एक, दो या तीन नहीं बल्कि पूरे सौ से भी ज्यादा मासूम बच्चों की मौत एक साथ हो जाए तो इसे सिर्फ लापरवाही कह कर नहीं टाला जा सकता, ये एक तरह एक नरसंहार है। ये कैसी व्यस्था है जिसमें एक, दो नहीं बल्कि दस से ज्यादा मौते होने तक तो किसी पर जूं भी नहीं रेंगी और जब ये आंकड़ा सौ से अधिक हुआ तो राज्य से लेकर पूरे देश में हडकंप मच गया। ये जो आनन फानन में कुछ व्यवस्थाओं को सुधारने का प्रयास अब किया जा रहा है अगर यही प्रयास समय रहते किया जाता तो शायद इतने मासूम मौत की भेंट नहीं चढते।
आखिर क्यों हमारा सिस्टम इतना पंगु हो गया है कि कुछ नुकसान से तो हम नींद से ही नहीं जाग पाते?
क्यों सरकार और प्रशासन की आंखे तब खुलती हैं जब तक बहुत देर हो चुकी होती है?
इन सेंकड़ों बच्चों की मौत की ज़िम्मेवारी किसके सर पर है?
आखिर क्यों देश में हर साल, दस लाख बच्चे अकाल मौत के शिकार हो रहे हैं?
अगर समस्या निमोनिया या डायरिया जैसी बीमारियों की है तो फिर इन जानलेवा बीमारियों की रोकथाम के लिए क्या किया जा रहा है?
क्यों हर साल सर्दियों के मौसम में राजकीय अस्पतालों में ऑक्सीजन, वार्मर आदि आवश्यक उपकरणों की कमी हो जाती है?
कोटा हो या गोरखपुर, उत्तर प्रदेश हो या राजस्थान, लापरवाही सरकार की हो या अस्पताल प्रशासन की लेकिन इन सबमें पिसता केवल आम आदमी है। कोटा की इस ह्रदय विध्वंसक घटना से पूरा देश हिल गया जबकि सूबे के चिकित्सा मंत्री ने इतने दिन बाद आकर अस्पताल की सुध ली।
जिस कोटा शहर में पूरी दुनिया से छात्र छात्राएं डॉक्टर बनने के लिए आते हैं, उन्हीं की नाक के नीचे सेंकड़ों मासूम अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं। बच्चों का ये नरसंहार सिर्फ कोटा ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यों में हो चुका है और अभी भी निरंतर हो रहा है। राजस्थान का बीकानेर, बिहार का मुजफ्फरपुर, मध्य प्रदेश का इदौंर सहित कई बड़े शहरों में बच्चो की मौत का ये सिलसिला काफी चिंतनीय है। पक्ष विपक्ष का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप जारी है जबकि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार तीनों राज्यों में अलग अलग दलों की सरकारों के कार्यकाल में भी मासूम बच्चों की अनगिनत मौते हो चुकी है। गुजरात में भी पिछले अक्टूबर, नवंबर और दिसम्बर में काफी बच्चों की मौते हो चुकी है जिसका खुलासा अभी कुछ ही दिनों पूर्व मीडिया में हुआ। आज तक किसी सरकार ने इन अकाल मौतौ की जिम्मेदारी नहीं ली है तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन लापरवाहीयों का जिम्मेदार कौन है ?
अगले कुछ दिनों में सरकारें अपनी तरफ से सफाई देकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेगी। मीडिया दूसरी खबरों को दिखाने मे व्यस्त हो जाएगा। शेष समस्त लोगों का जन जीवन फिर से सामान्य होकर दूसरे मुद्दों मे खो जाएगा मगर उनका क्या..? उनका, जिन्होंने बीते कुछ दिनों में अपने जिगर के टुकड़ों को खोया है।
माता या पिता बनना जीवन का एक सुखद अहसास होता है। पिता अपनी आने वाली सन्तान को लेकर अपने हृदय में कई सपने संजो लेता है और माता की ममता का तो कोई वर्णन ही नहीं किया जा सकता है। समन्दर की गहराई नापना सम्भव है, धरती और आसमान का क्षेत्रफल पता करना भी सम्भव है लेकिन एक माँ का अपने बच्चों के लिए स्नेह, ना नापा जा सकता है और ना किसी से तुलना
किया जा सकता है तो फिर ऐसे में उन माताओं पर अभी क्या बीत रही होगी जिन्होंने अपने लाडलों को खोया है। ना जाने कितने अरमानो को लेकर वो मातायें और पिता अस्पताल में इस उम्मीद से आए होंगे कि उनकी दुनिया आबाद होने वाली है लेकिन उन अभागो को क्या पता था कि जंहा उनकी दुनिया आबाद होगी उसके कुछ ही देर बाद वही उनकी दुनिया उजड़ भी जाएगी।
मजबूरी, हालात और सिस्टम का मारा एक आम आदमी जाए तो कहां जाए?
सरकार की लापरवाही में मासूमों का नरसंहार!
जिस कोटा शहर में पूरी दुनिया से छात्र छात्राएं डॉक्टर बनने के लिए आते हैं, उन्हीं की नाक के नीचे सेंकड़ों मासूम अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं। बच्चों का ये नरसंहार सिर्फ कोटा ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यों में हो चुका है और अभी भी निरंतर हो रहा है। राजस्थान का बीकानेर, बिहार का मुजफ्फरपुर, मध्य प्रदेश का इदौंर सहित कई बड़े शहरों में बच्चो की मौत का ये सिलसिला काफी चिंतनीय है।