फ़िल्म समीक्षा: ‘जय भीम’ का मुद्दा आपकी सहजता नहीं, कहानी की मौलिकता है

0
1621

किसी भी फ़िल्म को देखने से पहले एक आम दर्शक के ज़ेहन में अमूमन पहला सवाल यही होता है कि कहानी के नायक-नायिका कौन हैं? और फिर ये कि कहानी किसके बारे में है? कुछ दर्शक फ़िल्म के मक़सद को भी जानना चाहते है कि आख़िर फ़िल्म को बनाने के पीछे निर्देशक का उद्देश्य क्या है?

महज़ मनोरंजन, किसी सामाजिक मुद्दे पर एक कलात्मक हस्तक्षेप या दोनों को मिला-जुलाकर एक समझौता पेश करना जिससे बात भी आम जनता के समक्ष प्रस्तुत हो जाए और व्यवसायिक उद्देश्य भी पूरा हो जाए।

मेरा मानना है कि ‘जय भीम’ को ये समझकर न देखा जाए कि ये एक बुराई पर अच्छाई की जीत या न्याय और अन्याय की लड़ाई की कहानी है। ये कहानी व्यवस्था द्वारा पोषित दमन को चुनौती देने में आने वाली कठिनाईयों की है। ये कहानी व्यवस्था के खोखले मूल्यों को उजागर करती है जहाँ सही-ग़लत का फ़ैसला सामाजिक प्रतिष्ठा तथा पहचान पर निर्भर करता है। ये कहानी उन सभी सवालों का जमा है जिसे मुख्य धारा का सिनेमाजगत आमतौर पर बड़ी आसानी से नज़रंदाज़ कर देता है।

ये कहानी उन तमाम घटनाओं को ठीक वैसे ही दिखाने की पूरी कोशिश करती है जैसी वे असल ज़िन्दगी में हैं। हिंसा, असहायता, बर्बरता और दमन अगर हमें विचलित करते हैं तो करना भी चाहिए। हमारे अन्दर करुणा होना और दूसरों के लिए करुणा महसूस करने की क्षमता रखना ही तो हमारे मनुष्य होने का सबूत है। कहानी सुनाने वाले की क्या ये भी ज़िम्मेदारी है कि वो किरदारों की यातना भरी आप-बीती सुनाते समय हमारी सुविधा का ख़याल करे? दर्शक की सहजता के लिए सीधी बात न रखकर ख़ुद ही ज़रूरी बातें सेंसर कर दे? आधे सच का प्रभाव क्या उतना ही है जितना कि पूरे सच का?

‘जय भीम’ दर्शक की असहजता की बजाय कहानी की मौलिकता के प्रति अपनी वफ़ादारी को ज़रूरी समझती है। इन तमाम सवालों पर विचारों में मतभेद हो सकते हैं मगर मेरी नज़र में मतभेद होना अभिव्यक्ति में रूकावट का कारण नहीं बनना चाहिए। ‘जय भीम’ अपनी अभिव्यक्ति में एक पक्ष लेता है जो आपसे भिन्न भी हो सकता है और आपके समान भी। न तो दर्शक अपने निजी विचारों के असर से मुक्त हो सकता है और ना ही निर्देशक, दोनों को ही इसे स्वीकार करते हुए खुले ज़ेहन से फ़िल्म को देखने अथवा बनाने की प्रक्रिया को अंजाम देना चाहिए।

नायक/नायिका आप ख़ुद चुन लीजिये क्योंकि फ़िल्म की कहानी कहीं तो बेहद प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न पहलुओं पर आपको अपना नज़रिया बनाने पर उकसाती है मगर कहीं कुछ बातें नेपथ्य में बजते गाने या कविता के सहारे धीमे से रख जाती है। बल्कि आप जैसे-जैसे कहानी में डूबते चले जाते हैं आपके लिए ये सवाल ही गौण हो जाता है। ये कहानी पहली बार पर्दे पर इतनी बेबाकी से प्रदर्शित होने के बावजूद भी हम सबकी आत्मा को झकझोर कर पूछती है कि क्या हम ऐसी कहानियों के गवाह नहीं रहे हैं? क्या हमें नहीं मालूम कि व्यवस्था के सिपाहियों की ऐसी निरंकुशता और बर्बरता पर उंगली उठाने के लिए कितने पंजों से जूझने को कमर कसना पड़ता है?

ये कहानी इस बात को दर्ज करती है कि न्याय की ख़ातिर व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने के लिए कितनी तरह की परेशानियाँ और किन-किन स्तरों पर वार झेलने पड़ते हैं। अगर आप वंचित तथा पीड़ित समाज से आते हैं तो आपके लिए अपने हक़ की लड़ाई किसी युद्ध से कम नहीं है। अब ये युद्ध क्या बिना प्रिविलेज की सहायता के ख़ाली हाथ लिए लड़ी जा सकती है? अब तक के इतिहास में इसके उदहारण लगभग ना के बराबर हैं।

फ़िल्म की पटकथा एक सत्य घटना पर आधारित है। बीबीसी मराठी की वर्ष 2006 के इस घटना से संबंधित मद्रास उच्च न्यायालय के फ़ैसले के अध्ययन के मुताबिक़ 1993 में तमिलनाडु के मुदन्नी गाँव में ईरुला आदिवासी समुदाय के सदस्य राजकन्नू को चोरी के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और हिरासत में ही पुलिस बर्बरता की वजह से उनकी मौत हो गयी। मगर पुलिस ने प्रचारित किया कि राजकन्नू हिरासत से फ़रार हो गया है जिसके अगले ही दिन पास के एक अन्य थाना क्षेत्र में एक लाश बरामद होने की ख़बर मिली। लाश को लावारिस मानकर रिकॉर्ड दर्ज किया गया था। ये बात उस समय सेंगई (राजकन्नू की पत्नी) के संज्ञान में नहीं थी। रिपोर्ट में लाश पर चोट के गहरे निशान और टूटी पसलियों का ज़िक्र था। पुलिस ने सेंगई के पति के भाई, बहन तथा एक अन्य आरोपी पर भी ख़ूब ज़ुल्म किया यहाँ तक कि सेंगई के बेटे तक को नहीं बख़्शा। पुलिस ने राजकन्नू की भाभी के साथ पूछताछ के दौरान अभद्र व्यवहार किया। उनके बयान के मुताबिक़ पुलिस द्वारा उनके कपड़े चीर दिए गए थे। पूरे परिवार पर शारीरिक अथवा मानसिक प्रताड़ना की लगभग सारी हदें पार कर दी गयीं थी। इस क़दर ज़ुल्म के बाद भी सेंगई को न्याय की ओर ले जाने कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। ऐसे प्रसंग देखकर हक़ के साथ ताक़त की आवश्यकता जैसे सवाल लगभग तमाचे की तरह पड़ते हैं।

इसके बाद तेरह सालों तक न्याय के लिये राजकन्नू की पत्नी सेंगई के संघर्ष की कठिन यात्रा शुरू हो जाती है। उन्होंने अकेले ही तमाम अधिकारियों तथा अदालत का चक्कर शुरू कर दिया जब तक कि वो अपने वकील तक नहीं पहुँच गयीं। पूर्व जस्टिस चंद्रू, जो उन दिनों चेन्नई में बतौर वकील कार्यरत थे, ने सेंगई का केस अपने हाथ लेकर दृढ़ता तथा मज़बूत इरादे के साथ लड़कर न्याय दिलवाने में कामयाबी हासिल की थी। जस्टिस चंद्रू मानवाधिकार-हनन के मामलों को बिना फ़ीस के लड़ते थे, इसलिए सेंगनी की मदद संभव हो पायी। उन्होंने हेबियस कॉरपस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) की याचिका के साथ मद्रास उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। जिससे प्रशासन पर ज़िम्मेदारी आती है कि वो अमुक व्यक्ति को अदालत में पेश करे। इसके बाद ही जाकर ये बात खुली कि राजकन्नू की मौत हो चुकी है मगर ये साबित न हो सका कि उनकी हिरासत में हत्या की गयी है। मामला सीबीआई जाँच के आदेश के साथ सेशन कोर्ट से होते हुए सबकी नज़र में आने लगा और अंततः सेशन कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ तमिलनाडु सरकार के मद्रास उच्च न्यायालय में निवेदन के बाद 13 सालों से खिंचते चले आ रहे इस कलंक पर वर्ष 2006 में न्याय की मुहर लगी।

ये तो थी असल घटना जिसके आधार पर निर्देशक टीजे ज्ञानवेल ने ‘जय भीम’ के रूप में एक बेहद निर्भीक प्रस्तुति करके पूरे देश के अलावा विश्वभर के सिनेमा दर्शकों तथा आलोचकों में हलचल पैदा कर दी है। जस्टिस चंद्रू का किरदार निभाया है जाने-माने अभिनेता सूर्या ने तथा लिजोमॉल होज़े ने सेंगई का। सवाल ये उठता है कि किसी भी सामाजिक न्याय के मुद्दे से जुड़ी फ़िल्म का आंकलन किन स्तरों पर होना चाहिए? मेरा ख़याल है कि एक अच्छी पटकथा, ज़रूरी मुद्दा, चित्रण में गंभीरता और संवेदनशीलता, निर्देशन, अभिनय में मौलिकता, उससे होने वाले समाज पर प्रभाव तथा उससे उठने वाले विमर्श की महत्ता तथा गुणवत्ता के आधार पर होना चाहिए।

आलोचकों का सवाल हो सकता है कि सूत्रधार अगर ईरुला समुदाय का नहीं तो कहानी की प्रमाणिकता को कटघरे में खड़ा किया जाए। सवाल ये भी होना चाहिए कि जब तक ईरुला समुदाय से कोई आकर ख़ुद सूत्रधार न बने तब तक ऐसी ज़रूरी घटना का चित्रण ना करना और ऐसे किसी भी दलित-आदिवासी विमर्श में हिस्सा न लेना कहाँ तक उचित है? क्या आने वाले समय में उस ईरुला समुदाय के व्यक्ति के लिए राह बनाना आज के निर्देशकों तथा कहानीकारों का उत्तरदायित्व नहीं? ताकि वो आकर पिछले तमाम नज़रियों पर सवाल खड़े कर सके और नए सिरे से अपनी कहानी अपनी ज़ुबानी सुनाए। बात जहाँ तक जस्टिस चंद्रू के किरदार को मसीहा के तौर पर दिखाने की है तो मेरी नज़र में राजकन्नू के न्याय के लिए जस्टिस चंद्रू के अथक प्रयासों तथा सेंगई की चट्टान जैसी हिम्मत में से किसी को कम श्रेय नहीं दिया जा सकता। ‘जय भीम’ न्याय के संघर्ष में हाशिये के लोगों पर गुज़रते बेशुमार ज़ुल्म के साथ ही न्याय की विडंबना की भी कहानी है। ये कहानी जीवनभर हमें अमानवीय अत्याचारों के ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए हिम्मत देने के लिए है। ये कहानी हमारी आत्मा के समीप एक पुराने जुर्म की याद के तौर पर मंडराते रहने के लिए है।

– उज़्मा सरवत

(कॉग्निटिव साइंस से एमएससी, आईआईटी गाँधीनगर)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here