पर्यावरण क्षरण और आधुनिकता का संकट

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लेखक : अब्दुल सुहैब कुद्दुस
अंग्रेज़ी से अनुवाद : उसामा हमीद

“जूरी एक फैसले पर पहुंच गई है – और यह भयावह है। IPCC की यह रिपोर्ट टूटे हुए जलवायु वादों का विलाप गीत है। यह शर्मिंदा करने वाली फाइल है, जो खोखली प्रतिज्ञाओं को सूचीबद्ध करते हुए हमें एक अजीव दुनिया की ओर जाने वाले रास्ते पर खड़ा कर देती है”, यह वह बात है जो संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस साल प्रकाशित Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट के बारे में कही है। रिपोर्ट हमारे ग्रह की वर्तमान स्थिति और हमारे भविष्य पथ की एक बहुत ही गंभीर तस्वीर प्रस्तुत करती है।


इसमें रिपोर्ट में बताया गया है कि 2008 के बाद से, विनाशकारी बाढ़ और तूफानों के कारण हर साल 20 मिलियन (2 करोड़) से अधिक लोग अपने घरों से विस्थापित होने पर मजबूर हुए हैं। इसका अनुमान है कि केवल अगले दशक में ही, यह जलवायु परिवर्तन 32 से 132 मिलियन लोगों को अत्यधिक गरीबी में धकेल देगा। इसमें यह भी कहा गया है कि फिलहाल, 3.3 बिलियन से 3.6 बिलियन लोग जलवायु प्रभावों के ग्रसित अत्यधिक संवेदनशील देशों में रहते हैं, जिसमें वैश्विक हॉटस्पॉट छोटे द्वीप विकासशील राज्यों, आर्कटिक, दक्षिण एशिया, मध्य और दक्षिण अमेरिका और अधिकांश उप-सहारा अफ्रीका में केंद्रित हैं।


भारत की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। यह उन देशों में से एक है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा जारी एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन कृषि उत्पादन में गिरावट और खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान के कारण 2030 तक लगभग 23% और अधिक भारतीयों को भूख के खतरे में डाल देगा। यह अनुमान भी लगाया गया है कि 2100 तक पूरे भारत में औसत तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस से 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा तथा उस समय तक गर्मी के मौसम में चलने वाली गर्म लहरों की संख्या के तीन गुना होने का अनुमान है। IPCC की रिपोर्ट में यह चेतावनी भी दी गई है कि अगर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई तो भारत को गंभीर नुकसान होगा। यह रिपोर्ट चरम मौसम की घटनाओं के कारण भारत को संभावित रूप से “आर्थिक रूप से सबसे अधिक संकट ग्रस्त देश” की श्रेणी में रखती है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान गर्म लहरें भी इसी परिवर्तन का हिस्सा है और असम में जो कुछ हो रहा है वह तो दिल दहला देने वाला है।


फिर भी ऐसा लगता है कि लोग अपने जीवन में संतुष्ट चल रहे हैं। उन्हीं सपनों का पीछा करना, उन्हीं मॉडलों की नकल करना, उन्हीं ढांचों को अपनाना जारी है जो हमें सीधे विनाश के इस रसातल में ले गए हैं। क्या यह उन संख्याओं, या आँकड़ों, या तकनीकी शब्दजाल का मामला है जिसमें ये तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं, या यह है कि रिपोर्ट इतनी अधिक गंभीर है कि हमारे दिमाग इसकी भविष्यवाणियों, ग्राफों को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं और सुन्न पड़ जा रहे हैं? या यह है कि हमारे दिल इतने निर्दयी, इतने ठंडे हो गए हैं, कि हमें लगता है कि हम इन संख्याओं के दूसरी तरफ, भाग्यशाली पक्ष में हैं? हम यह कल्पना करने में क्यों विफल रहते हैं कि जो 20 मिलियन लोग हर साल अपना घर खो रहे हैं, उनके 20 मिलियन नाम हैं और उनकी 20 मिलियन कहानियां, 20 मिलियन सपने हैं और जो 132 मिलियन लोग अत्यधिक गरीबी में धकेले जा रहे हैं, वे अपना पेट भरना चाहते हैं, उनके परिवार हैं, बच्चे हैं जिन्हें खाना खाने, कपड़े पहनने, आराम करने का पूरा अधिकार है। वे खुले आसमान के नीचे अंधेरी रातों में रहते हैं क्योंकि उनके घर बाढ़ में बह गए हैं या जंगल की आग में जल गए हैं। क्या यह कहानियों की अमूर्तता है या पर्यावरणीय तबाही की वार्तालाप को मानवीय बनाने में असमर्थता या स्वयं मानव आत्मा की पराजय है?
अमितव घोष अपनी पुस्तक ” The Great Derangement” में सच कहते हैं कि जलवायु संकट की बहस में मानवता को लाने में विफलता जलवायु संकट के केंद्र-बिंदु, अर्थात व्यापक कल्पनाशीलता की पराजय और सांस्कृतिक विफलता होगी। इसी प्रकार फिल्म ” Don’t Look Up” वैज्ञानिकों की निराशा को कुशलता पूर्वक व्यक्त करती है, वे दुनिया को एक आसन्न तबाही के लिए जगाने की कोशिश करते हैं, परंतु लोग असंबद्ध ही नज़र आते हैं। लेकिन इतना ही नहीं, इसमें कुछ और भी बात है, जिस तरह से हमने नई दुनिया की कल्पना की है, उसमें ही मौलिक रूप से कुछ गलत है।


मैं इसे “आधुनिकता का संकट” कहना चाहूंगा; पर्यावरण क्षरण आधुनिकता के संकट की सबसे बड़ी अभिव्यक्तियों में से एक है। आधुनिक भौतिकवादी और मशीनी विश्वदृष्टि वर्तमान पारिस्थितिक संकट से गहराई से जुड़ी हुई हैं। लेकिन कुछ आवाजें हैं जो इस विषय पर बात करती रही हैं, समस्या को जलवायु विज्ञान के चश्मे से परे देखने की आवश्यकता के बारे में या इससे परे कि जलवायु समस्या को तकनीकी हस्तक्षेप और व्यक्तिगत परिवर्तन द्वारा हल किया जा सकता है। इस तथ्य से अनजान नहीं रहा जा सकता कि यह एक संरचनात्मक समस्या है और इसके दार्शनिक आधारों को देखे बिना इसको समझा नहीं जा सकता है।


ऐसी ही एक आवाज है सैय्यद हुसैन नस्र; उनके लिए यह पारिस्थितिक संकट एक नैतिक और मौलिक संकट है। अपनी पुस्तक ” Man and Nature” में वह इस बारे में विस्तृत बात करते हैं कि कैसे यह संकट आध्यात्मिकता से धर्मनिरपेक्षता में बदलते विश्व-विचारों के साथ सामने आया; और कैसे पुनर्जागरण के बाद, प्रकृति के प्रति सेकुलर और वैज्ञानिक विश्व-दृष्टिकोण अपनाकर प्रकृति की पवित्रता छीन ली गई और केवल सांसारिक लाभ के लिए इसके साथ शोषण करने वाली मशीन की तरह व्यवहार किया जा रहा है। उनका मानना ​​है कि आधुनिक मनुष्य द्वारा प्रकृति पर सबसे बड़ा हमला प्रकृति के अपवित्रीकरण का विचार है, इसे किसी ऐसी चीज में बदल देना, जो आंतरिक अर्थ से रहित है, इसे ब्रह्मांड से अलग कर देना है।


अमितव घोष ने अपनी पुस्तक ‘The Nutmeg’s Curse’ में पवित्रता के इसी विचार और अपवित्रीकरण की प्रक्रिया की व्याख्या की है। वह एक मूल अमेरिकी विचारक, वाइन डेलोरिया जूनियर को उद्धृत करते हैं, जो कहते हैं कि “स्वदेशी उत्तरी अमेरिकी आध्यात्मिक परंपराओं की एक साझा विशेषता यह है कि उन सभी का एक विशेष स्थान पर एक पवित्र केंद्र है, चाहे वह नदी, पहाड़, पठार, घाटी या अन्य हो। प्राकृतिक विशेषता… चाहे बाद में लोगों के साथ कुछ भी हो, गुप्त भूमि उनकी सांस्कृतिक या धार्मिक समझ में स्थायी स्थिरता के रूप में बनी रहती है।” ठीक यही बात आधुनिकता नकारने या दबाने की कोशिश कर रही है। वे कहते हैं, “सदियों के दमन के दौरान, विचार के इन गैर-यांत्रिक और जीवनवादी तरीकों को पश्चिमी संस्कृति के हाशिये पर धकेल दिया गया; वश में करने और चुप करने की इन कोशिशों से प्रकृति को एक निर्जीव इकाई के रूप में बदल दिया गया, एक ऐसी अवधारणा जो समय के साथ “आधिकारिक आधुनिकता” कहा जाने वाला मूल सिद्धांत बन गई।

घोष बहुत दिलचस्प ढंग से इंगित करते हैं कि आधुनिकता या आधुनिक दृष्टि प्रकृति को विज्ञान और वाणिज्य के एक विषय के रूप में देखती हैं, जो इसके आंतरिक अर्थ का इनकार करती है। उनका कहना है कि यह निरंतर गति में निष्क्रिय कणों से बनी एक विशाल मशीन के रूप में, पृथ्वी की कल्पना करने का एक नया तरीका था।

उनका कहना है कि आधुनिक युग में अकसर यह माना जाता है कि मानवता पृथ्वी से मुक्त हो गई है; यह आधुनिकता का मिथक है कि मनुष्य इस धरती पर विजयी और भौतिक निर्भरता से मुक्त हो गया है।
हमें एक सीमित ग्रह पर अनंत भौतिक और आर्थिक विकास की असंभवता के बारे में भी बात करने की आवश्यकता है। जैसा कि रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक Environmentalism: A Global History में कहा है, अगर भारत और चीन एक बड़े उपभोक्तावादी समाज बनाने के प्रयास में पश्चिम की नकल करते हैं तो – और गांधी ने भी इसके खिलाफ चेतावनी दी थी – यह दुनिया को टिड्डियों की तरह नंगा कर देगा।

जैसा कि बेन एरेनरेच ने अपनी पुस्तक Desert Notebooks: a roadmap for the end of time में कहा है “दुनिया को मृत रूप में कल्पना करने के बाद ही हम इसे मृत बनाने के लिए खुद को समर्पित कर सकते थे”; पृथ्वी के बारे इस विचार को अर्थात, मृत रूप में, जड़ रूप में, कुछ ऐसे रूप में जिसमें कोई आंतरिक मूल्य नहीं है, जो अर्थ-रहित है, पर सवाल उठाया जाना चाहिए और हमें पृथ्वी को जीवित, पवित्र, दिव्य के रूप में देखना शुरू करना चाहिए, जो नैतिकता को जगा सकता है, जो हमें ईश्वर से जोड़ सकता है, जो हमारा मार्गदर्शन कर सकता है, और हमें विनम्र बनाता है। तभी हम यह समझना शुरू कर सकते हैं कि हमने क्या खोया है, हमने जो हिंसा की है उसे समझ सकते हैं और अपनी सीमाओं को पुनः परिभाषित कर सकते हैं।

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