मौलाना आज़ाद के समावेशी विचारों पर बात करने की आवश्यकता है – प्रोफ़ेसर एस० इरफ़ान हबीब

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मौलाना आज़ाद के समावेशी विचारों पर बात करने की आवश्यकता है – प्रोफ़ेसर एस० इरफ़ान हबीब

रिपोर्ट: मसीहुज़्ज़मा अंसारी

हाल ही में प्रकाशित अपनी नयी किताब “मौलाना आज़ाद: एक जीवन” के मुख्य बिंदुओं पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर एस० इरफ़ान हबीब ने कहा कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद केवल मुसलमानों के नहीं, बल्कि देश के नेता थे।

प्रोफ़ेसर हबीब ने यह विचार अपनी किताब पर आयोजित एक चर्चा के दौरान व्यक्त किए। इस चर्चा का आयोजन दिल्ली स्थित शोध संस्थान Centre for Studies of Plural Societies (CSPS) द्वारा 19 मई को न्यू फ़्रेंड्स कॉलोनी के आर्ट एंड कल्चर सेंटर में किया गया था।

इस कार्यक्रम में इतिहासकार प्रोफ़ेसर एस० इरफ़ान हबीब के आलावा दिल्ली विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व प्रोफ़ेसर और इतिहासकार अमर फ़ारूक़ी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ. आमिर अली ने भी अपने विचार रखे।

अपने वक्तव्य में प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि, “मौलाना आज़ाद केवल राजनीतिक व्यक्ति या एक इस्लामिक विद्वान नहीं थे बल्कि उसके अलावा भी बहुत कुछ थे जिस पर बात करने की आवश्यकता है। मौलाना आज़ाद एक उत्कृष्ट लेखक, वक्ता, संगीत प्रेमी, कला प्रेमी, साहित्यकार, स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ भारत विभाजन के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़ थे, जिनसे प्रभावित होकर लाखों मुसलमानों ने मुस्लिम लीग और विभाजन का विरोध किया था।”

उन्होंने कहा कि, “अल-हिलाल और अल-बलाग़ जैसी पत्रिकाएं निकालकर मौलाना आज़ाद ने अपने राष्ट्रवादी विचारों से लोगों को प्राभावित किया। नेहरू के साथ की गई चर्चा को भी बड़ी साहित्यिक शैली में ग़ुबार-ए-ख़ातिर में दर्ज किया है। ग़ुबार-ए-ख़ातिर में लिखे गए उनके पत्रों उच्च कोटि की साहित्यिक शैली में शुमार किया जाता है। मौलाना आज़ाद देश के बंटवारे के घोर विरोधी थे और इसका प्रमाण उनके लेख और उनके भाषण हैं। वे अपने विचारों को बड़े ही सरल अंदाज़ में रखते थे और उसके प्रति दृण थे। …

… आज़ादी के बाद मौलाना आज़ाद देश के शिक्षा मंत्री बने और शिक्षा की मज़बूत बुनियाद रखी लेकिन इसके साथ ही वह विस्थापित लोगों के बच्चों की शिक्षा के लिए भी प्रयासरत थे और पाकिस्तान से आए लोगों की शिक्षा का प्रबंध करने में उनका बड़ा योगदान था। उस समय यह एक बड़ी चुनौती थी।”

प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि, “मौलाना आज़ाद पर किताब लिखना मैंने इसलिए चुना क्योंकि उनका इस्लाम को लेकर जो विचार था, वह सबसे अलग और प्राभावित करने वाला था। उन्होंने इस्लाम को उपनिवेशवाद के विरोध में एक औज़ार के रुप में इस्तेमाल किया। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी मुस्लिम दुनिया में उन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध किया। उस समय यह बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि कहीं-न-कहीं पूरी मुस्लिम दुनिया उपनिवेशवाद का शिकार थी। मुस्लिम देश कहीं ब्रिटेन के अधीन थे तो कहीं फ़्रांस के। उस समय उपनिवेशवाद के विरोध में इस्लाम की व्याख्या करना अपने आप में एक क्रांतिकारी विचार था। जब अल्लामा इक़बाल जैसा क़ाबिल इंसान धर्म की बुनियाद पर राज्य और स्टेट का समर्थन कर रहा था, वहीं उस समय मौलाना आज़ाद अपनी लोकतांत्रिक बुनियाद पर जमे रहे और देश के बंटवारे का विरोध किया।”

उन्होंने कहा कि, “मौलाना आज़ाद ने बड़ी मज़बूत दलीलों के साथ और पैग़ंबर के जीवन से उदाहरण देते हुए देश के विभाजन का विरोध किया। मौलाना ने कहा था कि जब पैग़ंबर के समय अरब में यहूदी और मुसलमान एक साथ रह सकते हैं तो हिंदुस्तान में मुस्लिम और हिंदू एक साथ क्यों नहीं रह सकते!”

अपने वक्तव्य में अल्लामा इक़बाल के इस्लामिक राष्ट्रवाद के विचार की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि, “अल्लामा इक़बाल ने इस्लामिक राष्ट्रवाद की बात की और उसकी वकालत की, जो बड़ी हैरत की बात है। एक बड़े विद्वान, कवि और इस्लाम के गहन अध्यन के बावजूद उन्होंने इस्लामिक राष्ट्रवाद का समर्थन किया और उसके आंदोलन को बल दिया। दूसरी तरफ मौलाना आज़ाद का कहना था कि इस्लाम को किसी बाउंड्री में क़ैद करने का विचार ही इस्लाम के ख़िलाफ़ है।‌ हालांकि अल्लामा इक़बाल के समय में ही बहुत से इस्लामिक राष्ट्र वजूद में थे लेकिन उनकी पहचान अलग थी। मौलाना आज़ाद और अल्लामा इक़बाल में कई बातों में समानता होने के बावजूद इस्लामी राष्ट्रवाद के बिंदु पर मतभेद था और दोनों के अपने अपने तर्क थे। दोनों इस्लाम के विद्वान थे, आधुनिक सोच और शिक्षा के साथ महान् लेखक और विचारक थे लेकिन इस्लाम के नाम पर किसी राष्ट्र की स्थापना को लेकर दोनों में गहरा विरोध था। …

… मौलाना आज़ाद ने अपने जीवन में वैचारिक मतभेदों के कारण कभी भी अल्लामा इक़बाल से कोई संबंध नहीं रखा। जब 1938 में अल्लामा इक़बाल की मौत हुई तो मौलाना आज़ाद ने डेढ़ लाइन में शोक संदेश लिख कर औपचारिकता निभाई।‌ यह बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है कि एक समय में ही दोनों बड़े विद्वानों के रहते हुए और कई बातों में काफ़ी समानता होते हुए भी दोनों का इस्लामिक राष्ट्रवाद को लेकर गहरा विरोध था।”

CSPS द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रोफ़ेसर एस. इरफ़ान हबीब

मौलाना आज़ाद की रुचियों और उनके योगदान पर बात रखते‌ हुए प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि, “वह एक रिवायती मौलाना नहीं थे बल्कि कला एवं साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने आज़ादी के बाद इस क्षेत्र में कई संस्थानों की बुनियाद रखी। संगीत नाट्य अकादमी, ललित कला अकादमी इसकी उम्दा मिसालें हैं। इसकी बुनियाद नेहरू के प्रधानमंत्री कार्यकाल में ज़रूर रखी गई लेकिन इसके स्तंभ मौलाना आज़ाद थे। मौलाना आज़ाद को संगीत बहुत पसंद था। उन्होंने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर सितार बजाना सीखा। 1949 में उन्होंने सरदार पटेल को एक पत्र लिखा। उस समय सरदार पटेल सूचना और प्रसारण मंत्री थे।‌ उन्होंने पत्र में कहा कि मैं आप के मंत्रालय में दख़ल देने के लिए माफ़ी चाहता हूं, आप बुरा न मानें कि मैं आप के कार्यक्षेत्र में दखल दे रहा हूं। संगीत में मेरा व्यक्तिगत लगाव है इसलिए जब मैं संगीत का प्रसारण देखता हूं तो इसके ख़राब स्तर से मुझे दुःख होता है। अगर आप चाहें तो मैं इसके स्तर को बेहतर बनाने के लिए आप का सहयोग कर सकता हूं ताकि प्रसारित की जाने वाले संगीत की गुणवत्ता बेहतर हो सके।”

मौलाना आज़ाद और उनके परिवार पर बात रखते हुए प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि, “मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना ख़ैरुद्दीन अपने परिवार को लेकर अरब चले गए और वहीं रहने लगे। मौलाना आज़ाद अरब के मक्का शहर में पैदा हुए। उस समय अरब में ओटोमन साम्राज्य (उस्मानी सल्तनत) का दौर था। उस्मानी सल्तनत या उस्मानी इस्लाम दरवेशी और सूफ़ी स्वभाव से प्रेरित था। उस समय वहाबी इस्लाम का उदय हो रहा था।‌ मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना ख़ैरुद्दीन ओटोमन इस्लाम से प्राभावित थे। उन्हें भी लोग पीर की तरह मानते थे।‌ सूफ़ी और दरवेशी इस्लाम के शासन में अरब में पैदा हुए मौलाना आज़ाद के जीवन पर ख़ासा प्रभाव पड़ा। सूफ़ी इस्लाम, वहाबी इस्लाम की तुलना में अधिक समावेशी था, इसलिए मौलाना आज़ाद के जीवन पर भी इसका असर साफ़ दिखाई देता है। मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना ख़ैरुद्दीन अपने इलाज के लिए हिंदुस्तान वापस आकर कलकत्ता में रहने लगे। उन्होंने मौलाना आज़ाद को मदरसे में इसलिए नहीं पढ़ाया क्योंकि उन्हें डर था कि मदरसे का मौलवी उन्हें वहाबी इस्लाम पढ़ाएगा। इसलिए उनकी शिक्षा किसी मदरसे में नहीं हुई बल्कि उन्होंने घर पर ही स्वतंत्र रहकर तालीम हासिल की। मौलाना आज़ाद के जीवन में हमेशा इसका प्रभाव देखने को मिलता है। उनकी लेखनी में, उनके भाषणों में, उनके विचार में और उनके स्वाभाव में।”

“मौलाना आज़ाद हमेशा से धर्म के नाम पर देश के विरोधी थे, इसीलिए उन्होंने मुस्लिम लीग का विरोध किया और क़ौम की बुनियाद पर स्टेट की स्थापना की बात करने वालों से दूरी बनाए रखी। उन्होंने अपने राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक विचारों से समर्थकों की एक बड़ी तादाद जमा की थी जो उन्हीं की तरह देश के बंटवारे के विरोधी थी और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर थी। इनमें सबसे बड़ा नाम अल्लाह बख़्श सूमरो का है। जब मौलाना आज़ाद दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो मुस्लिम लीग ने 23 मार्च 1940 को लाहौर में मुसलमानों के लिए एक अलग आज़ाद देश की मांग का प्रस्ताव पारित किया। इसके तुरंत बाद 27 से 30 अप्रैल 1940 के बीच अल्लाह बख़्श सूमरो ने भी दिल्ली में उन मुसलमानों का एक बड़ा सम्मेलन आयोजित किया जो बंटवारे के विरोध में थे और मौलाना आज़ाद के विचारों से प्रभावित थे। इस ऐतिहासिक जनसभा का नाम आज़ाद मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस रखा गया और इसमें देशभर से लगभग एक लाख मुसलमानों ने हिस्सा लिया। उस समय एक लाख लोगों की जनसभा करना काफ़ी मुश्किल था। देश के बंटवारे के विरोध में मुसलमानों की इतनी बड़ी जनसभा के बाद मुस्लिग लीग घबरा गई। 14 मई, 1943 को कुछ अज्ञात लोगों ने अल्लाह बख़्श सूमरो की हत्या कर दी। हत्या का आरोप मुस्लिम लीग पर लगा, हालांकि यह साबित नहीं हो सका। इसी प्रकार दार-उल-उलूम देवबंद ने भी मौलाना आज़ाद के विचार से प्रभावित होकर बंटवारे का विरोध किया।”, प्रोफ़ेसर हबीब ने बताया।

ग़ुबार-ए-ख़ातिर का ज़िक्र करते हुए प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि,‌ “जेल में बंद रहने के दैरान उन्होंने कई पत्र लिखे जो अलग-अलग विषयों पर अधारित थे। उन्होंने चाय जैसे विषय पर भी बहुत विस्तार से लिखा जिसमें यह भी कहा कि जेल में मेरे साथ सिर्फ़ जवाहर लाल नेहरू हैं जिनके साथ मैं चाय पीता हूं वरना यहां कोई और नहीं है जिसके साथ मैं चाय साझा कर सकूं। …

… मौलाना आज़ाद की शिक्षा और शोध में गहरी रुचि को इस बात से समझा जा सकता है कि शिक्षा मंत्री बनने के बाद जब शिक्षा और शोध संस्थानों की स्थापना हुई तो अधिकतर के उद्घाटन समारोह में मौलाना आज़ाद ख़ुद मौजूद रहे। मौलाना आज़ाद ने राजनीति से परे देश के निर्माण में बहुत ही महत्वपूर्ण और बुनियादी किरदार निभाया।

… 1927 में मौलाना आज़ाद ने अल-हिलाल में कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो प्रकाशित किया और लिखा कि मैं कार्ल मार्क्स की विचाराधारा का समर्थक नहीं हूं लेकिन एक बड़ा विद्वान जिसकी विचाराधारा ने कई मुल्क पर राज किया है, पाठकों को उसे पढ़ना चाहिए। इसलिए मैं इसे साझा कर रहा हूं। मौलाना आज़ाद समावेशी विचार रखने वाले व्यक्ति थे। वह किसी मुसलमान के लीडर नहीं थे बल्कि देश के लीडर थे जो लोकतान्त्रिक विचारों के साथ-साथ इस्लाम को एक बड़े विस्तृत अंदाज़ में देखते थे।”

कार्यक्रम के अंत में Centre for Studies of Plural Societies (CSPS) के डायरेक्टर डॉ० ओमैर अनस ने प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब व अन्य वक्ताओं सहित श्रोताओं का आभार व्यक्त किया और कहा कि CSPS छात्रों में शोध करने को लेकर उनके मार्गदर्शन के लिए कार्य कर रहा है और उसी के क्रम में इस प्रकार के विषयों पर चर्चा आयोजित की जाती है जिसे आगे भी CSPS करता रहेगा।

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