बिहार की बदहाल शिक्षा व्यवस्था का ज़िम्मेदार कौन?

एक ओर जहाँ शिक्षकों की घोर कमी है वहीं शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी/एसटीईटी) उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की एक बड़ी संख्या सड़कों पर बेरोज़गार घूम रही है और लगातार संघर्ष करते हुए पुलिस की लाठियां खा रही है। पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग भी समय-समय पर उठती रही है परन्तु इस पर कोई ठोस पहल अब तक नहीं हुई है। ऐसी ही कई समस्याएं हैं जो बिहार की शिक्षा व्यवस्था की राह में रोड़े अटका रही हैं।

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बिहार की बदहाल शिक्षा व्यवस्था का ज़िम्मेदार कौन?

मंज़र‌ आलम

शिक्षा हम सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए एक आवश्यक माध्यम है। अच्छी शिक्षा लोगों को सामाजिक व पारिवारिक सम्मान एवं अद्वितीय पहचान अर्जित करने में मदद करती है। वास्तव में शिक्षा वही सफल है जो हमें जीवन जीने की कला एवं सत्य-असत्य के मध्य अंतर करना सिखाए ताकि हम जीवन में निर्भीक होकर आगे बढ़ सकें। शिक्षा का मतलब केवल संख्याओं, आंकड़ों, और सूचनाओं का संग्रह कर लेना, रट्टे मारकर परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त कर लेना और महज़ डिग्रियाँ जमा कर लेना भर नहीं है अपितु शिक्षा तो वह चीज़ है जो हमें अपने अधिकारों के प्रति सजग और कर्तव्यों के प्रति उत्तरदायी बनाए और हमारे मस्तिष्क के अंदर एक स्वस्थ्य एवं सकारात्मक मानसिकता को जन्म दे।

नेल्सन मंडेला कहते थे, “शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसका उपयोग आप दुनिया को बदलने के लिए कर सकते हैं।”

किसी भी राष्ट्र का सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। यदि देश या प्रदेश की शिक्षा नीति सुदृढ़ नहीं होगी तो वहाँ की प्रतिभा दबकर रह जाएगी। नि:संदेह शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है। बिहार में प्रतिभाओं की प्रचुरता से कोई इन्कार नहीं कर सकता। अतीत में ही नहीं बल्कि वर्तमान में भी बिहार की प्रतिभा ने न सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में भी अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाया है, परंतु वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य में दुनिया को ज्ञान का संदेश देने वाले बिहार की शिक्षा व्यवस्था बदहाली का शिकार है।

विश्वविद्यालयों व कालेजों में जहाँ अध्यापकों की घोर कमी है वहीं कई क्षेत्रीय भाषाएं अंगिका, मगही, अवधी, वज्जिका, भोजपुरी साहित्य के कोर्सेज़ विलुप्तता की कगार पर हैं क्योंकि इसे पढ़ाने वाले अध्यापकों की कमी है। सरकारी महाविद्यालयों में नियमित क्लासेज़ नहीं हो रही हैं। राज्य के अधिकांशतः माध्यमिक विद्यालय व उच्च माध्यमिक विद्यालय शिक्षक विहीन हैं। उनकी कमी को पूरा करने के लिए समय-समय पर शिक्षकों की बहाली तो हुई परंतु वह पर्याप्त नहीं है। प्रदेश के मध्य विद्यालयों में बहाल स्नातक ग्रेड के शिक्षकों का प्रति नियोजन कर कमियों को पाटने की कोशिश तो की जा रही है परंतु उन मध्य विद्यालयों में विषयवार शिक्षक कहाँ से आएंगे इसकी चिंता क्या सरकार को है? बावजूद इसके प्रत्येक वर्ष वहाँ से सैकड़ों विद्यार्थी मैट्रिक व इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर रहे हैं। प्रत्येक वर्ष बिहार विद्यालय परीक्षा समिति पटना द्वारा आयोजित होने वाले माध्यमिक एवं इंटरमीडिएट परीक्षा का शानदार रिज़ल्ट इस बात का द्योतक है कि बिहार में शिक्षा व्यवस्था काफ़ी सुचारू रूप से चल रही है। गौरतलब है कि बग़ैर शिक्षक और बिना अध्यापन के यदि परीक्षा परिणाम बेहतर हो तो फिर शिक्षक बहाली की क्या आवश्यकता है? ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों ने अपनी पढ़ाई किस परिस्थिति में की होगी!

प्रदेश के प्राथमिक व मध्य विद्यालय की बात करें तो स्थिति कुछ भी भिन्न नहीं है। शिक्षकों को कई कोटियों में बांट दिया गया है। ग्रेजुएट लेवल के विषयवार शिक्षकों की नियुक्ति के नाम पर सिर्फ़ खानापूर्ति की गई है। नतीजतन बेसिक लेवल के शिक्षकों के भरोसे ही कक्षा एक से लेकर आठ तक पढ़ाई होती है। छात्रों के अनुपात में वहां भी शिक्षकों की कमी देखी जा सकती है। अधिकांश नवसृजित प्राथमिक विद्यालयों में एकल शिक्षक हैं जिसका सीधा असर बच्चों के पठन-पाठन पर होता है।

यह एक कटु सच्चाई है कि सरकारी विद्यालयों में नामांकित अधिकांश बच्चे आर्थिक रूप से पिछड़े, ग़रीब, वंचित समाज के होते हैं। अक्सर सम्पन्न और उच्च व मध्यम वर्ग के बच्चे तो प्राइवेट स्कूलों में अपने भविष्य का निर्माण करते हैं। नेताओं और नौकरशाहों की बात तो दूर, अधिकांशतः विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों के बच्चे भी सुविधा सम्पन्न प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाई करते हैं। भला ऐसे में उन्हें सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा की चिंता क्यों हो? इसका एकमात्र कारण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी है। समान विद्यालय प्रणाली का मुद्दा ठंडे बस्ते में पड़ा है।

प्रथम जैसी संस्थाओं की रिपोर्टें चौंकाने वाली होती है। विभागीय अधिकारियों की लापरवाही और सरकार की दोहरी नीति का ख़ामियाज़ा समाज के पिछड़े और ग़रीब बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। प्रदेश की सत्तारूढ़ सरकार शिक्षकों को समुचित सम्मान भी नहीं देती। न सिर्फ़ शिक्षकों को कई वर्गों में बांटा गया है बल्कि समान कार्य के लिए समान वेतन भी नहीं दे रही है।

एक ओर जहाँ शिक्षकों की घोर कमी है वहीं शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी/एसटीईटी) उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की एक बड़ी संख्या सड़कों पर बेरोज़गार घूम रही है और लगातार संघर्ष करते हुए पुलिस की लाठियां खा रही है। पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग भी समय-समय पर उठती रही है परन्तु इस पर कोई ठोस पहल अब तक नहीं हुई है। ऐसी ही कई समस्याएं हैं जो बिहार की शिक्षा व्यवस्था की राह में रोड़े अटका रही हैं।

इसके लिए किसी एक पक्ष को कोसना कदापि उचित नहीं होगा। राज्य में शिक्षा की वर्तमान स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन के लिए सरकार,  शिक्षा विभाग, समाज, शिक्षक और विद्यार्थियों को समान रूप से सक्रिय होना होगा। शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार है, अतः सर्वप्रथम बच्चों के माता-पिता को इसके लिए जागृत होना आवश्यक है परंतु दुर्भाग्यवश अधिकांश माता-पिता शिक्षा के प्रति उदासीन हैं। धनार्जन उनका एकमात्र लक्ष्य बन गया है। उन्हें इसका एहसास ही नहीं कि विद्या से बढ़कर कोई धन नहीं।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) का कथन है, “बच्चों के लिए माता-पिता का सर्वोत्तम उपहार उनकी बेहतर शिक्षा और प्रशिक्षण है।”

विद्यालय को योजनाओं की वितरण स्थली की छवि से मुक्त कराना सरकार के लिए एक चुनौती है। ऐसे माता-पिता जो अपने बच्चों को विद्यालय नहीं भेजकर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, उनके विरुद्ध कठोर क़ानून का प्रावधान हो, तब जाकर उनमें कोई एहसास जागेगा। सरकार द्वारा बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जा रही है। इसके अतिरिक्त कई योजनाएँ चलाई जा रही हैं जिनमें छात्रवृत्ति, पोशाक योजना, साइकिल योजना, मिड डे मील, उन्नयन बिहार अंतर्गत स्मार्ट क्लास, खेल सामग्री, किलकारी जैसे कई कार्यक्रम मौजूद हैं।

सरकारी विद्यालयों के प्रति जहां सरकार की नीतियां दोषपूर्ण हैं वहीं समाज का नज़रिया भी भेदभाव से भरा है। समाज सरकारी विद्यालयों को हीन दृष्टि से देखता है, वहीं पब्लिक स्कूलों को सम्मानजनक स्थान देता है। समाज के मध्यम व निम्न वर्गों के बच्चे ही सरकारी विद्यालयों के प्रांगण में देखे जा सकते हैं जबकि उच्च वर्ग यथा नौकरशाहों, नेताओं, उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के बच्चे बड़े-बड़े प्राईवेट स्कूलों और कालेजों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। ऊंची फीस के बल पर सुविधाओं से युक्त महंगी शिक्षा भला अन्य को कहां मयस्सर? समाज के मध्यम व निम्न वर्गों के बच्चों के भाग्य में आता है बुनियादी सुविधाओं से वंचित सरकारी विद्यालय। जहां सिर्फ़ काग़ज़ी घोड़े दौड़ा कर विकास की गाथा गढ़ी जाती है।‌ शत प्रतिशत नामांकन, उपस्थिति वर्ग व्यवस्था से लेकर मूल्यांकन तक को काग़ज़ी आंकड़ों के सहारे दर्शाया जाता है। गाहे-बगाहे मीडिया रिपोर्टों के अलावा इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। अत: जब तक समान विद्यालय प्रणाली लागू नहीं की जाएगी शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प नहीं हो सकता।

शिक्षा विभाग के पदाधिकारियों द्वारा विद्यालय निरीक्षण के क्रम में शिक्षा की गुणवत्ता, योजनाओं और बुनियादी सुविधाओं के भौतिक सत्यापन करने की ख़बर विरले ही मिलती है। शिक्षा विभाग के कार्यालय में भ्रष्टाचार और धन उगाही के उद्देश्य से विद्यालय निरीक्षण आम बात है जिससे न सिर्फ़ उनकी छवि धूमिल हुई है बल्कि उनका भय भी समाप्त हो गया है। अत: शिक्षा विभाग के पदाधिकारियों के द्वारा नियमित रूप से विद्यालयों का पूर्ण रुपेण निरीक्षण हो तथा बेहतर शिक्षा हेतु शिक्षकों को सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए। जहाँ शिक्षकों को सम्मान देकर हम शिक्षा को उंचाईयों तक ले जा सकते हैं वहीं हमें बतौर शिक्षक आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर अपने अतुलनीय योगदान से राष्ट्र निर्माता होने का सबूत पेश करना होगा।

छात्र एवं शिक्षक संगठनों को चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त कुव्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ को प्राथमिक स्तर पर उठाएं। सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद भी विद्यालयों​ में बुनियादी सुविधाओं यथा श्यामपट्ट, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, उपस्कर, शौचालय, चहारदीवारी, स्वच्छ जल, खेल सामग्री आदि की घोर कमी है जिससे विद्यालय के प्रति आकर्षण की कमी हो जाती है। अगर कुछ योजनाओं का लाभ मिल भी रहा है तो वह बंदरबांट का शिकार है जिसमें मध्याह्न भोजन योजना प्रमुख है। शिक्षकों की नियुक्ति व वेतन के लिए सरकार सीधे तौर ज़िम्मेदार है। दोषपूर्ण नियोजन प्रणाली और कम वेतन देकर शिक्षकों की गरिमा को ठेस पहुंचाया जा रहा है, फलस्वरूप न तो शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं और न ही समाज अपेक्षित सम्मान दे रहा है जिसका सीधा असर विद्यार्थिंयों पर पड़ रहा है।

इसके अतिरिक्त ग़ैर शैक्षणिक कार्यों में सहभागिता और समय-समय पर बेतुके  विभागीय फ़रमान शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह बाधित करते रहे हैं। विद्यालयों में रिपोर्टिंग का अनवरत सिलसिला चलता ही रहता है। कोई ऐसी शिक्षक गोष्ठी नहीं जो रिपोर्टों के लम्बे चौडे़ फेहरिस्तों और  विभागीय फरमानों से ख़ाली हो। नतीजतन प्रधानाध्यापक सहित अधिकांश शिक्षक इसी कार्य में व्यस्त रहते हैं। क्या सरकार यह नहीं जानती कि प्राथमिक और मध्य विद्यालयों में क्लर्क की सुविधा नहीं है? असल में शिक्षकों को इतना उलझा कर रखा जाता है कि उसे अध्ययन-अध्यापन के लिए सोचने का समय ही नहीं दिया जाता। अत: शिक्षकों को शिक्षण कार्य के अलावा अन्य कार्यों से शीघ्र मुक्त करना और शिक्षा के प्रति ज़िम्मेदार बनाना होगा।

प्राथमिक स्तर से ही परीक्षा प्रणाली में सुधार लाया जाए ताकि छात्र कठिन परिश्रम का आदी बने। छात्रों के शैक्षणिक स्तर की बुनियाद ही कमज़ोर रहती है फलत: माध्यमिक शिक्षा या उच्च शिक्षा में कदाचार उनका एकमात्र सहारा होता है। छात्र अनुपात को देखते हुए यथाशीघ्र योग्य शिक्षकों की नियुक्ति की जाए। सरकारी शिक्षा-व्यवस्था को कमज़ोर कर शिक्षा के निजीकरण की एक गहरी साज़िश रची जा रही है, इसलिए समय रहते सजग होने की आवश्यकता है‌। आशा है हम इन सुझावों पर ग़ौर कर हमारी सरकार, हम, आप और सब मिलकर बिहार की खोयी हुई प्रतिष्ठा को वापस लौटा पाएंगे।

(लेखक ऑल इंडिया आईडियल टीचर्स एसोसिएशन, बिहार प्रदेश सलाहकार समिति के सदस्य हैं।)

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