
‘ज़ूनोसिस’ उन रोगों को कहा जाता है , जो जंगली पशुओं से मनुष्य में आये हैं। बहुधा ये सीधे मानव-समाज में नहीं दाखिल हुए : पहले इन्होंने किसी मध्यस्थ को चुना। फिर इस मध्यस्थ पालतू पशु से इन्होंने मनुष्य में छलाँग लगायी। इस तरह से इनका जंगल से गाँव / शहर का सफ़र पूरा हुआ।
बदलते पर्यावरण के साथ दुनिया-भर में ज़ूनोटिक रोग या ज़ूनोसिस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। ऐसी अनेक बीमारियाँ सामने आ रही हैं , जो पहले मनुष्यों में नहीं होती थी अथवा उनकी व्याप्ति बहुत कम थी। किन्तु पर्यावरणीय बदलावों के कारण उनकी संख्या और फैलाव दोनों बढ़ते गये हैं। वर्तमान कोविड-19 संक्रमण इसका कड़ी में नवीनतम उदाहरण है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार साठ प्रतिशत से ऊपर मानव-संक्रमण आज ज़ूनोसिस हैं। औसतन हर चार माह में एक नया रोगकारी कीटाणु ( जीवाणु / विषाणु / फफूँद ) मनुष्य में पहुँच रहा है। निश्चित तौर पर यह भयकारी है और दुनिया-भर की सरकारों व नागरिकों को इसपर बहुत कुछ ठोस करने की ज़रूरत है। लेकिन कुछ भी उपचारात्मक करने के लिए सबसे पहले जानना और मानना ज़रूरी है। जब तक ईमानदार इंट्रोस्पेक्शन नहीं करेंगे , तब तक कोई बेहतरीन क़दम भी नहीं उठाएँगे।
जनसंख्या के बढ़ने के कारण कृषि पर बेहद दबाव है। पुरानी कृषि से नयी कृषि भिन्न होने पर मजबूर है ; अगर वह उद्योग नहीं बनेगी , तो सबका पेट नहीं भर पाएगी। कृषि का औद्योगीकरण जंगलों से ज़मीनें छीनेगा , जानवरों और परिन्दों से उनके आशियाने। अनाज-फल-डेयरी-मांस सभी के बेतहाशा उत्पादन का जो दबाव है , वह वन-नदी-सागर-विनष्टीकरण से ही प्राप्त किया जाएगा। ( और किया जा भी रहा है। )जानवरों और फ़सलों को एंटीबायटिकों से नित्य नहलाया जा रहा है ; कारण फिर से अपना और समाज का पेट भरने का दबाव है। रासायनिक उर्वरक मिट्टी को बीमार बना रहे हैं और जानवरों के मल-मूत्र से वायुमण्डल ग्रीनहाउस गैसों से भर रहा है।
जंगलों से कुछ बुरा हम-तक न आये , इसका सबसे कारगर उपाय जंगलों को अछूता छोड़ देना है। जितना उन्हें छेड़ा जाएगा और जितने हिस्से की छीना-छबटी होगी , उतना वहाँ से कीटाणु अपनी वृद्धि के लिए नये आशियाने तलाशने पर मजबूर होंगे। जंगल ही हमारे पर्यावरण को बचाते हैं , लेकिन उनके प्रति कृतघ्न बर्ताव किये जाने पर वे हमें बीमार कर रहे हैं। दुनिया के बढ़ते जा रहे पेट को कैसे इस तरह से भरा जाए कि वह तृप्त भी हो और जंगलों की निस्संगता में खलल भी न पड़े — यह आधुनिक राजनेताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। उद्योग बन रही / बन चुकी कृषि का केन्द्रबिन्दु मुनाफ़ा होगा , जनसंख्याओं और जंगलों का कल्याण नहीं। इसके लिए उद्योगपतीय हितों को प्राथमिकता न देते हुए कृषि-वैज्ञानिकों और चिकित्सक-वैज्ञानिकों की समझधारी के साथ आगे बढ़ना होगा।
जानवर हमारी भीड़ से नहीं मिलना चाहते। उन्हें ग्लोबल होने की चाह नहीं है। जंगल अपने मौन में मस्त-मसरूफ़ हैं। उनकी निजता का सम्मान ही उनके प्रति कृतज्ञता है।
इसी ठोस कृतज्ञता से ज़ूनोसिस धीमे पड़ेंगे। बाक़ी सब केवल शब्दसेवा-भर रहेगी।
-स्कन्द।
~Dr. Skund Shukla