एक बार फिर जेएनयू खबर में है। जेएनयू का छात्र आंदोलन खबर में है। छात्रों ने संसद तक लॉन्ग मार्च किया। पुलिस ने रोका लाठी चलाई, कई छात्र घायल हुए जाहिर है ऐसे में इस पर खबर बनती है। घायल हुए किस रूट से गए क्यों गए ये सवाल हैं जाएज़ है। लेकिन यह आंदोलन एक बहुत गहरा और बड़ा सवाल उठाता है। यह सवाल सिर्फ जेएनयू का नहीं है, ये सवाल मेस का नहीं है। इस देश के भविष्य से जुड़े हुए एक बहुत ही बड़े सवाल की हम चर्चा कर रहे हैं। मैं सलाम करता हूँ जेएनयू के विद्यार्थियों को इन्होंने इस बड़े सवाल को उठाया।
बड़े सवाल पर आने से कुछ सवाल । क्योंकि जब जेएनयू की चर्चा होती है तो हर तरह की बातें शुरू हो जाती है। मैं आमतौर पर इससे दूर रहता हूँ। मैं खुद जेएनयू में पढ़ा हूँ 1981 से 83 तक लेकिन जेएनयू के बारे में जमकर बोलना और मैं जेएनयू वाला हूँ इस तरह की प्रवृत्ति से दूर रहा हूँ। लेकिन जिस किस्म की बातें इस चर्चा में बोली जा रही है वो बहुत ही वाहियात बातें हैं। जेएनयू को अच्छा माने बुरा माने सहमत हो या असहमत हों विचारधारा अच्छी लगे या बुरी लगे लेकिन ये देश की उन चंद यूनिवर्सिटियों में से है जिसके बारे में विदेश में जाकर भारत के बारे में गौरवान्वित होकर दो बात कह सकते हैं।
वर्तमान में नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी भी जेएनयू से हैं। देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी जेएनयू से हैं। जो आपको पसंद है उसे आप लीजिए। पिछले पांच सालों से यूनिवर्सिटीज की सरकारी रैंकिंग ए ++ जेएनयू को हासिल है। इसके बावजूद ये कहना कि इस यूनिवर्सिटी में पढ़ाई नहीं होती है ये सोचना अनपढ़ता का लक्षण है। कुछ टीवी चैनलों के माध्यम से ऐसी बातें फैला दी गई हैं।
अब सवाल सिर्फ जेएनयू का नहीं है और सवाल मेस के खाने का नहीं है। तमाम तरह की चीजें पूछी जा रही हैं। 100 रुपये में यहां कमरा मिलता है। मोटी बात यह है कि मेस के खाने का खर्चा इस वक्त ढ़ाई तीन हजार रुपए था। जो प्रस्ताव जेएनयू द्वारा लाया गया है उससे 5 से 6 हजार रुपए हो जाएगा। जो कि एक साधारण विद्यार्थियों के लिए बड़ा रक़म है। जो लोग ट्विटर पर लिखते हैं कि मैं टैक्सपेयर हूँ और मैंने ऐसा नहीं किया है मुझे इनकी परिस्थितियां समझ में नहीं आती हैं।
जेएनयू से बाकियों में फर्क बस इतना है कि जेएनयू में आज भी देश भर के कोने कोने से विद्यार्थी आते हैं और इतना ही नहीं बल्कि उन परिवारों से आते हैं जिन्होंने आज तक किसी को हायर एजुकेशन में किसी को भेजा तक नहीं है। ऐसे बैकग्राउंड से आने वाले लोगों के लिए ये बहुत बड़ा सवाल है। ऐसे महत्वपूर्ण सवाल को हल्का करके नहीं आंके।
इसके बाद सरकार की तरफ से जो कहा गया कि हमने चेंज कर दिया है और अखबारों ने भी बताया कि कि हमने रोल बैक कर लिया गया है। जबकि हक़ीक़त ये है कि सरकार कई कंडीशन के साथ इसे लागू करना चाहती है। जिसमें कहा गया है कि BPL कार्ड और दूसरे जरूरी सर्टिफिकेट वाले को ही लाभ देंगे। इससे तो 5 ℅ से ज्यादा छात्र फायदा नहीं ले पाएंगे इसके अलावा शेष छात्रों को कोई छूट नहीं मिलेगी। असली सवाल यही है कि ये हायर एजुकेशन के कॉस्ट से जुड़ा हुआ मुद्दा है। इससे हम बच नहीं सकते।
ये सवाल सिर्फ जेएनयू का नहीं है। बिट्स पिलानी, TISS मुंबई और हैदराबाद जैसे उच्च संस्थाओं में इस मुद्दे पर आंदोलन हो चुके हैं। IIT में बढ़ाई गई फीस को लेकर भी हुआ है। अब यह पूरे देश का एक बड़ा सवाल है। यह सिर्फ जेएनयू और मेस की फीस का नहीं है।
हायर एजुकेशन अपनी जिंदगी बना सकने का एक मात्र रास्ता है। इस गली से गुजरे बिना कोई सपना नहीं है कोई भविष्य नहीं है। हमारे देश में शिक्षा एक पीढ़ी की क्वालिटी को दूसरे पीढ़ी तक पहुंचाने का एक मात्र जरिया है वहीं शिक्षा असमानता को तोड़ने का औजार है। अगर हायर एजुकेशन का आपको मौका नहीं मिलता है तो आप अपनी जिंदगी संवार नहीं सकते हैं। अगर ये मौका आपको पैसे के आधार पर मिलेगा तो इसका मतलब यही है कि गरीब बाप का बेटा गरीब रहेगा और अमीर बाप का बेटा अमीर होगा। जेएनयू का आंदोलन इन्हीं बड़े सवालों को उठा रहा है।
हमारे देश का संविधान कहता है कि सबको बराबर अवसर प्रदान किया जाय। देशवासियों को बराबर अवसर तभी मिल सकता है जब उच्च शिक्षा मुफ्त मिल सके और यह कोई मुफ्तखोरी नहीं है बल्कि मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य देना सरकार की न्यूनतम जिम्मेदारी है। भारत जैसे देश में लोगों को उसके परिवार की परिस्थिति देखे बिना शिक्षा के अवसर अपने योग्यता के अनुसार मिलते जाएंगे। इस प्रकार शिक्षा देना देश के संविधान की जरुरत है।
जेएनयू का आंदोलन हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित करता है। सवाल सिर्फ हॉस्टल फीस का नहीं है। असली सवाल हायर एजुकेशन की टोटल कॉस्ट को लेकर है। सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमारे देश में स्कॉलरशिप, फेलोशिप, ट्यूशन फ्रीशिप इत्यादि की संख्या बहुत कम है। अमेरिका की प्राईवेट यूनिवर्सिटी जिसमें कई तो दुकान की तरह है इसके बावजूद यहां छात्रों को कहीं ज्यादा स्कॉलरशिप मिलता है। पूंजीवादी देश की प्राईवेट यूनिवर्सिटी में 25 से 30 % छात्रों को स्कॉलरशिप फेलोशिप मिलता है। जबकि हमारे यहां B.A. और M.A. को भी जोड़ने के बाद 1 प्रतिशत लोगों को भी स्कॉलरशिप नहीं मिलता है।
आज से दस साल पहले जब मैं UGC में था तब मैंने इसकी गिनती करवाई थी इस सवाल को UGC में उठाया था एक कमिटी भी बनवाई थी लेकिन इस पर कुछ नहीं हो पाया।
जितना कम स्कॉलरशिप और फेलोशिप यहां मिलता है उतना दुनिया में किसी और बेहतर देश में नहीं होगा। जबतक हम विद्यार्थियों की स्कॉलरशिप फेलोशिप फ़्रीशिप न बढ़ाए वो भी एमफिल और पीएचडी को छोड़कर, क्योंकि यहां तक बहुत कम छात्र पहुंच पाते हैं। कम से कम बीए और एमए के 10 % छात्रों को देना शुरू कीजिए। जबतक वो नहीं होगा तब तक दूसरे सवाल उठते रहेंगे। अगर सरकार को लगता है कि हम सभी बच्चों को मुफ़्त सुविधा नहीं दे सकते हैं तो कम से कम 30 से 35℅ बच्चों को फ्री हॉस्टल दीजिए। ये करना पड़ेगा नहीं तो ये कहने को लोकतंत्र है। कहने के अवसरों की बराबरी है लेकिन वास्तव में बराबरी नहीं है।
डॉ अम्बेदकर ने संविधान सभा में कहा था कि हम एक ऐसा लोकतंत्र बनाने जा रहे हैं, जिसमें एक व्यक्ति एक वोट तो है, लेकिन एक व्यक्ति एक नोट नहीं है और जब तक समाजिक आर्थिक विषमता बनी रहेगी तब तक वोट बराबर होने का कोई मतलब नहीं है। इस बड़े सवाल को कोई उठा रहा है, अब आप सोचेंगे कहां एक मेस का मामला कहां आप एक राष्ट्रीय मुद्दा उठा रहे हैं क्या जोड़ता है? एक बात याद रखने योग्य है जब जब युवा लोगों के बड़े आंदोलन हुए हैं हमेशा ऐसे ही तात्कालिक और छोटे मुद्दे से शुरू हुए हैं। गुजरात में इस देश का बड़ा नवनिर्माण आंदोलन हुआ था। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में युवा थे और आंदोलन की शुरुआत मेस के खाने से ही हुई थी। इस आंदोलन के गर्भ से जो युवक नेता बनकर उभरे वो इस वक्त देश के प्रधानमंत्री हैं।
-योगेंद्र यादव
स्वराज इंडिया
जेएनयू के बहाने असमानता की खाई को क्यों बढ़ाना चाहती है सरकार?
हायर एजुकेशन का आपको मौका नहीं मिलता है तो आप अपनी जिंदगी संवार नहीं सकते हैं। अगर ये मौका आपको पैसे के आधार पर मिलेगा तो इसका मतलब यही है कि गरीब बाप का बेटा गरीब रहेगा और अमीर बाप का बेटा अमीर होगा। जेएनयू का आंदोलन इन्हीं बड़े सवालों को उठा रहा है।