फणीश्वर नाथ रेणु : धरती का धनी कथाकार
मंज़र आलम
हिंदी जगत के कालजयी हस्ताक्षर अमरकथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु का आज जन्मदिन है। वह 4 मार्च 1921 को बिहार स्थित अररिया ज़िले के एक छोटे से गांव औराही हिंगना में पैदा हुए थे। रेणु जी को हिंदी कहानी में देशज समाज की स्थापना का श्रेय हासिल है। आंचलिक कथाकार के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले रेणु जी के उपन्यास और कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग की झलक मानो हिंदी कथा साहित्य में संभवतः पहली बार घटित हुई थी। उनकी लेखनी ने साबित कर दिया कि शब्दों से सिनेमा की तरह दृश्यों को जीवंत भी किया जा सकता है।
उनकी कहानी “मारे गए गुलफ़ाम” पर आधारित बासु भट्टाचार्य निर्देशित फिल्म “तीसरी कसम” हिंदी सिनेमा का मील स्तम्भ माना जाता है। रेणु की साहित्यिक धारा से बिल्कुल अलग लिखने वालों को भी उनकी क़लम की ताक़त से इन्कार नहीं था। उनके घनिष्ठ मित्र रहे प्रसिद्घ लेखक अज्ञेय जी ने उन्हें “धरती का धनी कथाकार” बताया तो उनके समकालीन कथाकार निर्मल वर्मा ने रेणु जी के बारे में कहा कि “मानवीय दृष्टि से सम्पन्न इस कथाकार ने बिहार के एक छोटे से भूखंड की हथेली पर किसानों की नियति की रेखा को उजागर कर दिया था।”
इनके पहले उपन्यास “मैला आंचल” के लिए 1954 में उन्हें पद्म श्री सम्मान से नवाज़ा गया। उनकी प्रमुख कृतियां – मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस, कितने चौराहे, पल्टू बाबू रोड (उपन्यास) ठुमरी, आदिम रात्री की महक, एक श्रावणी की धूप, अग्निखोर (कहानी संग्रह) ठेस, संवदिया, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, मारे गए गुलफ़ाम, आदि हैं।
साहित्य चाहे किसी भी भाषा अथवा बोली में रचा जाए, उसका महत्व तभी है जब उसमें अतीत से मिले सबक हों और बेहतर भविष्य के निर्माण की परिकल्पना। हिंदी साहित्य में ऐसे रचनाकार जिनकी रचनाओं में यह बात स्पष्ट दिखती है, उनमें फणीश्वर नाथ रेणु अग्रणी हैं। इसकी ख़ास वजह यह कि उनकी रचनाओं में वर्तमान के द्वंद्व तो होते ही हैं लेकिन एक बुनियाद भी होती है जिसके सहारे वह बेहतर समाज के निर्माण का सपना संजोते हैं।
रेणुजी की विशेषता रही कि उन्होंने वंचित तबकों की आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को बेहद गहराई से समझकर उसके हर पक्ष को उजागर किया। जब हम रेणुजी की कालजयी कृतियां पढ़ते हैं तो हम अनायास ही एक प्रक्रिया से गुज़र रहे होते हैं जिसके ज़रिए एक गांव करवटें बदलता है।
फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी साहित्य के ऐसे अद्वितीय साहित्यकार रहे जिन्होंने लोकतंत्र को महत्व दिया। रेणु जी ने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी हिस्सा लिया। आज लोकमन के मर्मज्ञ कलाकार फणीश्वर नाथ रेणु के नहीं होने के चार दशक बाद भी जब हम उनकी रचनाओं को पढ़ते हैं तो मनोविज्ञान पर उनकी पकड़, गाँव को देखने से ज़्यादा जीने वाली प्रतिभा पर आश्चर्य में डूब जाते हैं। आज उनकी 102वीं जयंती है। उनकी यादें हम सब के लिए प्रेरणा पूंजी है।