क्या मुस्लिम उदारवादी होने की भारी क़ीमत साधारण मुसलमान को चुकानी होगी ?

हिन्दू वामपंथी लिबरल, मुसलमानों के सार्वजनिक क्षेत्रों में सिर्फ उर्दू कविताओं और सूफी संगीत का आनंद लेने या मुगलई व्यंजनों को पसंद करने की हद तक ही सीमित न रहें बल्कि मदरसों और इस्लामी पाठशालाओं का भी दौरा करें ताकि यह समझ सकें कि वे किस हद तक 'सांप्रदायिक'  हैं|

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हिन्दू वामपंथी लिबरल, मुसलमानों के सार्वजनिक क्षेत्रों में सिर्फ उर्दू कविताओं और सूफी संगीत का आनंद लेने या मुगलई व्यंजनों को पसंद करने की हद तक ही सीमित न रहें बल्कि मदरसों और इस्लामी पाठशालाओं का भी दौरा करें ताकि यह समझ सकें कि वे किस हद तक ‘सांप्रदायिक’  हैं|

एक मुस्लिम होने के नाते, मैं यह कह सकता हूं कि एक साधारण मुसलमान के मन में धर्मनिरपेक्ष और राईट-विंग की राजनीति का अंतर बहुत कम हो गया है।

रामचंद्र गुहा के ‘त्रिशूल-बुर्का’ वाले तुलनात्मक सादृश्य ने एक बार फिर भारतीय मुसलमानों और उनके सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण की बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। भारतीय मुसलमान अब इस तरह की अरोचक बहसों को पढ़ते और देखते ऊब चुके हैं और ऐसे असंवेदनशील विचार-विमर्श के प्रति उनके मन में एक तरह की उदासीनता विकसित हो गई है।

 

जब भी इस तरह की बहसें शुरू होती हैं तब, “वह मुसलमानों के बारे में पर्याप्त नहीं जानते” जैसी  टिप्पणियां मुसलमानों में तेजी से आम हो जाती हैं । हिंदू, मुसलमानों को मुस्लिम नागरिक के रूप में न देखते हुए सिर्फ एक मुसलमान के रूप में देखते हैं।  यह बहुत दर्दनाक है और चिंता का विषय है जो अब उनकी राजनीतिक समझ में प्रतिबिंबित होता नज़र आ रहा है।

 

यह  रुझान  खतरनाक है, जिसपर गैर-मुस्लिम नागरिकों और समाज के बुद्धिजीवियों द्वारा पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। एक मुस्लिम होने के नाते, मैं यह कह सकता हूं कि एक साधारण मुसलमान के मन में धर्मनिरपेक्ष और राईट-विंग की राजनीति का अंतर बहुत कम हो गया है।

उदाहरण के लिए, आतंकवाद पर, एक उचित स्वीकृति यह होनी चाहिए कि भारतीय मुसलमानों की बड़ी संख्या मुख्यधारा की मानसिकता से सहमत नहीं है। मुसलमानों पर अस्वीकृति का आरोप लगाना आसान है, लेकिन उसके कारणों को नहीं पूछना और अधिक भयानक है।

ऐसे तीन प्रमुख मुद्दे हैं जो शायद  एक आम बुद्धिजीवी और मुस्लिम विरोधी जनवादी की भूमिका के बीच के अंतर को धुंधला कर देते हैं। यह काफी दिलचस्प है, जो मुसलमानों को मुस्लिम विरोधी दृष्टिकोण से बचाते हैं, जैसे रामचंद्र गुहा के मामले में, कभी-कभी उनकी रक्षा मुसलमानों का दायित्व बन जाता है।

 

पहला यह कि बहुत लंबे समय तक लिबरल और वामपंथी, हिंदू सांप्रदायिकता की घटना को कुछ ज़्यादा ही सरल बना रहे थे। वे यह चाहते थे कि मुसलमान हिंदू महासभा के “राष्ट्रवादी इतिहास” को स्वीकार करें और आरएसएस को मुस्लिम सांप्रदायिकता के प्रतिक्रियावादी उत्पाद के रूप में जानें। इसलिए हिंदू सांप्रदायिकता को रोकने के लिए, मुसलमानों को कुछ बलिदान करना चाहिए। बस इसके बाद से ही एक लंबी सूची बनती जाती है जिसका कोई अंत नहीं।

 

दूसरा यह कि  ऐतिहासिक रूप से हिंदू सांप्रदायिकता मुस्लिम सांप्रदायिकता का उत्पाद है, और बी.एस.मूंजे, एन.सी. केलकर के पूर्व बौद्धिक समझ को “प्रतिक्रियाओं” के रूप में खंडन किया गया है, वाम-लिबरल गठबंधन यह मानते हैं कि भारतीय मुसलमान अभी भी उसी राजनीतिक रिवायत का प्रयोग कर रहे हैं जैसा कि वह आज़ादी से पहले किया करते थे।

 

तीसरा, उनका एकतरफा सहज आदेश कि मुसलमानों को “प्रगतिशील” और “धर्मनिरपेक्ष” होना चाहिए और “मध्ययुगीन घेटो” से बाहर निकलना चाहिए।

अब यह महसूस होना शुरू हो गया कि एक बेहतर उदारवादी सिर्फ वो है जो उदारवादी होने के साथ हिंदू भी हो।

लेकिन मुसलमानों के मन में कुछ अलग ही बात है। भले ही उनको सार्वजनिक क्षेत्र के इस शोर शराबे में नहीं सुना जाता, वह इन तर्कों को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं कर सकते । प्रश्न से परे, भारतीय राष्ट्रवाद ने अल्पसंख्यक और दलित कल्पनाओं का एक व्यवस्थित बहिष्कार देखा है, वह भी इतना कि एक मुस्लिम न तो भारत माता की छवि पर सवाल उठा सकता है और न ही वंदे मातरम पर।

यह सुनना मुसलमानों के लिए काफी दुखद है जब भारतीय बच्चों को सिखाया जाता है कि मुसलमान बाहरी, आक्रमणकारी हैं जिन्होंने इस देश को लूट लिया है और इसका निहित समाधान – इंतेक़ाम/बदला है। यह प्रत्येक मुसलमान को आरएसएस का साहित्य पढ़ने के लिए परेशान करता है और बताता है कि मुसलमान न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है, बल्कि उन्हें उन देशों से पहचाना जाना चाहिए जिनसे विश्व सुरक्षा को खतरा है जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश और यहां तक कि कई अरब देश भी इनमें शामिल हैं – यह केवल वर्तमान समय के लिए ही नहीं बल्कि 1950 के दशक से इसको सच माना जा रहा है।

हिन्दुओं के द्वारा लगातार सवाल कि “आप यहां क्यों हैं, आप पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते?” मुसलमानों के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है।

भारतीय मुसलमानों के लिए, खुद को राष्ट्रवादी और मुस्लिम दोनों साबित करना, शशि थरूर या किसी अन्य हिंदू उदारवादी-वामपंथी व्यक्ति के अपने आप को राष्ट्रवादी और हिंदू कह देने भर से, कहीं ज़्यादा कठिन हैं। शायद मुस्लिम उदारवादी होने की भारी क़ीमत साधारण मुसलमान को चुकानी होगी । हिन्दू उदारवादी कभी यह विचार नहीं करता कि मुसलमानों से बलिदान की इतनी उम्मीद क्यों की जाती है जिससे वह अपनी मुसलमान होने की पहचान ही खो दें।

 

एक आम मुसलमान, हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता पर बिना राजनीतिक बाध्यता के ठोस चर्चा नहीं कर सकता। यहां तक कि मुसलमानों का “मध्ययुगीन घेटो” में रहने का आरोप, एक बहुसंख्यक सार्वजनिक क्षेत्र में बौद्धिक तुष्टिकरण के अलावा और कुछ नहीं है। यह अजीब और आश्चर्यजनक है कि भारतीय समाज को पश्चिमीकरण से बचाने के लिए कई व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्ष के बावजूद हिंदू उदारवादी भारतीय मुसलमानों के सार्वजनिक क्षेत्रों से इतने अनजान हैं।

जब हामिद दलवई और उनको पसंद करने वाले कहते हैं कि “भारतीय मुसलमानों में, ऐसा कोई उदारवादी अल्पसंख्यक नहीं है जो लोकतांत्रिक उदारवाद के प्रति आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है”, वे अनिवार्य रूप से मुसलमानों को बिना विवेचनात्मक सोच के अधीन होने की उम्मीद करते हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवियों के पश्चिमी दर्शन के बारे में विचार-विमर्श से यह पता चलता है कि उनकी सोच तर्कहीन नहीं हैं। जरूरत इस बात कि है कि उनके साथ संलग्न हुआ जाए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विभिन्न दृष्टिकोण के बीच बातचीत में व्यापक श्रोताओं के साथ उनको जोड़ा जाए। अगर दिवंगत दलवाई अपने हिंदू मित्रों से कहते कि केरल के सलफी सुधारकों की अगुवाई वाले पहले शैक्षिक आंदोलन, नदवतुल मुजाहिदीन ने सह-शिक्षा की वकालत की थी और 1920 के दशक के शुरूआती सालों में जन साक्षरता अभियान चलाया था, तो श्री दलवई मुस्लिम उदारवादियों का आवरण खंडन करने में सावधान रहते।

 

यह स्पष्ट है कि हिंदू उदारवादी एक सशक्त मुस्लिम सार्वजनिक क्षेत्र के अस्तित्व से अनजान और शायद नकारने की स्थिति में हैं। यह क्षेत्र हिंदूओं के सामान देशी भाषा में तर्कसंगत रूप से आम मुद्दों पर बहस करने में भी सक्षम हैं। हिन्दू वामपंथी लिबरल, मुसलमानों के सार्वजनिक क्षेत्रों में सिर्फ उर्दू कविताओं और सूफी संगीत का आनंद लेने या मुगलई व्यंजनों को पसंद करने की हद तक ही सीमित न रहें बल्कि मदरसों और इस्लामी पाठशालाओं का भी दौरा करें ताकि यह समझ सकें कि वे हिन्दू सांप्रदायिक स्थानों के मुकाबले किस हद तक सांप्रदायिक हैं।

उन्हें पता होना चाहिए कि “मुस्लिम सांप्रदायिकता” की संख्या पर दोबारा से गौर करने की आवश्यकता है, खासकर तब जब मुसलमान अपनी सबसे कमजोर स्थिति में हैं। शायद राजनीतिक जनवादी प्रयोजनों के लिए आरएसएस सांप्रदायिकता की संस्थागत क्षमता को हमेशा हिंदू वाम-उदारपंथियों द्वारा कार्य में लाया जाता है। मुसलमान इस तथ्य से निरंतर जागरूक रहते हैं कि आरएसएस का एजेंडा राजनीतिक प्रणाली में उसके लचीले ढंग से काम करने की क्षमता के कारण, भाजपा के साथ या उसके बिना भी, सुरक्षित है।

जब तक मुसलमान अपनी व्यक्तिगत, धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक और लैंगिक पहचान को चुनने में स्वतंत्र न हों तब तक इस देश का एक समान नागरिक बनने का सपना इन पहचानों के बदले में नहीं होना चाहिए। “हिंदू लिबरल” और “हिंदू कम्युनिस्ट्स” के साथ समस्या यह है कि वे अपनी पहचान हिंदू, लिबरल, वामपंथी, डेमोक्रेट, एक साथ सभी को बनाए रखने में सक्षम हैं, लेकिन मुसलमानों में ये अवसर देखने को नहीं मिलता है।

इस बीच, हिंदू राजनेता राजनीतिक पक्षों को आसानी से बदल लिया करते हैं।

कांग्रेस पार्टी शिथिल हिंदुत्व और समाजवाद के बीच रह सकती है, कम्युनिस्ट दल मुख्यधारा वाले हिंदू दलों के रूप में व्यवहार कर सकती हैं – लेकिन मुसलमानों को इस लचीलेपन का आनंद लेने की कोई अनुमति नहीं है। जब आरएसएस और हिंदू महासभा ने कांग्रेस पर “छद्म राष्ट्रवादी” होने का आरोप लगाया, तब कांग्रेस पार्टी ने कट्टरपंथियों को अपने साथ शामिल कर राष्ट्रवाद की एक लचीली व्याख्या को अपनाया। जब कांग्रेस को तथाकथित रूप से अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के लिए “छद्म धर्मनिरपेक्ष” कहा गया, तब कांग्रेस ने आरोपों के प्रति संवेदनशील होकर मुसलमानों के सामाजिक न्याय के एजेंडे को स्थगित कर दिया।

भारतीय मुस्लिमों का मानना है कि जब बहुसंख्यक लोकप्रियता एक नया मानक हो तो रामचंद्र गुहा समेत हमारे समाज के बुद्धिजीवि “हिंदू विरोधी” बनने का ख़तरा नहीं उठा सकते।

 

उमैर अनस

(लेखक Indian Council OF World Affairs मैं फेलो हैैंैं)

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