भारत में जन-आन्दोलन: कल और आज!

आज़ादी के बाद देश में पहला देशव्यापी आन्दोलन एमरजेंसी के विरुद्ध उठा। इन्दिरा गांधी ने जब संविधान को निरस्त करके अपने सारे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को जेल में ठूंस दिया जो इस दमनकारी नीति के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण ने ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा लगाकर जन-आन्दोलन आरम्भ किया।

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डाॅ॰ सलीम ख़ान
प्राचीन भारत में सनातन धर्म के विरुध गौतम बुद्ध और महावीर के दो बड़े आन्दोलनों का पता चलता है। ये दोनों अपने समय में बहुत अधिक सफल रहे और इन धर्मों ने वर्णाश्रम के आधार पर स्थापित समाज की चूलें हिला दीं। लेकिन समय के साथ इनको कुचल दिया गया या निगल लिया गया। बौद्ध धर्म के अनुयायियों को मार-पीटकर उनको निष्कासित कर दिया गया। यही कारण है कि भारत की धरती पर जन्म लेनेवाले बौद्ध धर्म को अन्य देशों में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा और आज भी उसके अनुयायी भारत से अधिक श्रीलंका, बर्मा, चीन और जापान में पाए जाते हैं। जैन मत को सांस्कृतिक दृष्टि से निगल लिया गया और यहां तक कि उसका अलग पहचान पूरी तरह समाप्त हो गयी। कुछ विशेष रीति-रिवाज के साथ वह व्यवहारिक रूप से हिन्दू धर्म का अंग बन चुका है। यही कारण है कि हिन्दू मोदी और जैन अमित शाह के बीच कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। हालांकि मुख़्तार अब्बास नक़वी को अब भी दोनों से अलग समझा जाता है। भारत के इतिहास में मुस्लिम शासकों के विरुद्ध किसी बग़ावत या जन-आन्दोलन का उल्लेख नहीं मिलता। जहां तक युद्धों का सम्बन्ध है, वह राजनैतिक प्रकार का संघर्ष था जो मुस्लिम बादशाहों के बीच और हिन्दू राजाओं के बीच भी होता रहता था। उसका उद्देश्य अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार होता था। युद्धक्षेत्र में हिन्दू और मुसलमान शासक कभी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ तो कभी एक साथ दिखाई देते थे। उदाहरणार्थ पृथ्वीराज चैहान का इबराहीम लोधी के विरुद्ध ज़हरुद्दीन बाबर को हमले के लिए आह्वान। इस युद्ध में इबराहीम लोधी के विरुद्ध युद्धरत बाबर को पृथ्वीराज चैहान का समर्थन प्राप्त था। विभिन्न सेनाओं और उनके सेनापतियों के बीच लड़े जानेवाले इस युद्ध में न तो धर्म से कोई संबंध था और न ही जनता उसे महत्व दे रही थी। हिन्दू राजाओं की सेना में मुसलमान सैनिक और मुसलमानों की सेना में हिन्दू रंगरूट नौकरी के लिए भर्ती हो जाते थे। आगे चलकर वे पेशावर सैनिक अंग्रेज़ों की सेना में भी सम्मिलित हो गये।
भारत के आधुनिक इतिहास में अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता का जो भारी आन्दोलन उठा उसमें एक साझे दुश्मन के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम एकजुट हो गये। इससे पता चलता है कि साझा दुश्मन हिन्दू-मुस्लिम एकता की ज़रूरत है और संघ परिवार फ़िलहाल इस ज़़रूरत को पूरा कर रहा है। आज़ादी का पहला संग्राम बाहदुर शाह ज़फ़र के नेतृत्व में लड़ा गया, जिसमें झांसी की रानी जैसे कई हिन्दू शासकों ने भाग लिया था। नवाबों और राजाओं के नेतृत्व में जनता की भागीदारी से लड़े जानेवाले युद्ध को अर्द्ध जन-आन्दोलन कहा जा सकता है। इस असफल अभियान के बाद दिल्ली के शासक बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेजकर अंगे्रज़ों ने पूरे देश पर अपना एकाधिकार क़ायम कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने इस संघर्ष को ‘ग़दर’ का नाम दिया, मगर वास्तव में यह विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध पहला स्वतंत्रता आन्दोलन था। अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र आन्दोलनों का भी उल्लेख इतिहास में मिलता है। उदाहरणार्थ दीनी रहनुमाओं (धार्मिक नेताओं) के द्वारा चलाया जानेवाला आन्दोलन ‘रेशमी रूमाल’ या सुभाष चन्द्र बोस की ‘आज़ाद हिन्द’ फ़ौज जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल थे। अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध स्वतंत्रता का दूसरा प्रयास गांधी जी के नेतृत्व में किया गया। इस जन-आन्दोलन को मौलाना मुहम्मद अली जौहर के नेतृत्व में चलनेवाले ‘ख़िलाफ़त’ आन्दोलन का समर्थन प्राप्त था। गांधी जी के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में विभिन्न विचारधाराएं रखनेवाले लोग शामिल हो गये थे, जैसे कि इसमें एक ओर मदनमोहन मालवीय थे तो उनके कंधे से कंधा मिलाए मौलाना आज़ाद भी मौजूद थे। बाल गंगाधर तिलक के साथ मुहम्मद अली जिन्नाह थे। हिन्दू और मुसलमान अवाम इस आन्दोलन को आगे बढ़ा रहे थे।विनायक दामोदर सावरकर ने हिन्दू महासभा बनाकर अलग सी कोशिश की, लेकिन कालापानी से तौबा करके लौटने के बाद वे अंग्रेज़ों के वफ़ादार बन गये। मुहम्मद अली जिन्नाह ने कांगे्रस से अलग होकर मुस्लिम लीग बनाई और पाकिस्तान बनाने में सफल हो गये। यही कारण है कि क़ायदे-आज़म के मज़ार पर सिन्ध के रहनेवाले लाल कृष्ण आडवाणी ने उन्हें ऐतिहासिक व्यक्तित्व कहकर श्रद्धांजलि प्रस्तुत की।
आज़ादी के बाद देश में पहला देशव्यापी आन्दोलन एमरजेंसी के विरुद्ध उठा। इन्दिरा गांधी ने जब संविधान को निरस्त करके अपने सारे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को जेल में ठूंस दिया जो इस दमनकारी नीति के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण ने ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा लगाकर जन-आन्दोलन आरम्भ किया। इस अवसर पर उत्तर भारत की सारी बड़ी राजनैतिक पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी क़ायम की और इन्दिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंका। धर्म एवं सम्प्रदाय का भेद किये बिना जनता ने बढ़-चढ़कर इस आन्दोलन में भाग लिया, परन्तु आगे चलकर जनसंघियों ने इससे अलग होकर भारतीय जनता पार्टी बनाई। इस प्रकार इन्दिरा गांधी को पुनः सत्ता में आने का अवसर मिल गया।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी पार्टी से बग़ावत कर बोफ़ोर्स के भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में दूसरा जन-आन्दोलन चलाया। इसके बल-बूते पर वे राजीव गांधी की भारी बहुमतवाली सरकार को गिराने में सफल हो गये। वी॰पी॰ सिंह की मुसलमानों पर निर्भरता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके दौर में देश को मुफ़्ती सईद के रूप में पहला गृहमंत्री मिला। हालांकि पंडित जवाहर लाल नेहरू के ज़माने में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे महान व्यक्तित्व को भी शिक्षा मंत्री के पद पर संतोष करना पड़ा था। अपनी सत्ता को मज़बूत करने के लिए जब वी॰पी॰ सिंह ने मंडल कार्ड खेला तो भाजपा की हवा उखड़ गयी। भगवाधारियों के लिए मंडल का विरोध और समर्थन दोनों आत्महत्या के समान थे। इसलिए राम मन्दिर का मुद्दा उछालकर लाल कृष्ण आडवाणी को कमंडल के साथ जन-आन्दोलन चलाने पर विवश होना पड़ा। परन्तु वे जनता दल का विकल्प बनने में विफल रहे। वी॰पी॰ सिंह के बाद कांग्रेस के नरसिंह राव और उनके बाद फिर देवेगौड़ा सरकार बनी। जनता दल की सत्ता की समाप्ति आपसी लड़ाई के कारण हुई और पहली बार भाजपा को सत्ता में आने का अवसर मिला। अटल बिहारी वाजपेयी किसी जन-आन्दोलन के परिणामस्वरूप नहीं, बल्कि सरकार के विरुद्ध जन-आक्रोश के कारण प्रधानमंत्री बने थे। अटल जी के टल जाने पर कांगे्रस ने पुनः सत्ता में आकर दस वर्षों तक राज किया और फिर भाजपा को मोदी जी के नेतृत्व में पुनः सरकार बनाने का अवसर मिल गया। नरेन्द्र मोदी की पहली सफलता एक तो सरकार से उक्ताहट, दूसरी राजनैतिक तिकड़मबाज़ी का कमाल था, इसके पीछे कोई जन-आन्दोलन कार्यरत नहीं था। मोदी जी ने अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए पहली अवधि के अन्त में अघोषित एमरजेंसी लगा दी, लेकिन उसके प्रभाव महसूस नहीं किये जा सके। लेकिन दूसरी अवधि के आरम्भ ही में अर्थव्यवस्था की दुर्दशा बस से बाहर हो गयी। इस असफलता पर परदा डालने के लिए उन्हें अपने आग उगलनेवाले गृहमंत्री की सहायता से धड़ाधड़ क़ानून बनाने की आंधी लाने पर मजबूर होना पड़ा। कश्मीर में धारा-370 की समाप्ति जनता के भावनात्मक शोषण का एक भाग था, लेकिन चूंकि इसका विरोध करनेवालों को पाकिस्तान से जोड़कर देश विरोधी ठहरा देना बहुत आसान था इसलिए राजनैतिक पार्टियों के लिए इसका विरोध करना दुष्कर हो गया। जनता ने भी कोई बड़ा आन्दोलन नहीं चलाया और उसका विरोध प्रदर्शन घाटी के अन्दर मानवाधिकारों के हनन तक सीमित होकर रह गया। बाबरी मस्जिद का फ़ैसला चूंकि सरकार ने कोई क़ानून बनाकर नहीं किया था, बल्कि अदालत से करवाया था, इसलिए सरकार को प्रत्यक्ष रूप से इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराना सम्भव न था, साथ ही मोदी सरकार से इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ क़ानून बनाने की बिलकुल उम्मीद नहीं थी, इसलिए जनता ने उसे भी अनमने पन से सहन कर लिया। मगर सी॰ए॰ए॰, एन॰आर॰सी॰ और एन॰पी॰आर॰ के आते-आते धैर्य जवाब दे गया। देश के बुद्धिजीवी, किसान, बेरोज़गार इस सरकारी चाल को समझ गये। जामिआ और जे॰एन॰यू॰ में की गयी आतंकवादी कार्यवाई के बाद बिल्ली थैले से बाहर आ गयी और देश में चारों ओर इस काले क़ानून के ख़िलाफ़ एक जन-आन्दोलन चल पड़ा।
यह मात्र संयोग ही है कि पिछले जन-आन्दोलनों की तरह इसमें भी हिन्दू-मुसलमान एक जुट हैं। एक ओर जहां हिन्दू बुद्धिजीवी आगे बढ़कर इन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी ओर आम मुसलमान उत्साहपूर्वक मैदान में उतरकर उनका साथ दे रहे हैं। आर॰एस॰एस॰ एक वैचारिक संगठन है और उसका मुक़ाबला विचारधारा के बिना सम्भव नहीं है। वर्तमान विरोध प्रदर्शन का जहां एक व्यावहारिक पहलू है वहीं उसकी ठोस वैचारिक बुनियादें भी हैं जिसको गांधी जी के परपोते तुषार गांधी ने बहुत सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। तुषार गांधी के अनुसार इस क़ानून का बीज संविधान विरोधी विचारधारा में है। उन्होंने सरकारी समारोहों की आलोचना करते हुए कहा कि ये लोग गांधी के नाम का दुरुपयोग कर रहे हैं। गांधी की हत्या करने के बाद उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना बहुत आसान है, लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि विभाजन के बाद गांधी जी ने कहा था कि पाकिस्तान से हर प्रताड़ित भारत आ सकता है चाहे वह मुसलमान ही क्यों न हो। भाजपा ने बड़ी चालाकी से चुने हुए शब्द प्रयोग कर देश को बांटने का प्रयास किया है, इसलिए यह देश को बांटने वाला स्वतंत्र भारत का सबसे ख़तरनाक क़ानून है। अपनी विचारधारा के पक्ष में तुषार गांधी ने यह तर्क दिया कि देश किसी भूभाग का नाम नहीं है। एकता, कर्मण्यता और न्याय देश एवं राष्ट्र के रचनातत्व हैं, परन्तु इस सरकार से इन तीनों को ख़तरा है। इस क़ानून के बाद वतन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस क़ानून से कोई एक भी वर्ग सन्तुष्ट नहीं है, इसलिए भारी संख्या में जनता इसका विरोध कर रही है। तुषार गांधी ने गांधी जी की मातृभूमि की परिकल्पना को बचाने और गंगा-जमुनी संस्कृति की रक्षा के लिए युवाओं से सी॰ए॰ए॰ विरोधी आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने का निवेदन किया। हिन्दू समाज के निष्ठावान बुद्धिजीवियों के ये प्रयास व्यर्थ नहीं जाएंगे और यह आशा की जा रही है समय के साथ हिन्दू जनता भी इस आन्दोलन में भाग लेगी। एन॰आर॰सी॰ के विरुद्ध शाहीन बाग़ के प्रदर्शन से प्रेरणा पाकर देश के अन्य भागों में भी महिलाएं विरोध प्रदर्शन करने लगी हैं। योगेन्द्र यादव ने शाहीन बाग़ में महिलाओं के इस अद्वितीय आन्दोलन को पूरे देश के लिए एक उदाहरण बताने के बाद यह सम्भावना प्रकट की थी कि जल्द ही अन्य महिलाएं भी मुसलमानों का अनुसरण करते हुए देश भर मंे संविधान की रक्षा के लिए अपने सुख-आराम को छोड़कर धरना देंगी। अतः शाहीन बाग़ में सिख महिलाओं की भागीदारी इस सम्भावना का समर्थन करती है। इस प्रकार संवैधानिक अधिकारों की बहाली के लिए एक बहुआयामी आन्दोलन का आरम्भ हो चुका है। इस पहल ने भाजपा का सुख-चैन समाप्त कर दिया है। गृहमंत्री आए दिन अजीत डोभाल के साथ बैठकर दिन प्रति दिन जटिल होती परिस्थितियों पर विचार तो करते हैं, परन्तु उनको कोई समाधान सुझाई नहीं देता।
आम तौर पर जन-आक्रोश का लाभ उठाने के लिए राजनैतिक पार्टियां तुरन्त मैदान में आ जाती हैं, इसलिए विरोध प्रदर्शन की कमान उनके हाथ में चली जाती है। यह भी मात्र संयोग है कि इस बार वे चूक गयीं और जनता उनके बिना आगे बढ़ गयी। राजनीति अब एक लाभदायक व्यवसाय बन चुकी है, जिसमें लोग रातों-रात आर्थिक शिखर पर पहुंच जाते हैं। राजनेताओं के अन्दर करोड़पति भोगविलास के दीवानों की एक भारी संख्या है जिनके अनगिनत हित सरकार के दरबार से जुड़े हैं। इसके बाद ही देश एवं राष्ट्र कल्याण का नम्बर आता है, बल्कि अकसर तो आता ही नहीं। इसके विपरीत सरकार दरबार के बजाय अपनी मेहनत पर निर्भर रहनेवाला आम आदमी बिना डर एवं आशंका के कर्मभूमि में उतरकर अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध झण्डा उठा लेता है। देश के चप्पे-चप्पे में एन॰आर॰सी॰ के विरुद्ध होनेवाला यह विरोध प्रदर्शन इसी वास्तविकता परिचायक है। यह सिलसिला अब रुकने के बजाय फैलता चला जा रहा है।
सी॰ए॰ए॰ और एन॰आर॰सी॰ से सम्बन्धित शुरू में राजनैतिक पार्टियों को आशंका थी कि अगर वे प्रत्यक्ष रूप से विरोध करेंगे तो जनता उनका साथ नहीं देगी, साथ ही भाजपा उनके विरोध को साम्प्रदायिक रंग देकर राजनैतिक लाभ उठा लेगी, लेकिन अब उन्हें जनता के स्वभाव का अन्दाज़ा हो गया है और वे भी छाती ठोक कर मैदान में उतरने लगी हैं। इसका सबसे स्पष्ट उदारण हैदराबाद का पहला ऐतिहासिक प्रदर्शन है। राज्य सरकार के हतोत्साहन के बावजूद जब बिना किसी राजनैतिक संरक्षण के मार्च को असाधारण सफलता मिल गयी तो मजबूरन एम॰आई॰एम॰ को भी अपनी साख बचाने के लिए विरोध प्रदर्शन करना पड़ा। जनता का उत्साह इतना अधिक था कि उसने एम॰आई॰एम॰ की तिरंगा रैली को भी सफल बना दिया। एन॰आर॰सी॰ और सी॰ए॰ए॰ के द्वारा भाजपा पश्चिम बंगाल के हिन्दू मतदाताओं का दिल जीतकर तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकना चाहती थी, इसलिए इन क़ानूनों का विरोध करना ममता बनर्जी की मजबूरी बन गया था। ममता की पहल के बाद हवा का रुख़ देखकर क्षेत्रीय पार्टियां भी सावधानीपूर्वक आगे बढ़ने लगी हैं।
यह चूंकि किसी एक धर्म या समाज का मामला नहीं है, इसलिए सभी भारतवासियों को एकजुट होकर सड़कों पर आना होगा। इसमें किसी विशेष पार्टी का परचम लहराने के बजाय तिरंगा लहराया जाए और सारे भाग लेनेवाले ‘हम भारत के लोग’ का नारा बुलन्द करें। जन जागरूकता के प्रभाव अब राष्ट्रीय स्तर पर भी महसूस किये जा रहे हैं। दिल्ली मंे राहुल गांधी ने इसको रोज़गार और आर्थिक मंदी से जोड़कर सरकार की विफलता के ख़िलाफ़ युवाओं, छात्रों और किसानों के दिन प्रति दिन बढ़ते आक्रोश की ओर से ध्यान हटाने के लिए देश को बांटने वाला बताया है। मोदी जी के लिए राहुल गांधी या शरद पवार जैसे राजनैतिक लोगों से निबटना किसी हद तक आसान है, परन्तु अस्ल ख़तरा जन-आन्दोलनों से है। जयप्रकाश नारायण के पदचिन्हों पर यशवंत सिन्हा ने मुम्बई के गेटवे आॅफ़ इंडिया से गांधी शांति यात्रा शुरू करके एमरजेंसी के ख़िलाफ़ चलनेवाले आन्दोलन की याद ताज़ा कर दी है। इस यात्रा को हरी झण्डी दिखान के लिए शरद पवार और प्रकाश अम्बेडकर मौजूद थे। मुम्बई से शुरू होनेवाली यह यात्रा 6 राज्यों से गुज़रकर 30 मार्च को तीन हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करके दिल्ली में गांधी समाधि पर समाप्त होगी। यशवंत सिन्हा के इस एलान ने मोदी सरकार की नींद हराम कर दी है, क्योंकि भाजपा के पूर्व केन्द्रीय मंत्री के नेतृत्व में यह यात्रा उन राज्यों से गुज़रेगी जो भाजपा का गढ़ समझे जाते हैं। यशवंत सिन्हा और शत्राुघ्न सिन्हा जैसे पूर्व भाजपा वालों के नेतृत्व में चलाए जानेवाले ग़ैर-राजनैतिक अभियान को हिन्दू-मुस्लिम रंग देकर बदनाम करना भगवाधारियों के लिए असम्भव है। इसलिए दिन प्रति दिन यह वास्तविकता स्पष्ट होती जा रही है कि सी॰ए॰ए॰ और एन॰आर॰सी॰ के हवाले से सरकार ने बिना तैयारी के शहद के छत्ते में हाथ डाल दिया है और अब वह अपने विनाश को स्वयं अपनी आंखों से देख रही है। एन॰आर॰सी॰ के ख़िलाफ़ यह आन्दोलन एक दूसरा स्वतंत्रता आन्दोलन ही है और इसमें भी देश के मुसलमान अपनी स्वर्णिम परम्पराओं के अनुसार मुख्य भूमिका निभा रहे हैं।

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