गंभीरता से सोचने-समझने का समय है कि जिस राज्य को सांप्रदायिकता मुक्त,दंगा मुक्त और सामाजिक सद्भाव का उदाहरण बता-बता कर हम पीठ थपथपाते रहे आज वो राज्य नफरत की आग में क्यूँ जल रहा है.
जो बिहार ‘रथ यात्रा’ के भयानक फ़सादी समय में भी शांत रहा,जहाँ कमंडल की बंटाधार करने वाली राजनीति की एक ना चली,जहाँ बार-बार जनसंघी राजनीति का प्रारूप घुटने टेकता नज़र आया वहाँ आज फ़साद और नफ़रत की फसल लहलहा रही है,लोगों के मन-मस्तिष्क में घृणा की आग धधक रही है । ऐसा आख़िर क्यों हुआ???
सामाजिक सद्भाव बनाना कोई दो दिन का काम नहीं है कि आज दंगा हुआ और कल हम लोगों के दिलों से क्लेश और घृणा की दीवार ढहा कर उनमें प्रेम और भाईचारे का फूल खिला देंगे!
यह सद्भाव दशकों और सदियों तक एक साथ रहते हुए एक समुदाय से दूसरे समुदाय के सांस्कृतिक और सामाजिक आदान-प्रदान , सामुहिक लाभ-हानि की संकल्पनाओं और एक दूसरे के पारस्परिक सम्मान की भावना से बनता है । जबकि इसे बिगाड़ डालने के लिए वर्तमान में निकलने वाला ‘रामनवमी’ जैसा एक जूलूस काफी है ।
सामाजिक सद्भाव का नारा लगाने वाले सामाजिक संगठन और कार्यकर्ता नारा लगाते रह गए और ‘संघ’ जैसी ताकतें चुपचाप पूरी तल्लीनता से इस राज्य की मिट्टी में ऐसे बीज बोते रहे जिनसे नफरतों के भयावह वटवृक्ष जन्म ले सकें । इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया,मंच सजते रहे, हर कोई सद्भावना का बखान करता रहा मगर जिस सद्भावना के लिए एक-एक मानस तक जाकर उसके हृदय पर दस्तक देनी थी ,वो किसी ने नहीं किया ।
‘संघ’ को पिछले दस सालों में बिहार के अंदर मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण भी सांप्रदायिकता के विषाणुओं को घर-घर पहुँचने का एक बड़ा कारण बना है .
रही-सही कसर मीडीया की दिन-रात की सांप्रदायिक बहसों ने उत्प्रेरक बन कर पूरी कर दी!
वो नई नस्ल से ऐसे मानस तैयार करने में कामयाब रहे जिनकी एक ‘आइडेंटिटी’ उनकी तमामतर महत्वपूर्ण ‘आइडेंटिटीज़’ पर हावी हैं । वो उन लोगों को भी ‘हिन्दू’ बनाने में सफल रहे जिन्हें वो अपने बगल में बैठने तक नहीं देते, जिनसे उन्होंने कोई सामाजिक संबंध कभी रखना नहीं चाहा। उन लोगों को वो अपनी वैचारिकता में ढालने में पूरी तरह कामयाब हो गए जिनके समुदाय के एक मुख्यमंत्री को इसी बिहार में मंदिर की सीढीयां चढने पर अपमान का दंश झेलना पड़ा था और फिर मुख्यमंत्री के जाने के बाद पूरे मंदिर को धोया गया था ।
सद्भाव का नारा लगाने वालों ने कभी मौजूदा समाज के जड़ों तक जाकर निरीक्षण करने की आवश्यकता नहीं समझी, उन्हें लगा सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है, सद्भाव कायम रखने के लिए उनके ‘टेबल-टाक्स’,एलीट तबकों के बीच सेमिनार और दीगर कार्यक्रम काफ़ी हैं । मगर एलीट तबक़ों में ‘सद्भाव’ का संदेश देने वाले ये लोग उस ‘तबक़े’ को भूल गए जो गांव-देहातों में बसता है और शहरों में गली-कूचों में फिरता तथा दंगे के समय सबसे आगे तलवार-त्रिशूल लेकर निकलता है ।
क्या उनके ‘टेबल-टाक्स’ और सेमिनार का संदेश समाज की अंतिम इकाई पर मौजूद इस आबादी तक पहुँच पाता है?
अब जब परती ज़मीन पर बोई गई घृणा की फसल लहलहा रही है तो सब परेशान हैं, इसके तात्कालिक हल खोज रहे हैं, सामाजिकता समाप्त हो गई है तो शासन-प्रशासन से आस लगा रहे हैं मगर दुर्भाग्य तो यह है कि वहां भी पहले से ही नफरत के कारिंदे बिठा दिए गए हैं । अभी कुछ ही रोज़ पहले की तो बात है कि भागलपुर 1989 के दंगों में ‘सक्रिय भूमिका ‘ अदा करने वाले पुलिस अधिकारी के.एस द्विवेदी को ‘सुशासन कुमार ‘ ने बिहार का नया डीजीपी बना दिया । सो दंगों के दौरान पुलिस की भूमिका में क्या नतीजे पैदा होंगे यह सहज ही समझा जा सकता है ।
सब तरफ दावानल भड़का हुआ है,एक के बाद एक ज़िले इस चपेट में आ रहे हैं हर त्योहार अब यहाँ काल की तरह बनकर आता है और बहुत कुछ लील जाता है …अब देखिए कब तक झुलसती है ये ज़मीन ….
शादाब आनंद