लॉकडाउन की वजह से घरों कौ लौट रहे 16 मज़दूर मालगाड़ी से कटकर मर गए. या यूं कह लीजिए कि असंवेदनशील सरकार, समाज ने इन मजदूरों के ख़ून से अपने हाथ रंग लिए। अचानक लॉकाडाउन की घोषणा करने से अव्यवस्था तो होनी ही थी, वह भी उस देश में जिसकी एक बड़ी आबादी रोज़ी रोटी के लिये दूसरे शहरों, राज्यों में जाकर मेहनत मजदूरी करके पेट पालती हो। लॉकडाउन के दो दिन के अंदर ही दिल्ली में हज़ारों मजदूर अपने घरों को लौटने के लिये बस स्टैंड पर जमा हुए, कुछ अपने घरों को जाने में सफल हुए, कुछ को पुलिस ने लाठियां के दम पर वापस भेज दिया। उसी दौरान कोराना का तब्लीग़ी कनेक्शन तलाश कर लिया। उसी पर बहस चलती रही, अब मुद्दा मजदूर नहीं बल्कि जमात हो गया। कोरोना को एक समुदाय विशेष से जोड़ने के भरसक प्रयास किये जाने लगे। लेकिन मजदूरों की किसी ने कोई सुध नहीं ली।
लॉकडाउन को लगभग डेढ़ महीना गुजर चुका है, इसके बावजूद हाईवे, रेलवे लाईनों पर मजदूरों की आवाजाही बदस्तूर जारी है। लोग पैदल ही अपने घरों को लौट रहे हैं। चालीस के क़रीब लोग तो हाईवे पर गाड़ियों से कुचले जाने, या बीमार होने की वजह से दम तोड़ चुके हैं। फिर आज ओरंगाबाद हादसे ने इस संख्या में मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख दिया है। सवाल है कि क्या सरकार पर इन मानवीय संवेदनाओं का फर्क पड़ता है? शायद नहीं… अगर फर्क पड़ता तो पहले दिन से ही अलग अलग राज्यों में फंसे मजदूरों को उनके घरों को भेजने के लिये व्यवस्था की जाती। लेकिन सरकार के समर्थक, मीडिया और संगठनों की सारी कोशिशें कोरोना के बहाने एक समुदाय विशेष का समाजिक बहिष्कार करने में लगाईं।
मज़बूत लोकतंत्र के लिये मज़बूत मीडिया की ज़रूरत होती है, ताकि सरकार की मनमानी से जनता को अवगत कराया जा सके, लेकिन जब मीडिया सरकार की तरफ से विपक्ष पर हमलावर हो जाए, तो लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने से कोई नहीं रोक सकता। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां का मीडिया किसान विरोधी, ग़रीब विरोधी, मजदूर विरोधी, सद्धभाव विरोधी बन चुका है। आज मध्यप्रदेश के मजदूरों की मौत पर कई ‘बड़े’ एंकर्स के ट्वीट देखने को मिले, सब वही घिसे पिटे अंदाज़ में संवेदनाएं व्यक्त करके घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। क्या मजदूरो की मौत की ज़िम्मेदार सिर्फ सरकार है? नहीं….मीडिया के वे तमाम चेहरे इन लोगों की मौत के ज़िम्मेदार हैं जो जन सरोकार के मुद्दों को उठाने के बजाय सांप्रदायिकता फैलाने में लगे रहते हैं।
टीवी पर चिल्लाने वाला एंकर सारी ऊर्जा में लगा रहा है किसी तरह उसकी ‘नौकरी’ बची रहे, किसी तरह उस पर सरकार ‘मेहरबान’ हो जाए। ऐसे में जनता की कौन सुनेगा? ग़रीबीं, मजदूरों, किसानों के मुद्दे कौन उठाएगा? सरकार उन पर तवज्ज़ो क्यों देगी? सैंकड़ों, हज़ारों किलो मीटर की दूरी पैदल ही तय करने वाले ग़रीब मजदूरों को आज पत्रकार की जरूरत है जो उनकी समस्या देश को दिखाए। लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार पर पहुंचे ग़रीब को पत्रकार की ज़रूरत है जो उसकी समस्या सरकार को बताए। ताकि सरकार उसका समाधान करे. बेरोजगारों को पत्रकार की जरूरत है ताकि सरकार उनके लिये वैकेंसी निकाले.
लेकिन भारतीय राजनीति के मोदीकाल में ‘पत्रकारों’ की जरूरतें इन सब मुद्दों से पूरी नहीं होतीं। उनकी जरूरतें हिंदू मुस्लिम करके सांप्रदायिकता फैलाने से पूरी होती हैं, मंदिर मस्जिद के मुद्दे उठाने से पूरी होती हैं. आज़ाद भारत के बीते 70 सालों को बुरा भला कहने से पूरी होती हैं, नेहरू, गांधी परिवार को ‘मुसलमान’ साबित करने से पूरी होती हैं। मैंने पहले भी लिखा था अब फिर से लिख रहा हूं, यह देश एक समुदाय विशेष से नफरत करने की बहुत भारी क़ीमत चुका रहा है।