नागरिकता संशोधन विधेयक : श्रीलंका के हिंदुओं को विधेयक से बाहर रखने के मायने

इस विधेयक की आलोचना केवल मुसलमानों को इसके दायरे से बाहर रखने के लिए की जा रही है, जबकि विरोधाभासों का अंत यहीं तक नहीं है। उदाहरण के लिए श्रीलंका में, यह बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं जिन्हें कट्टरपंथी और यहां तक कि हिंसक समूहों में संगठित किया गया है। फिर भी, भारत के नए कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के बौद्धों को नागरिकता के लिए फास्ट ट्रैक करने का प्रस्ताव है। इसी तरह, बिल में पड़ोसी म्यांमार के रोहिंग्या धार्मिक-जातीय अल्पसंख्यक को शामिल नहीं किया गया है, जिन्हें बांग्लादेश ने बड़ी संख्या में शरण दी है। अन्य देशों के अल्पसंख्यक, किसी भी धर्म के, भारत मे आयेंगे यह बहुत ही गहन विचार है। कुछ विश्लेषकों का यह भी तर्क है कि भारत की खराब आर्थिक स्थिति को देखते हुए प्रवासी दक्षिण एशिया और उसके बाहर के अवसरों को प्राथमिकता देंगे।

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कार्टून-शारिक अहमद

नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 को लेकर शंकाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। सोमवार को, बिल को लेकर संसद में लंबी बहस हुई, जो भारत के तीन मुस्लिम-बहुल पड़ोसियों अफगानिस्तान, बांग्लादेश व पाकिस्तान से हिंदू, बौद्ध, ईसाई, पारसी, जैन और सिख शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रयास करती है।
सरकार का कहना है कि इस विधेयक से पड़ोसी देशों में जिन अल्पसंख्यक समुदाय के साथ शोषण हुआ है उनकी अब रक्षा की जाएगी। फिर भी, यह विधेयक जिसे भारत में नागरिकता को देने मे धर्म को आधार बनाने का पहला प्रयास किया गया है जो कई विसंगतियों से भरा हुआ है।
जैसे कि जब सरकार से यह बताने के लिए कहा गया है कि श्रीलंका की तमिल आबादी, जो मुख्य रूप से हिंदू हैं, और जिन्होंने द्वीप राष्ट्र में सिंहली सैन्य बलों से उत्पीड़न का सामना किया है, को विधेयक से क्यों बाहर रखा गया है तो उनके पास कोई जवाब नहीं था।
आखिरकार श्रीलंका में भी हिंदुओं का अनुपात (12.6%) है और जिस वर्ष बंग्लादेश अस्तित्व में आया उस साल श्रीलंका में सबसे ज्यादा हिंदू मारे गए हैं फिर भी नागरिकता संशोधन विधेयक में इस द्वीप राष्ट्र को बाहर रखा गया है।
सरकार ने इस तथ्य पर भी प्रकाश नहीं डाला है कि श्रीलंकाई तमिलों की आबादी लगभग 17% है और वे सिंहला-बौद्धों के शिकार हुए हैं, जो लगभग 74% आबादी हैं। (कहने की जरूरत नहीं है कि तमिल लोगों की एक बड़ी संख्या हिंदू धर्म को अपने विश्वास के रूप में स्वीकार करती है।) यही नहीं इस विधेयक ने श्रीलंका के संपूर्ण स्वतंत्रता के बाद के इतिहास को भी नजरअंदाज किया है। 4 फरवरी 1948 से, जिस दिन श्रीलंका स्वतंत्र हुआ, तमिल राष्ट्रों में तमिलों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इसके अलावा 1983 और 2009 के बीच श्रीलंका में एक चौथाई सदी का लंबा गृहयुद्ध चला। जिसमें 150,000 और 200,000 तमिल (साथ ही सिंहला) प्रभावित हुए । 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (LTTE) कैडर्स और इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (IPKF) के बीच झड़पों में सैकड़ों तमिलों की मौत हो गई, जिसमें भारी जनहानि भी हुई थी। इसमें कोई शक नहीं कि श्रीलंका में तमिल के नेतृत्व वाली आतंकवादी गतिविधियां थीं। जो 1993 में श्रीलंका के तीसरे राष्ट्रपति, रणसिंघे प्रेमदासा की हत्या और 1991 में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार थीं। इन कारणों के से लिट्टे ने धीरे-धीरे भारत सरकार की सहानुभूति सहित समर्थन खो दिया।
समय के साथ, भारत में तमिल आबादी मजबूत भावनात्मक और जातीय संबंधों के बावजूद, श्रीलंका की जातीय तमिल आबादी के प्रति संदेह पैदा करने लगी। उसी समय, 1980 के दशक के ठीक बाद, बड़ी संख्या में “सीलोन तमिलों” या “जाफना तमिलों” ने श्रीलंका से भारत में आने लगे, उन्हें अब राज्य में और केंद्र सरकारों द्वारा संदेह के साथ देखा जाता है।
भाजपा को भारत के एकमात्र तमिल-बहुमत वाले राज्य से अक्सर विरोध का सामना रहता है। तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जिसने सत्तारूढ़ पार्टी के हिंदुत्व दृष्टिकोण का विरोध किया है। भाजपा के पास राज्य में शायद ही कोई आधार है। इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव में इस विचारधारा के रद्द कर दिया गया था। यहां तक कि इसके गठबंधन सहयोगी, ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, (जिनकी लिट्टे पर स्थिति द्रविड़ मुनेत्र कड़गम या डीएमके रुख से भिन्न है) केवल एक सीट जीत सके थे। भाजपा को दक्षिण में और अलगाव का खतरा नहीं हो। । यह राजनीतिक मजबूरी है कि सरकार नागरिकता विधेयक में श्रीलंका को शामिल करने से परहेज कर रही है, जबकि इसमें अफगानिस्तान, एक ऐसा देश शामिल है, जिसके साथ भारत सीमा भी साझा नहीं करता है।
हालांकि श्रीलंका में तमिल लोगों की वास्तविक स्थिति अनिश्चित है। 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व में श्रीलंकाई सरकार द्वारा किए गए सैन्य हमले में लिट्टे और उसके समर्थकों का क्रूर दमन किया गया था। आज तक, कई विश्लेषकों का कहना है, श्रीलंका के शासक वर्ग के दिमाग के ‘सिंहल-ओनली’ को बदलने के लिए बहुत कम किया गया है, जो तमिल आबादी को नुकसान में डालता है।
हाल के चुनावों के बाद, नवंबर 2019 में, विपक्ष नेता गोतबया राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति बने। उन्होंने अपने भाई महिंदा को प्रधान मंत्री नियुक्त किया। उन्होने तमिल आबादी के राजनीतिक भविष्य के साथ-साथ श्रीलंकाई मुसलमानों के बारे में नई चिंताओं को उठाया है, जो हाल के वर्षों में सिंहली राष्ट्रवाद और सिंहली पहचान से आगे बढ़ गए हैं; और खुद को उनके जातीय-विभाजित देश में तेजी से अलग-थलग पाते हैं।
अगर भारत सरकार की मंशा उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों की सहायता करने की थी, तो सिंहली मुसलमानों और हिंदू तमिलों को अपनी नागरिकता की योजनाओं में निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए था।

इस विधेयक की आलोचना केवल मुसलमानों को इसके दायरे से बाहर रखने के लिए की जा रही है, जबकि विरोधाभासों का अंत यहीं तक नहीं है। उदाहरण के लिए श्रीलंका में, यह बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं जिन्हें कट्टरपंथी और यहां तक कि हिंसक समूहों में संगठित किया गया है। फिर भी, भारत के नए कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के बौद्धों को नागरिकता के लिए फास्ट ट्रैक करने का प्रस्ताव है। इसी तरह, बिल में पड़ोसी म्यांमार के रोहिंग्या धार्मिक-जातीय अल्पसंख्यक को शामिल नहीं किया गया है, जिन्हें बांग्लादेश ने बड़ी संख्या में शरण दी है।
अन्य देशों के अल्पसंख्यक, किसी भी धर्म के, भारत मे आयेंगे यह बहुत ही गहन विचार है। कुछ विश्लेषकों का यह भी तर्क है कि भारत की खराब आर्थिक स्थिति को देखते हुए प्रवासी दक्षिण एशिया और उसके बाहर के अवसरों को प्राथमिकता देंगे।
इसके अतिरिक्त, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के लाने का उद्देश्य उत्तर और मध्य भारत में, जहां भाजपा राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हो गई है, वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करती है। श्रीलंका इन क्षेत्रों में भावनाओं को नहीं बढ़ाएगा क्योंकि यह भाजपा को अपने राजनीतिक हितों की सेवा के लिए सांप्रदायिक विभाजन को भुनाने में मदद नहीं करता है। यही कारण है कि इस विधेयक में स्पष्ट विरोधाभासों को संबोधित नहीं किया गया है।
स्वंय पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा हटाने के लिए, सरकार ने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान के मुसलमानों को सताए जाने वाले स्पष्ट तर्क को भी नही माना है ।कहा गया कि वे मुस्लिम बहुल या इस्लामी देशों में शरण ले सकते हैं, लेकिन वह तो ईसाई और बौद्धों के लिए भी कहा जा सकता है कि उनके कई देश हैं। । ईसाई बहुल देशों की संख्या मुस्लिमों की तुलना में लगभग दोगुनी है।
सच्चाई यह है कि, पश्चिम यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अन्य अधिकांश देश शरण या नागरिकता प्रदान करते समय धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं करते हैं।
भारत का पड़ोसी देशों के विस्थापितों को शरण देने का एक लंबा इतिहास है। साठ साल पहले, हजारों तिब्बती बौद्ध और दलाई लामा ने भारत में शरण ली थी। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान, भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के लाखों लोगों को शरण दी। हालांकि, वे बांग्लादेश के निर्माण के बाद वापस लौट आए।
नेपाल का मामला कुछ अलग है, क्योंकि नेपाल के लोग IAS, IFS और IPS जैसी केंद्रीय सेवाओं को छोड़कर, भारत में नौकरी की तलाश कर सकते हैं। फिर भी, यह एक सच्चाई है कि भारतीय मूल के हिंदू और नेपाल के सीमावर्ती जिलों में रहने वाले भारतीय मूल के हिंदूवादियों ने अक्सर अपने नए संविधान में असमान स्थिति के बारे में शिकायत की है।
यह एक देशद्रोही नज़रिया है कि हम आज म्यांमार से आए रोहिंग्याओं के लिए समान उदारता का विस्तार करने का विरोध करते हैं, जबकि अल्पसंख्यकों की मदद करने का जो उद्देश्य दर्शाया गया है उस आधार पर रोहिंग्या सबसे अधिक इस विधेयक में शामिल होने के हकदार हैं क्योंकि उनकी भी तो धार्मिक प्रताड़ना की गई है।

Soroor Ahmed  (फ्रीलांस जर्नलिस्ट)

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