रफ़ी अहमद किदवई: आज़ादी आंदोलन के सहभागी

संचार मंत्रालय में आपके निर्देशन में” अपने टेलीफ़ोन के मालिक बनें” देसी योजना बनाई गई जिसमें कोई भी व्यक्ति दो हज़ार रुपये नज़दीकी डाकघर में जमा करके अगले बीस सालों के लिए टेलीफ़ोन प्राप्त कर सकता था। इस योजना की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि डाकघरों में लाइनें लग गईं और सरकार के पास इतनी धनराशि आ गई कि वह बंगलोर में टेलीफ़ोन उद्योग से जुड़े सामान के निर्माण के लिए कारख़ाना बनवा पाई..

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18 फ़रवरी 1894, आज से तक़रीबन सवा सौ साल पहले उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में मसौली गाँव में एक मध्यमवर्गीय ज़मींदार परिवार में एक बालक पैदा होता है जिसका नाम घर वाले अहमद रखते हैं। ख़ानदान किदवईयों का था जिनका उद्गम किदवातुल उलेमा वालुद्दीन अर्थात उलेमाओं के नेता क़ाज़ी मोईजुद्दीन से हुआ था। क़ाज़ी साहब किदवा के नाम से प्रसिद्ध थे इसलिए इनके परिवार वालों को ही कालांतर में किदवई कहा जाने लगा। इस वंश में तक़रीबन ७५० वर्ष मस्तान शाह हुए जिनके नाम पर गाँव का नाम मसौली पड़ा, तो इसी मसौली में जन्म होता है अहमद का जो आगे चलकर रफ़ी अहमद किदवई के नाम से विश्वविख्यात हुए।

रफ़ी साहब का परिवार उच्च कोटि के विद्वानों एवं संत प्रवृत्ति के लोगों से भरा हुआ था। रफ़ी साहब के दादा श्री घर्रा मियाँ अवध के नवाबों के समय में ज़िला दरियाबाद के ज़मींदार हुआ करते थे। घर्रा मियाँ अंग्रेज़ों से लड़ते वक़्त शहीद हुए थे। घर्रा मियाँ के बेटे इम्तियाज़ अली जो आपके वालिद थे वो अपनी सच्चाई एवं भलमनसाहत के लिए पूरे बाराबंकी जिले के चहेते थे।

रफ़ी साहब की प्रारंभिक शिक्षा बाराबंकी में ही हुई और मैट्रिक के बाद आपने अलीगढ़ के एम ए ओ कॉलेज में दाख़िला लिया।

घर परिवार में राजनैतिक सक्रियता पहले से थी परंतु आपके जीवन में राजनीति की तरफ सक्रिय झुकाव अलीगढ़ आने के बाद शुरु हुआ। साल १९१६ का वक़्त था भारत में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई छिड़ चुकी थी कुछ ही समय उपरांत हर स्कूल कॉलेज में महात्मा गांधी एवं उनके अनूठे प्रयोग चर्चा का विषय थे। तमाम विद्यार्थी गांधी जी के प्रभाव के चलते अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़कर आंदोलन में शामिल हो चुके थे और अलीगढ़ में भी माहौल इससे जुदा ना था।

इसी साल के दिसंबर में जब रफ़ी साहब छुट्टियाँ बिताने घर आए तो पता चला लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला है। लखनऊ का ये अधिवेशन बहुत लोगों की ज़िंदगियों को पूरी तरह से बदलने वाला रहा। यह अधिवेशन कांग्रेस पार्टी की, समूचे देश की एवं स्वयं रफ़ी साहब की ज़िंदगी की ऐतिहासिक घटना बना।

यहीं पर आप पहली बार श्रीमती एनी बेसेंट, लोकमान्य तिलक, मोतीलाल नेहरु, महामना मालवीय, जिन्ना एवं राजा महमूदाबाद जैसे बड़े नेताओं से पहली बार मिलते हैं। इसी सम्मेलन के उपरांत आपका सफर कांग्रेस पार्टी के साथ शुरु होता है और यहीं से ही रफ़ी मियाँ अंग्रेज़ों की नज़रों में भी आ जाते हैं जिसके ईनाम स्वरूप आपको उपद्रवी और राजद्रोही होने के तमग़े मिलते हैं।

१९२२ में असहयोग आंदोलन की वजह से जब तमाम बड़े नेता पूरे देश में गिरफ़्तार किए जाते हैं तब आपको भी लखनऊ जेल में बंद कर दिया जाता है जहाँ मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल, महादेव देसाई, पंडित सुंदर लाल इत्यादि पहले से ही बंद होते हैं।मोतीलाल जी का आप पर विशेष स्नेह यहीं से होता है जिसके परिणाम स्वरूप आप आजीवन नेहरु परिवार के सदस्य के तौर पर शामिल हो जाते हैं।

मोतीलाल जी कांग्रेस में समझौतावादी लोगों का मुक़ाबला करने के लिए स्वराज पार्टी का गठन करते हैं, स्वराज पार्टी का पूरा काम आप ही संभालते हैं और इसी दौरान आपकी संगठन क्षमता से सभी लोग वाक़िफ़ होते हैं।१९२५ में रफ़ी साहब को कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में स्वागत समिति का सचिव बनाया जाता है और बाद में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव का पद सर्वसम्मति से मिलता है जिस पर तक़रीबन नौ साल आप बने रहते हैं।

असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद ही दोनों ही धर्मों की सांप्रदायिक ताक़तें मज़बूत होने लगती हैं। रफ़ी साहब गांधी जी के नेतृत्व में कट्टरता और बढ़ती सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ मजबूरी से खड़े होते हैं।

आप ताउम्र सक्रिय रहे।भारतीय स्वाधीनता संग्राम के हर आंदोलन, हर घटना के आप अहम किरदारों में से एक हैं। उत्तर प्रदेश सरकार में एवं स्वतंत्रता बाद भारत सरकार में कई अहम महकमें आपने संभाले। रफ़ी साहब के किरदार का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके साथियों को आपके विरोधी रफ़ियन कहकर बुलाते थे।

देश के विभाजन की पीड़ा, सांप्रदायिकता की आग हर चीज़ को रफ़ी साहब ने बेहद नज़दीक से देखा था। सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ रफ़ी मियाँ पूरी उम्र चट्टान की तरह खड़े रहे और अपने लोगों को खड़े रहना भी सिखाते रहे। यहाँ तक कि अक्टूबर १९४७ में मसूरी में आपके भाई शफ़ी मियाँ का कट्टरपंथी लोगों ने क़त्ल कर दिया। इस दर्द को रफ़ी साहब ज़िंदगी भर अकेले झेलते रहे लेकिन सांप्रदायिक शक्तियों के सामने उतने ही कठोर बने रहे।

केंद्रीय संचार मंत्री के तौर पर आपने अपनी मेहनत से तमाम शानदार काम किये जिनमें पहला काम कलकत्ता, मद्रास, बंबई, दिल्ली, नागपुर जैसे बड़े शहरों को जोड़ते हुए एअर मेल सर्विस की शुरुआत रही जो रात में भी काम करने में सक्षम थी। नाइट मेल सर्विस के बाद आपके नेतृत्व में ऑल-अप एअर मेल की शुरुआत हुई।

डाक विभाग में तो आपने क्रांतिकारी बदलावों की नींव डाल दी मसलन हर दो हज़ार की आबादी वाले के गाँवों में डाकघर होना। डाक कर्मचारियों को रविवार के दिन छुट्टी की व्यवस्था। कर्मचारियों के कल्याण के लिए तमाम योजनाएँ बनाना।

संचार मंत्रालय में आपके निर्देशन में” अपने टेलीफ़ोन के मालिक बनें” देसी योजना बनाई गई जिसमें कोई भी व्यक्ति दो हज़ार रुपये नज़दीकी डाकघर में जमा करके अगले बीस सालों के लिए टेलीफ़ोन प्राप्त कर सकता था। इस योजना की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि डाकघरों में लाइनें लग गईं और सरकार के पास इतनी धनराशि आ गई कि वह बंगलोर में टेलीफ़ोन उद्योग से जुड़े सामान के निर्माण के लिए कारख़ाना बनवा पाई।

रफ़ी साहब के नेतृत्व का ही कमाल था कि पहली पंचवर्षीय योजना के बाद ही भारत सरकार दूरसंचार के उपकरणों के निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि रफ़ी साहब ने ही “मैसेज रेट सिस्टम” शुरु करवाया था मतलब प्रत्येक कॉल की दर प्रणाली। हर बड़े शहर और यहाँ तक कश्मीर में भी ट्रांसमीटर लगवाए गए जिससे टेलीफ़ोन और अन्य संचार संपर्क स्थापित किए गए।

आपने किसानों की मदद के लिए आकाशवाणी केद् द्वारा मौसम की सटीक जानकारी मुहैय्या कराना एवं अंतर्देशीय पत्रों की शुरुआत जैसे जनकल्याणरारी काम किए।

इस सबके बाद भी कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान से दुखी होकर आपने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया। बाद में १९५२ में नेहरू जी के विशेष आग्रह पर आप वापस कांग्रेस में शामिल हुए और इस बार देश के खाद्य मंत्रालय को संभालने जैसा चुनौतीपूर्ण काम आपको मिलता है।

केंद्रीय खाद्यमंत्री के तौर पर आपने खाद्य पदार्थों की क़ीमतों को कम करना, भंडारण की व्यवस्था को दुरुस्त करना, किसानों को बीज, उर्वरक आसानी से उपलब्ध करवाने जैसे काम किए। खाद्य मंत्रालय के बारे में यह आम धारणा थी कि इस महकमे को सुधारा नहीं जा सकता लेकिन रफ़ी साहब ने वहाँ अपनी मेहनत से असंभव को संभव बना दिया। यहीं से हर कोई आपकी प्रतिभा और मेहनत का लोहा मानने लगा। लोग आपको चमत्कारी कहने लगे।

रफ़ी साहब का स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा इसके बावजूद आपकी सक्रियता में कोई कमी नहीं आई। एक रोज दिल्ली में ही सुभद्रा जोशी के एक कार्यक्रम में जब रफ़ी साहब मंच पर बोलने के लिए खड़े हुए और जैसे ही बोलना शुरु किए तो वहीं गश खाकर गिर गए। देश ने अपना चमत्कारी नेता खो दिया था। लाल बहादुर शास्त्री की अगुवाई में आपकी शव यात्रा ट्रेन से बाराबंकी लाई गई। पंडित जी तब चीन की यात्रा पर थे ये समाचार उन पर बिजली की तरह गिरा। लौटते ही पंडित जी मसौली आए और आपकी आरामगाह के पास बहुत देर खड़े रहे। पंडित जी और आपका रिश्ता पहले से ही बेहद आत्मीय था।

रफ़ी साहब चले गए लेकिन हम लोगों के लिए प्रेरणा बनकर आज भी हैं और मानों कह रहें हैं कि थको मत, रुको मत, शिकायतें मत करो, लगातार चलो, संघर्ष करो।

रफ़ी साहब को प्रणाम।

रफ़ी साहब की जन्मतिथि पर एक मामूली Pawan Yadav“रफियन” का स्मृति लेख।

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