पुस्तक का नाम: बाइज़्ज़त बरी? – साज़िश के शिकार बेकुसूरों की दास्ताँ
लेखक: मनीषा भल्ला, डॉ. अलीमउल्लाह ख़ान
प्रकाशक: भारत पुस्तक भंडार
प्रकाशन वर्ष: 2021
भाषा: हिन्दी
पृष्ठ: 296
समीक्षक: उम्मे वरक़ा
हाल ही में आई ‘डॉ. अलीमुल्लाह ख़ान’ और ‘मनीषा भल्ला’ की किताब ‘बाइज्ज़त बरी’ ने भारतीय समाज में चल रहे भ्रष्टाचार एवं हिंसा के वास्तविक स्वरूप को समाज के सामने उजागर कर दिया है।
पुस्तक इस बात को साबित करती है कि भारतीय अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रुप से मुस्लिम समुदाय को, केवल उनके धर्म के आधार पर नफ़रत का शिकार बनाया जाता है। देश में आतंकवाद के नाम पर कई युवाओं को सांप्रदायिक नफ़रत का शिकार बनाया जाता रहा है। कुल 16 बेगुनाहों की दास्तानें इस पुस्तक में बयान की गई हैं, जिन्हें अपने जीवन का स्वर्णिम समय जेल की सलाखों के पीछे बेगुनाह होने के बावजूद भी व्यतीत करना पड़ा।
पुस्तक पढ़ते समय पाठक स्पष्ट रूप से यह अनुमान लगा सकता है कि प्रशासनिक शक्तियों द्वारा अधिकारों का ग़लत फ़ायदा उठाते हुए मुस्लिम अल्पसंख्यकों को एक सोची-समझी साज़िश के अंतर्गत फंसाया जाता है। उनकी बेगुनाही जानते हुए भी उन पर हिंसा, प्रताड़ना और थर्ड डिग्री टॉर्चर की हद कर दी जाती है। इतना ज़ुल्म और इतना तिरस्कार सब-कुछ केवल प्रशासन के सांप्रदायिक प्रतिशोध की भावना के कारण ही होता है। उनके जीवन को आतंकवाद जैसे संगीन अपराध से कलंकित कर दिया जाता है, जिसका परिणाम उन्हें जीवन भर भुगतना पड़ता है।
‘तारिक़ अहमद दार’ जिन्हें दिल्ली सीरियल बम ब्लास्ट के झूठे केस में फंसाया गया था, उनका कहना है कि उन्हें इसलिए फंसाया गया “क्योंकि वे मुसलमान थे।” इसी प्रकार मोहम्मद हुसैन फ़ाज़ली, रहमाना, वासिफ़ हैदर, गुलज़ार, डॉक्टर फ़रोग़ आदि बहुत से बेगुनाह केवल व्यवस्था की सांप्रदायिक नफ़रत का शिकार बने और उसके बाद वे अपने जीवन को सामान्य रूप जीने की कोशिश में ही उलझे रहे। इसका कारण केवल प्रशासनिक शक्तियां ही नहीं थीं जिन्होंने उन्हें झूठे आरोपों में फंसाया था, अपितु समाज को आईना दिखाने वाली मीडिया उनके सामाजिक तिरस्कार का मुख्य कारण बनी। मीडिया अपने निजी स्वार्थ और उपलब्धियों को प्राप्त करने के लालच में अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करने में असफल रही।
कहा जाता है कि “मीडिया को नियंत्रित करने वाला, मस्तिष्क को नियंत्रित करता है।” ऐसा ही कुछ हमारे भारतीय समाज के साथ भी हुआ। मीडिया द्वारा एक विशेष संप्रदाय को निशाना बनाया जाना और उनके अपराध सिद्ध होने से पहले उन पर आतंकवाद का प्रमाण थोप दिया जाना तथा उन बेगुनाहों की नकारात्मक छवि बनाकर भारतीय नागरिकों के मस्तिष्क को नियंत्रित करने वाली थ्योरी, जिसका चलन आज-कल बढ़ गया है, यह मीडिया की कर्तव्यहीनता को दिखाता है।
इस वास्तविकता को एक बौद्धिक समाज द्वारा स्वीकार करने से कभी इंकार नहीं किया जाना चाहिए। समाज की समस्याओं का निदान करने वाली मीडिया आज ख़ुद समाज के लिए एक चुनौती बन गई है।
इसी कड़ी में एक बेगुनाह ‘सैयद वासिफ़ हैदर’ जिन्हें हत्या, राष्ट्र-द्रोह, बम विस्फ़ोट समेत अन्य कई मामलों में फंसाया गया जो कि 9 साल बाद बाइज़्ज़त बरी हो गए, उनका कहना है कि “अदालत ने तो उन्हें रिहा कर दिया लेकिन मीडिया ने उन्हें बरी नहीं किया।” यह बात स्पष्ट कर देती है कि भारतीय मीडिया किस प्रकार से बेगुनाहों के सामाजिक तिरस्कार के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी है। वे जेल से रिहा तो हो गए लेकिन समय की रफ़्तार को नहीं पकड़ सके और समाजिक तौर पर पीछे रह गए।
जेल में उन पर की जाने वाली अमानवीय हिंसा उन्हें शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमज़ोर कर देती है। उनके जीवन के वे स्वर्णिम वर्ष कभी वापस नहीं आ सकते। वह जेल के भीतर प्रतिदिन यातना झेल रहे होते थे और बाहर उनका परिवार सामाजिक एवं मानसिक यातनाएं तथा सामाजिक तिरस्कार झेलता था। जेल में रहने वाले केवल इन बेगुनाहों की ज़िंदगियां ही बर्बाद नहीं हुईं, उनके साथ ही उनसे जुड़े लोगों की ज़िंदगियों पर भी बहुत प्रभाव पड़ा। अपने बच्चों को उच्च शिक्षा प्रदान करने का सपना देखने वाले अभिभावकों को अपने बच्चों का भविष्य अपनी आंखों के सामने तहस-नहस होते देखना पड़ा। समाज द्वारा स्वीकार न किए जाने तथा आर्थिक रूप से कमज़ोर हो जाने के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही रोकनी पड़ी।
इस पुस्तक में शासन व्यवस्था और मीडिया की वास्तविकता को उजागर करने के लिए मनीषा भल्ला और डॉ. अलीमुल्लाह ख़ान के प्रयास अत्यंत सराहनीय हैं। यह पुस्तक समाज द्वारा नायक कहे जाने वाली खोखली प्रशासनिक शक्तियों के उग्रवादी रुप को बेनक़ाब कर देती है तथा इसके माध्यम से यह अंदाज़ा भी भली-भांति लगाया जा सकता है कि प्रशासन में सुरक्षा के नाम किए जाने वाले कार्यों में कितनी पारदर्शिता पायी जाती है।
आशा है कि पुस्तक में बेगुनाहों की दर्द भरी दास्तानें देश के बुद्धिजीवी वर्ग के ज़मीर की आवाज़ बनकर निकलेगी, जिससे मीडिया द्वारा जनता की आंखों पर झोंकी गई धूल को साफ़ करके भारत में हिंसा के वास्तविक स्वरूप को पहचानने में मदद करेगी। देखना यह होगा कि सभ्यता और संस्कृति के बोल बोलने वाला यह समाज इस वास्तविकता को किस हद तक स्वीकार करता है।
पुस्तक में केवल 16 व्यक्तियों के बाइज़्ज़त बरी होने की दस्तानें हैं। अतः यह सोचने का विषय है कि ना जाने आज भी कितने बेगुनाह व्यवस्था का शिकार बने हुए हों और अपने मुसलमान होने की सज़ा झेल रहे हों। एक सच्चे और न्याय प्रिय भारतीय नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने देश की व्यवस्था में इस प्रकार के न्यायिक अभावों पर प्रश्न उठाएं और नफ़रत का शिकार हुए बेगुनाहों के लिए न्याय की मांग करें। उम्मीद है कि यह पुस्तक भारतीय समाज का ज़मीर जगाने और मुसलमानों के प्रति राष्ट्र विरोधी और हिंसक भावना को ख़त्म करने में काफ़ी मदद करेगी।
– उम्मे वरक़ा