस्पताल बनवा कर इन विदेश से लौटे लोगो को क्वारंटाइन क्यों नहीं किया गया?  प्रॉपर टेस्ट क्यों नहीं किया गया? टेस्ट करते और इन्हे छोड़ देते!

आज इन 15 लाख लोगो के पीछे पूरा देश महीने भर का लॉकडाउन झेल रहा है? पूरी इकनॉमी बर्बाद हो गयी है।

देश में कुल 26 इंटरनेशनल एयरपोर्ट है जिसमे से मात्र दिल्ली मुंबई बंगलौर कलकत्ता हैदराबाद अहमदाबाद कोचीन चेन्नई जैसे एयरपोर्ट पर ही ज्यादा ट्रेफिक रहता है, इनके टर्मिनल भी अलग बने हुए है, इन एयरपोर्ट पर तीन दिन तक इन्हे रोकते, टेस्ट करते पूरी सुविधाए भी देते लेकिन इन्हे बाहर निकलने नहीं देते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता।

जब कुम्भ का मेला होता है तो टेन्टेज में सर्वसुविधायुक्त अस्पताल मेला परिसर में बनाए जाते है कि नहीं? वैसे ही अस्पताल बनवा कर आप इन लोगो को वही रोक सकते थे! एयरपोर्ट अथॉरिटी तो केंद्र के अंतर्गत ही आती है न? क्या यह जिम्मेदारी केंद्र की मोदी सरकार की नहीं थी। अब जाकर आपको को होश आया है और इतने दिन बाद आप राज्य सरकार को चिठ्ठी लिख रहे हो?

अब आप राज्य सरकारों से उम्मीद कर रहे हो कि भूसे के ढेर में से सूईयां ढूढ़ ढूढ़ कर निकाले, ये लोग भी इतने नालायक है कि गलत पते बताकर अपने दोस्त रिश्तेदारों के यहां छुपकर बैठ गए है। जैसे भी हो इन लोगो को अब आप  ढूंढ लीजिए आपने महामारी अधिनियम लागू किया है आपदा नियंत्रण कानून लागू किया है अब यह आपकी जिम्मेदारी है।

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