26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के बाद देश भर में जैसे भूचाल सा आ गया। मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया दोनों के द्वारा झूठी ख़बर फैलाई गई कि किसान आंदोलनकारियों ने लाल क़िले पर हमला कर दिया है और लाल क़िले से राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा हटाकर ख़ालिस्तान का ध्वज लगा दिया गया है। किसी ने सच जानने की कोशिश नहीं की। सिर्फ़ कुछ हेडलाइंस और तस्वीरें देखकर सभी आंदोलनकारियों को आतंकवादी समझ लिया और लोग अपने-अपने हिसाब से टिप्पणी करने लगे।
सोशल मीडिया पर किसानों के प्रति नफ़रत भरी पोस्ट्स और ट्वीट्स का मानो एक सैलाब सा आ गया। आज के दौर में जबकि हम जानते हैं कि कैमरे का ज़रा सा एंगल घूमता है और ख़बर कुछ की कुछ बन जाती है लेकिन फिर भी सब भावनाओं में बह गए और किसी ने सोचने की कोशिश नहीं की कि दो महीने से चल रहा शांतिपूर्ण आंदोलन इतना भयावह कैसे हो गया? कैसे किसान लाल क़िले के अंदर पहुंच गए? एक सरकारी इमारत की सुरक्षा में कमी कैसे हो गई? किसकी इतनी हिम्मत हो गई कि सरकारी इमारत पर किसी सम्प्रदाय का ध्वज लगा सके?
वही हुआ जिसका अंदेशा था। शाम होते मालूम हुआ कि न ही तिरंगा उतारा गया है और न ही ख़ालिस्तान का ध्वज लगाया गया है। तिरंगा तो वहीं शान से लहरा रहा है और जो ध्वज लगाया गया वो ख़ालिस्तान का नहीं बल्कि सिख समुदाय का ध्वज निशान साहिब और किसान यूनियन का ध्वज था। हालांकि दोनों ही ग़लत हैं। वो भी जिसने ग़लत एंगल से तस्वीर ली और वो भी जिसने एक सरकारी इमारत पर किसी विशेष सम्प्रदाय का ध्वज लगाया। लेकिन लोग बुद्धि का प्रयोग कर सच खोजने की बजाए मीडिया हाउस में बैठे कुछ लोगों या सोशल मीडिया द्वारा फैलाई गई झूठी ख़बरों में उलझकर रह जाते हैं। उस चीज़ को देखते हैं जो कुछ लोग हमें दिखाते हैं न कि उसको जिसे हमें देखना चाहिए। ऐसे ही लोग उन कुछ ट्रैक्टर्स और किसानों में खो गए जो तय मार्ग से हटकर लाल क़िले पर पहुंचे थे, उन ट्रैक्टर्स और किसानों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया जो तय मार्ग पर शांतिपूर्वक परेड के रहे थे। सिर्फ़ कुछ लोगों को देखकर पूरे आंदोलन को ग़लत समझ लिया गया और आंदोलनकारियों के लिए आतंकवादी, ख़ालिस्तानी, उपद्रवी, देशद्रोही जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा। हालांकि बाद में कुछ विडियोज़ द्वारा ये भी स्पष्ट हो गया कि लाल क़िले पर पहुंचे लोगों में से भी कुछ ही थे जिन्होंने लाल क़िले पर ख़ाली पड़े एक खंबे पर निशान साहिब और किसान यूनियन का ध्वज लगाया, बाक़ी नीचे खड़े किसान उन्हें ऐसा करने से मना ही कर रहे थे।
ज़िम्मेदारी किसी की और अब सफ़ाई किसी और को देनी पड़ रही है। किसान अपनी समस्या लेकर आए थे और अब अपनी सफ़ाई देनी पड़ रही है।
इसी बीच बहुत से किसान आंदोलनकारी और पुलिसकर्मी घायल भी हो गए और एक किसान की मौत भी हो गई। अगले दिन गृहमंत्री महोदय स्वयं घायल पुलिसकर्मियों का हाल जानने गए। अच्छा किया। लेकिन क्या गृहमंत्री महोदय को घायल किसान आंदोलनकारियों का हाल नहीं जानना चाहिए था या उस किसान आंदोलनकारी के परिवार से नहीं मिलना चाहिए था जिसकी जान पुलिस कर्मी की गोली लगने के कारण हुई। किसान इसी देश के हैं कहीं बाहर से तो नहीं आए! अगर वे सरकार के फ़ैसले से संतुष्ट नहीं हैं और शांतिपूर्वक अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं तो क्या सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं रही? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के निवासी होने के नाते सरकार के फ़ैसले के खिलाफ़ अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करना या आंदोलन करना आम जन का अधिकार है।
इस आधुनिक विश्व में झूठी खबरों से सावधान और सतर्क रहना समय की ज़रूरत है। मुद्दों से भटकने के बजाए हमें लगातार सवाल करते रहना चाहिए कि वे लोग कैसे लाल क़िले के अंदर पहुंचे? एक सरकारी इमारत की सुरक्षा में कोताही कैसे हुई? हमारी सुरक्षा के ज़िम्मेदार अपनी सुरक्षा क्यूं नहीं कर सके? भावनाओं में न बहकर समझदारी से काम लेते हुए सरकार से प्रश्न करते रहना न सिर्फ़ हमारा अधिकार है बल्कि कर्तव्य भी है।
सिमरा अंसारी
सीसीएस यूनिवर्सिटी , मेरठ
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