‘विश्व हिजाब दिवस’ : इस्लाम में परदे का विचार और आज़ादी की आधुनिक बहस

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पूरी दुनिया में आज़ादी की बहसों और तमाम देशों द्वारा इस वैश्विक सिद्धांत को स्वीकार करने के बावजूद आज औपनिवेशक शक्तियों द्वारा मुसलमानों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है और यह सदियों से चला आ रहा है।

फ़्रांस, नीदरलैंड और डेनमार्क में हिजाब पर सख़्त प्रतिबंध है। तुर्की में यह दो मीटर का टुकड़ा इतनी ख़तरनाक शक्ल में उभरा कि लोकतांत्रिक सरकार को हिला डाला।

कुछ देश इस्लाम के प्रभुत्व से इतने डरते हैं कि हिजाब पहनने वाली लड़कियों और महिलाओं को रोज़गार भी नहीं देते। मुस्लिम छात्रों को स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दाख़िले नहीं देते। अगर उन्हें प्रवेश मिल भी जाता है तो बिना हिजाब के दफ़्तर आने और कक्षाएं लेने की शर्त लगाते हैं।

हिजाब पहनने पर प्रतिबंध और विरोध को देखते हुए जुलाई 2004, लंदन में धार्मिक विद्वान और इस्लामी आंदोलनों के सम्मानित विचारक अल्लामा यूसुफ़ अल क़रज़ावी के नेतृत्व में Assembly for the Protection of Hijab की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि हर साल 4 सितंबर को विश्व हिजाब दिवस मनाया जाएगा।

पहला विश्व हिजाब दिवस 4 सितम्बर 2004 में मनाया गया। दुनिया भर की मुस्लिम महिलाएं इसे अपने स्थान पर अपनी सुविधानुसार हर साल मनाती हैं और घोषणा करती हैं कि, “हिजाब इस्लाम का दिया हुआ तोहफ़ा है, यह हमारा गर्व है, कोई जब्र या पाबंदी का प्रतीक नहीं बल्कि अल्लाह की आज्ञा का पालन है। इसका आतंकवाद या शोषण से कोई संबंध नहीं है। ये हमारा गौरव और स्वाभिमान है।”

एक अमेरिकी महिला के विचार हैं कि, मुस्लिम महिलाओं पर एक निश्चित मात्रा में प्रतिबंध हैं, माता-पिता का सम्मान आवश्यक है और सामाजिक क़ानून ऐसी उत्कृष्ट नींव पर तैयार किया गया है कि इससे नैतिक मूल्यों का विकास होगा, एक अच्छे समाज का निर्माण होगा। प्रत्येक को उसका उचित अधिकार और उचित सम्मान मिलेगा। इसलिए मैं आपको सलाह देती हूं कि आप अपने धार्मिक और सामाजिक क़ानूनों को अपनाएं, उनका पालन करें, न केवल हिजाब करें बल्कि इसे एक परंपरा भी बनाएं। अपने समाज को अमेरिका और यूरोप से आए पुरुषों और महिलाओं के द्वेष से मुक्त रखें, यही आपके लिए बेहतर है। यदि आप इसे छोड़ देती हैं तो आप यूरोप की अंधी नक़ल में इस्लामी सामाजिक क़ानून को समाप्त कर देंगे, जिससे नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का उल्लंघन होगा, जैसा कि पश्चिमी दुनिया का हुआ।” (सुन्नत ए रसूल और आधुनिक विज्ञान)

इस्लाम ने जहां महिलाओं पर प्रतिबंध लगाए हैं, वे विशुद्ध रूप से नैतिक प्रकृति के हैं और उनमें अवमानना, कठोरता, क्रूरता, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार का कोई पहलू शामिल नहीं है। वास्तव में यह प्रतिबंध नहीं हैं बल्कि सुविधाएं प्रदान की गई हैं। इस्लाम ने पुरुषों और महिलाओं के बीच एक सीमा तय की है और जब भी इस सीमा का उल्लंघन हुआ है तो महिला उत्पीड़न, दुष्कर्म, शोषण जैसी समस्याएं पैदा हुई हैं। इसीलिए मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा हिजाब करने वालों का है।

जैसा कि क़ुरआन में कहा गया है, ऐ नबी! अपनी बीवियों और बेटियों और मोमिनों की औरतों से कह दीजिये कि वे अपने ऊपर अपनी चादर लटका लिया करें। ये बात ज़्यादा क़रीब है कि वे पहचान ली जाएं और सताई न जाएं।” (33 : 59)

क़ुरआन में कई जगह स्त्रियों और पुरुषों को समान रूप से और कई जगह अलग-अलग भी संबोधित किया गया है। कहा गया कि, ऐ आदम की सन्तान! हमने तुम्हारे लिए वस्त्र उतारा है कि तुम्हारी शर्मगाहों को छुपाए और रक्षा और शोभा का साधन हो। और धर्मपरायणता का वस्त्र – वह तो सबसे उत्तम है, यह अल्लाह की निशानियों में से है, ताकि वे ध्यान दें।” (7 : 26)

पुरुषों से परदे के संबंध में कहा गया कि, ईमान वाले पुरुषों से कह दो कि वे अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें। यही उनके लिए अधिक अच्छी बात है।” (24 : 30)

और स्त्रियों से इस संबंध में कहा गया कि, और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें। और अपना श्रृंगार प्रकट न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है। और अपने सीनों पर अपने दुपट्टे डाले रहें और अपना श्रृंगार किसी पर ज़ाहिर न करें।” (24 : 31)

इस्लाम की रोशनी ने अंधेरे के परदे को ढक दिया है। अज्ञानता का युग समाप्त हो रहा है। आज की महिलाएं अपनी स्थिति और महत्व से अवगत हैं। अब मुस्लिम महिलाएं  बड़ी संख्या में हर क्षेत्र में प्राथमिकता के साथ प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं जो झूठी ताक़तों को झकझोरने के लिए काफ़ी है। हिजाब के साथ जीत हासिल करना उनके लिए और मुस्लिम समुदाय के लिए गर्व की बात है। इसका एक उदाहरण देखिए! मिस्र की फ़रयाल अशरफ़ ने टोक्यो ओलंपिक में कराटे प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीतकर साबित कर दिया कि महिलाएं पर्दे में रहकर भी सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंच सकती हैं।

नाज़ आफ़रीन

(लेखिका रांची विश्वविद्यालय में सीनियर रिसर्च फ़ेलो हैं।)

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