‘अफ़वाहों’ की भयावहता से आगाह करती फ़िल्म
सहीफ़ा ख़ान
5 मई को रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘द केरल स्टोरी’ को लेकर देश में काफ़ी बवाल मचा। कुछ लोगों ने इसे प्रॉपगैंडा फ़िल्म बताकर इसका विरोध किया तो वहीं बड़ी संख्या में लोग इसके समर्थन में भी उतर आए। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक चुनाव में एक रैली के दौरान इस फ़िल्म का समर्थन कर लोगों से इसे देखने की अपील की।
लेकिन उसी दिन यानि 5 मई को एक शानदार कहानी के साथ एक और फ़िल्म ‘अफ़वाह’ भी रिलीज़ हुई जिस पर न ज़्यादा चर्चा हुई और न ही सराहना मिली। जबकि यह फ़िल्म दिखाती है कि किस तरह सोशल मीडिया के ज़रिए हम किसी प्रॉपगैंडे का शिकार होते हैं। किस प्रकार हमारी भावनाओं का इस्तेमाल कर हमारे दिल और दिमाग़ से खेला जाता है।
फ़िल्म की कहानी केंद्रित है एक ऐसे युवा नेता विक्रम सिंह उर्फ़ विक्की पर जो राजनीति की दुनिया में तेज़ी से आगे बढ़ना चाहता है। इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है। उसकी सगाई हो चुकी है और जल्द ही शादी होने वाली है। यह रिश्ता एक सियासी गठबंधन के कारण जुड़ा है जिसे उसकी मंगेतर मानने से इन्कार कर देती है और घर से भाग जाती है। रास्ते में उसकी भिड़ंत एक अमेरिका रिटर्न रहाब अहमद से हो जाती है जो कि उसकी मदद करता है। लेकिन विक्की अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए इसे लव-जिहाद का नाम देकर सोशल मीडिया पर लव-जिहाद हैशटैग के साथ ट्रेंड करा देता है। और इसी प्रकार अफ़वाहों के मकड़जाल में कई बेकसूर फंसते जाते हैं।
इसके अलावा भी फ़िल्म में समानांतर कई कहानियां चलती हैं। जैसे विक्की का वफ़ादार गुर्गा चंदन एक मुस्लिम क़साई की हत्या कर देता है। जिसके बाद इस मामले को भी ठंडा करने के लिए एक अफ़वाह का सहारा लेना पड़ता है। इसी प्रकार एक महिला हवलदार की कहानी भी साथ चलती है जिसे उसकी ख़ुद की मां ही अपने सीनियर पुलिस अधिकारी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को उकसाती रहती है। और वह महिला हवलदार ज़िम्मेदारी और विवेक के बीच चक्की के दो पाटों में पिसती नज़र आती है।
इस फ़िल्म में आज के समय के ज्वलंत मुद्दों का बहुत ही सटीक तरीक़े से फ़िल्मांकन किया गया है। सांप्रदायिकता का ज़हर, वर्किंग महिला के साथ यौन शोषण, अफ़वाहों को फैलाने का नियोजित प्रॉपगैंडा, गौ तस्करी इत्यादि का झूठ देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन तमाम मुद्दों पर फ़िल्म में बहुत बेबाक तरीक़े टिप्पणी की गई है। फ़िल्म की शुरुआत बहुत ही सुस्त होती है और थोड़ी ही देर में फ़िल्म बोरिंग लगने लगती है। लेकिन इंटरवल आते-आते फ़िल्म अपनी रफ़्तार पकड़ने लगती है और एक के बाद एक घटित हो रही घटनाएं संस्पेंस बढ़ाने लगती है।
फ़िल्म का क्लाइमेक्स बहुत ही ज़बरदस्त है जो कि फ़िल्म की बोरिंग शुरुआत को भुला देने का काम करता है। क्लाइमेक्स में गधों का एक दृश्य है जो कि समाज में नफ़रत फैलाने वाली भीड़ का सार पेश करता है।
भूमि पेडनेकर ने हमेशा की तरह अपने किरदार को बहुत ही शानदार तरीक़े से पेश किया है। विक्रम सिंह के किरदार को सुमित व्यास ने बहुत ही ग़ज़ब तरीक़े से निभाया है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ने अच्छा अभिनय किया है लेकिन अपने किरदार के साथ वह उतना न्याय नहीं कर सके, जितना वह पहले करते रहे हैं। शारिब हाशमी ने बहुत अच्छा काम किया है। लेकिन इन सभी के अभिनय पर भारी पड़ी हैं टी जे भानु। पुलिस हवलदार का किरदार उन्होंने बहुत ही भावनात्मक रुप से निभाया है। डायरेक्टर सुधीर मिश्रा हमेशा की तरह अपने विषय के साथ पूरी तरह न्याय करने में सफल साबित हुए हैं। थ्रिलर अंदाज़ में अफ़वाहों और फ़ेक न्यूज़ की भयावहता से परिचित कराना सुधीर मिश्रा का कमाल है।