राष्ट्रपति के नाम छात्र संगठन एसआईओ का खुला खत

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सेवा में
आदरणीय रामनाथ कोविंद
महामहिम राष्ट्रपति, भारत गणराज्य

हम देश के नागरिक विशेषकर छात्र और युवा समुदाय की ओर से आपको ये पत्र बाबरी मस्जिद केस का फैसला आने के बाद लिख रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद मामले में अपना फैसला सुना दिया। फैसले के दिन ही, हमने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि हम इस निर्णय का सम्मान तो करते हैं लेकिन ये न्याय नहीं हैं। हम सब जानते हैं कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति जेएस वर्मा का कथन है कि “सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है, लेकिन अचूक नहीं है” इस कथन की व्यव्हारिकता इस फैसले मे स्पष्ट दिख रही है। कानूनी विश्लेषक अभी भी इसके विभिन्न पहलुओं के सटीक अर्थ पर बहस कर रहे हैं। और ये देख रहे हैं कि अदालत द्वारा प्रस्तुत निर्णय किस तरह भविष्य मे अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए कारगर साबित हो सकता है या नहीं।

हालाँकि, निर्णय का सतही पठन यह महसूस करते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘संतुलन’ के नाम पर गोल पोस्ट किया है।

संपूर्ण बाबरी मस्जिद विवाद, एक सार्वजनिक बहस और आम समझ में मौजूद है। इस दावे को खारिज कर दिया गया वहां कोई एक मंदिर मौजूद था ,जिसे मुस्लिम शासकों ने मस्जिद बनाने के लिए नष्ट कर दिया था। इस पूरे मामले में मुस्लिम पक्षों और वास्तव में पूरे समुदाय ने हमेशा जोर दिया है कि अगर यह साबित किया जा सकता है कि मंदिर को नष्ट करने के बाद मस्जिद का निर्माण किया गया था, तो वे इस पर दावा छोड़ देंगे। अदालत ने भी स्पष्ट किया कि इस तरह का कोई मंदिर नही था , और फिर भी यह फैसला सुनाया गया कि मंदिर के निर्माण के लिए पूरी जमीन दी जानी चाहिए।

फैसला – एएसआई निष्कर्षों के आधार पर दिया गया जो यह निष्कर्ष निकालता है कि मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी, तो इस बात का कोई सबूत नहीं है कि यह मंदिर के ऊपर बनाया गयी थी। ना ही इस बात का कोई सबूत है कि मस्जिद बनाने के लिए एक मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। यहां ये दावा अधिक मजबूत होना चाहिये था कि मंदिर आंदोलन के दौरान एक मस्जिद को ढ़हा दिया गया था जिसके गवाह हम सब हैं।

अदालत ने ये बात तो जोरदार ढंग से कही कि निर्णय केवल साक्ष्य पर आधारित होगा ना कि आस्था के आधार पर।लेकिन तकनीकी खामियों के आधार पर संपूर्ण फैसला मंदिर के पक्ष में सुना दिया गया, जबकि 1856 से मस्जिद के बाहर ही पूजा की जाती रही है। दुर्भाग्यवश फैसले का आधार यह है कि यह स्थल राम की जन्मभूमि है और हिंदुओं की आस्था और विश्वास का मामला है, जिसे अदालत ने भी ‘निर्विवाद’ कह दिया है।

बाबरी मस्जिद के साथ जो हुआ वह एक अपराध था। अदालत ने 1949 में इसके अंदर मूर्तियों को रखे जाने ,और इसके विध्वंस 6 दिसंबर 1992 को मुस्लिमों को इससे दूर रखने का षड्यंत्र बताया है। जिसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में नियोजित नहीं किया जाना चाहिए था। लेकिन फिर भी, उन लोगों द्वारा नियोजित किया गया है, और आज उन्हें उनके इच्छित फैसले के साथ पुरस्कृत किया गया है।

अदालत ने सरकार को आदेश दिया है कि मस्जिद बनाने के लिए अलग से 5 एकड़ जमीन दे दी जाये, यह एक क्रूर मजाक है। विवाद कभी जमीन पर नहीं था, यह न्याय का सवाल था। क्या मस्जिद बनाने के लिए एक मंदिर को नष्ट किया गया था? यदि नहीं, तो बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण के लिए भूमि बहाल करने में क्या संकोच था? इस फैसले ने न केवल बाबरी मस्जिद के विनाश को वैध ठहराया है, बल्कि इसने इतिहास के एक विकृत आख्यान को भी पवित्र किया है, जो अतीत की वास्तविक और काल्पनिक शिकायतों पर मुस्लिमों के खिलाफ हिंदुओं को एक सतत संघर्ष में खड़ा करता है।

इस फैसले ने न्यायपालिका में हमारे विश्वास को हिलाया है। भारत में मॉब द्वारा जारी हिंसा बहुत लंबे समय तक रहने पर भी अदालतों ने मौन धारण किये रखा, इसलिये यह चरम पर पहुंच गई है। वीडियो मे पकड़े गए लिंचिंग के आरोपियों को अदालतों ने छोड़ दिया है। लेकिन संवैधानिक भारत के इतिहास में भीड़ तंत्र द्वारा हिंसा के इस हाई प्रोफाइल मामले में यही सर्वोच्च अदालत थी, जिससे हमें बेहतर की उम्मीद थी।

हम अभी भी बेहतर की उम्मीद करते हैं, और हर हाल में न्याय के लिए संघर्ष करना जारी रखेंगे। लेकिन इस समय मे भारत के राष्ट्रपति का प्राथमिक कर्तव्य है कि संविधान के अनुच्छेद 60 के अनुसार भारत के संविधान का संरक्षण, रक्षा और बचाव करें। हम इस तरह के “खुले पत्र” के माध्यम से भारत के गणतंत्र में आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं ।“हिंदुत्व ब्रिगेड” जो बाबरी मस्जिद को हटाना चाहती थी ,और जिसने कानून और संविधान के हर पहलू के खिलाफ जाकर इसे बलपूर्वक नष्ट कर दिया। हम चाहते थे कि मस्जिद को बहाल किया जाए और सिस्टम के माध्यम से काम किया जाए।पहले सरकार के माध्यम से हमने प्रयास किया, पुनर्निर्माण के लिए अदालतों में ,किसके कृत्य को न्यायोचित ठहराया गया?”।

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