2012 जून में छत्तीसगढ़ के सारकेगुड़ा गाँव में हुई कथित नक्सलवादियों से मुठभेड़ की जाँच रिपोर्ट आने के बाद जो कुछ पढ़ने-सुनने-जानने को मिला वह स्तब्ध कर देने वाला था।
17 लोग मारे गए। तब जब के अपने किसी त्योहार को मनाने के लिए बैठक कर रहे थे। उसमें 8-9 नाबालिग थे। एक रिपोर्ट तो यह भी कहती है कि उसमें वे बच्चे भी थे जिनके साथ जवान फुटबॉल खेलते थे। उन सबको बिना वजह माओवादी कहकर मार दिया जाता है।
जाहिर है मीडिया ने उस वक्त भी पुलिस की पीठ थपथपाई होगी ही। आज जब उस एनकाउंटर की रिपोर्ट आती है तब पता चलता है कि उस वक्त स्थानीय लोग और वहाँ काम कर रहे लोग जो कह रहे थे, वो सही कह रहे थे। पुलिस और सरकार किस तरह से काम करती है और उनके लिए मानवीय जीवन औऱ उसकी गरिमा का क्या मतलब है यह एक बार फिर उघड़कर आया।
दो दिन से वही सब देख-सुन-पढ़ रही थी, अभी उस शॉक से उबर भी नहीं पाई थी कि आज सुबह किसी दोस्त ने स्क्रीनशॉट भेजा कि हैदराबाद रेप केस के चारों आरोपी पुलिस के एनकाउंटर में मारे गए। खबर की तस्दीक करने के लिए बीबीसी खोला, खबर सही थी।
पहली ही प्रतिक्रिया सुन्न कर देने वाली थी। तुरंत ही यह विचार आया कि एनकाउंटर था या हत्या… पूरे घटनाक्रम को सप्ताह भर भी शायद नहीं हुआ होगा। पुलिस ने बड़ी फुर्ती दिखाई। यदि यही फुर्ती तेलंगाना पुलिस ने उस दिन दिखाई होती तो शायद वो बच्ची बच गई होती।
आज सुबह की खबर ने एकाएक बहुत सारे एनकाउंटर को रिकॉल करवा दिए। पुलिस किस तरह से काम करती है और बलात्कार तो बहुत दूर की बात है, छेड़छाड़ के मामलों में ही पुलिस का जो रवैया होता है उसे देखते हुए इस तरह से आरोपियों के एनकाउंटर ने अवाक कर दिया।
उस रात जब उस लड़की का फोन बंद आ रहा था, पिता पुलिस थाने गए थे। पुलिस, थानों की सीमा को लेकर 5 घंटे माथापच्ची करती रही। पिता को पहले कहा – ‘किसी के साथ भाग गई होगी!’
फिर रात साढ़े तीन बजे पुलिस वहाँ पहुँची। रात में कुछ मिलना नहीं था, नहीं मिला। सुबह पुलिस पिता को फोन करती है एक लाश मिली है। वे वहाँ पहुँचते हैं और सारा मामला खत्म हो चुका था।
उस दिन आक्रोश में भरे लोग आज जश्न मना रहे हैं। पुलिस के किए को न्याय मान रहे हैं। ये वही लोग हैं जो लिंचिंग की आलोचना करते हैं और पुलिस के एनकाउंटर को सही मानते हैं।
दरअसल हम लोग ‘शॉर्ट टर्म मैमरी लॉस’ का डीएनए लेकर पैदा हुए लोग हैं। अभी उस पूरे प्रकरण में पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए भी नहीं गए थे और पुलिस ने ये हीरोइक कारनामा अंजाम दे दिया।
पुलिस एकाएक हीरो हो गई। यकीन नहीं आता कि लोग किस कदर विवेक शून्य हो गए हैं। इसमें कई बुद्धिजीवी भी शामिल हैं।
मैंने पहले भी कहा था एक गलत प्रैक्टिस बाद में रूढ़ि बन जाती है। पुलिस के एनकाउंटर का जश्न मनाने वाले यह भूल जाते हैं कि अगली बार गोली मारने से पहले पुलिस आपसे पूछने नहीं आएगी कि ‘गोली चलाएं, आप हमारा समर्थन करेंगे न?’
दूसरे, कोई चार लोग पुलिस हमारे सामने लाकर खड़े कर देती है और कहती है कि ये आरोपी है और बिना अपराध सिद्ध हुए उन्हें मार दिया जाता है। उस पर आप खुश हो रहे हैं… जिस बात पर आपको चिंता करने की जरूरत है उस पर आप उत्साह में हैं।
यह व्यवस्था किसी योजना के तहत ही की गई है। पुलिस का काम कानून व्यवस्था बनाए रखना, आरोपियों को गिरफ्तार करना, जाँच के लिए सुबूत जुटाना है।
न्याय करना पुलिस का काम नहीं है। पुलिस को जो करना था, वो तो उसने किया नहीं। जो नहीं करना चाहिए था वह उसने किया और उस पर आप तालियां बजा रहे हैं।
इस पर तो बात करने का कोई मतलब ही नहीं है कि किस तरह मीडिया ट्रायल किसी भी केस को प्रभावित कर सकता है। हो सकता है कि तेलंगाना सरकार, प्रशासन और पुलिस ने अपनी अकर्मण्यता का दाग धोने के लिए यह एनकाउंटर कर दिया हो।
जो हो लेकिन सप्ताह भर में जो आक्रोश था, पुलिस ने चार जानें लेकर उसकी हवा निकाल दी।
खुश हो जाइये, आप ‘बनाना रिपब्लिक’ में हैं।