“भाषण जीवियों” का खोखला नारा है आत्मनिर्भर भारत

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“आत्मनिर्भरता” कोई नया शब्द नहीं है जिससे हम सभी अनभिज्ञ हों वरन् प्राचीन काल से ही लोगों के भीतर आत्मनिर्भर बनने की भावना पायी जाती रही है, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो, रोज़गार के क्षेत्र में हो, अर्थव्यवस्था हो या प्रौद्योगिकी। जब हम अपनी प्रतिभाओं को पहचान कर उसके अनुसार अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी पर आश्रित ना रहें तथा स्वयं ही उसकी पूर्ति करें तो इसे ही आत्मनिर्भरता का नाम दिया जाता है। आत्मनिर्भरता की बात करें तो सर्वप्रथम गांधी जी का नाम उभरकर सामने आता है जिन्होंने आज़ादी से पहले ही अपनी पुस्तक “India of my dreams” में आत्मनिर्भरता शब्द को परिभाषित किया तथा इसे उपयोग में लाने पर बल दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् लगभग अधिकतर सरकारों ने अपने-अपने ढंग से देश को उन्नत मार्ग पर ले जाने के प्रयास किये। आज हमारे देश को यदि हम आत्मनिर्भर कहें तो इसमें कोई आश्चर्य ना होगा। आज आपको अपने देश के लगभग प्रत्येक नागरिक में आत्मनिर्भरता देखने को मिल जाएगी, चाहे वह किसी भी वर्ग से संबंधित हों। किंतु वर्गों के आरोही क्रम में यह‌ पैमाना घटता हुआ प्रतीत होगा‌ अर्थात् जो व्यक्ति जितना ही न्यूनतम वर्ग से संबंधित होता है वह उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होता है जिस का सत्यापन आप आये दिन घटित हो रही घटनाओं के रूप में देख सकते हैं।

लॉकडाउन में न्यूनतम वर्ग के लोगों ने आत्मनिर्भरता का जो आदर्श स्थापित किया, वह अविस्मरणीय है। 15 साल की ज्योति कुमारी अपने पीड़ित पिता के साथ गुड़गांव से लेकर बिहार तक 1200 किलोमीटर तक का सफ़र 7 दिन तक लगातार साइकिल चलाकर तय करती है। असहाय माताएं या यूं कहें कि आत्मनिर्भर माताएं सड़कों पर शिशुओं को जन्म देती हैं, हज़ारों आत्मनिर्भर मज़दूर मंज़िल तक पहुंचने के लिए पैदल ही चल पड़ते हैं और ऐसी विपरीत परिस्थितियों में जब इन न्यूनतम वर्ग के लोगों को व्यवस्था से और राज्य से किसी प्रकार का समर्थन प्राप्त नहीं होता तो इनमें और अधिक आत्मनिर्भर बनने की दृढ़ चेष्ठा जागृत हो जाती है। यदि हम वर्तमान समय में देखें तो यही लोग आज भी अपनी जीविका के लिए आत्मनिर्भरता से किसी भी चुनौती का डटकर सामना करने का साहस रखते हैं क्योंकि वह इस बात से भली-भांति अवगत हैं कि इसके अतिरिक्त उनके समीप कोई अन्य विकल्प विद्यमान नहीं। ऐसी उच्च कोटि की आत्मनिर्भरता से परिपूर्ण लोग आपको केवल मज़दूर,‌ किसान एवं निम्न वर्ग के पीड़ितों के रूप में ही मिलेंगे क्योंकि इन्हें उद्योगपतियों, पूंजीपतियों एवं सरकार से कोई सरोकार नहीं।

इसके अतिरिक्त दूसरा उदाहरण तीन माह से चल रहा किसान आंदोलन है। इसमें सम्मिलित सभी जागरूक एवं साहसी किसान अपने अधिकारों की मांग या यूं कहें कि लोकतंत्र की रक्षा हेतु निरंतर विरोधी परिस्थितियों का दृढ़ता से सामना करते हुए आत्मनिर्भरता का परिचय दे रहे हैं। वहीं दूसरी ओर आत्मनिर्भरता पर भाषण देने वाले “भाषणजीवी” राजनेता किसानों का समर्थन करने के बजाय दमनकारी नीतियां अपना रहे हैं और पूंजीपतियों को अधिक लाभ प्रदान करने व किसानों की आत्मनिर्भरता को कुचलने के लिए प्रयासरत हैं और उन्हें “आंदोलन जीवी परजीवी” नाम से संबोधित कर रहे हैं, किंतु शायद वह यह नहीं जानते कि इन्हीं आंदोलनकारियों के कारण ही भारत ने‌ स्वतंत्रता प्राप्त की थी और यही किसान हैं जिनकी मेहनत के फलस्वरूप घर-घर में अन्न पहुंचता है।

लोगों की आत्मनिर्भरता एवं अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ही भारत के लोकतंत्र को दृढ़ता प्रदान करती है किंतु यह सरकार किसानों को अपने पूंजीपति मित्रों के लाभ के लिए इन पर आश्रित कर किसानों की आत्मनिर्भरता को समाप्त कर देना चाहती है। अतः ऐसी स्थिति में सरकार का‌ “आत्मनिर्भर-भारत” का नारा किस हद तक सार्थक है इसका अंदाज़ा हम स्वयं ही भली-भांति लगा सकते हैं।

उम्मे रुमान

सीएसजीएम यूनिवर्सिटी, कानपुर

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