कश्मीर की कली बिन खिले मुर्झा गई!

पिछले वर्ष 5 राज्यों के चुनाव से पहले तक बीजेपी वाले वन नेशन वन इलेक्शन कंपैन की बात कर रहे थे। सरकार का तर्क था कि लोकसभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ हो जाए तो चुनावी खर्च में कमी आएगी और लोकतंत्र मजबूत होगा। तीन हिंदी भाषी राज्यों के चुनाव में दुर्गति के पश्चात उस का सुर बदल गया, अब तो यह हाल है कि कश्मीर मुद्दे पर यानी उडी, पुलवामा, सर्जिकल सट्राइक पर भाजपा पूरे देश में चुनाव लडेगी, मगर दुर्भाग्यवश जम्मू- कश्मीर के विधानसभा चुनाव अपनी समय सीमा के भीतर नहीं होंगे।

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प्रतीकात्मक फोटो

 

 

चुनाव आयोग ने 2019 लोकसभा चुनाव का शेड्यूल जारी कर दिया, और प्रधानमंत्री के अनुसार देश भर में लोकतंत्र को उत्सव प्रारंभ हो गया। अब सभी 543 सीटों पर 7 चरणों में मतदान होंगे इस लिए आदर्श आचार संहिता लागू कर दी गई है। जनता को यह अपेक्षा थी, कि लोकसभा के साथ होने वाले विधान सभा चुनावों की सुची में आंध्र प्रदेश, उडीशा, अरूणाचल और सिक्किम  के साथ जम्मू- कश्मीर का नाम भी शामिल होगा, परंतु 56 इंच का सीना दिखा कर पकिस्तान को डराने वाले प्रघान सेवक यह साहस नहीं कर सके। इस प्रकार जम्मू कशमीर राज्य स्तर पर कमल बिन खिले मुर्झा गया।

जम्मू- कश्मीर की विधानसभा 22 नवम्बर 2018 को भंग कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार विधानसभा भंग होने के बाद छह महीने के भीतर नया चुनाव अनिवार्य है। जम्मू- कश्मीर के मामले में यह समय सीमा मई, 2019 में खत्म हो रही है। यही वजह है कि चुनाव आयोग ने प्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव कराने की संभावना तलाश करने की खातिर राज्य के सारे पक्षों से दो मरतबा विचार विमर्श किया। भाजपा समेत सारे पक्षों ने चुनाव के लिए अनुकूल वातावरण की पुष्टी की परंतु आयोग आर्थात केंद्र सरकार इस के लिए राजी नहीं हुए।

चुनाव आयोग के इस निराशा जनक निर्णय पर पुर्व मुख्यमंत्रियों ने नाराजगी व्यक्त की, उमर अब्दुल्लाह ने प्रधान मंत्री की आलोचना करते हुए कहा कि 1996 के पश्चात पहली बार जम्मू- कश्मीर के विधानसभा चुनाव अपने समय पर नहीं होंगे। महबूबा मुफ्ती बोलीं जनता को अपनी सरकार चुनने से रोकना लोकतंत्र को शोभा नहीं देता। विश्व के अनेक देशों में एक साथ चुनावों का नियम है. भारत में 1967 तक लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ होते थे आगे चल कर अनेक राज्यों में राष्ट्रपति शासन और विधानसभा भंग होने से यह सिलसिला रुक गया।

चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए 1983 में विस्तृत मसौदा पेश किया, जिसको विधि आयोग द्वारा 1999 में तथा संसद की स्थायी समिति ने 2015 में स्वीकार किर लिया, परंतु दुर्भाग्यवश पिछले 35 साल से एक साथ चुनावों पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते थे कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ हों. 2018 में भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख अमित शाह ने विधि आयोग को पत्र लिखकर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के समर्थन में तर्क दिए थे परंतु उस के एक दिन बाद ही मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने एक बयान में कहा कि लोकसभा के साथ 11 राज्यों में चुनाव कराने के लिए पर्याप्त संख्या में वोटिंग मशीनें नहीं हैं। इसी के साथ चुनाव आयोग ने यह स्वीकार किया की वह अधिकतम आठ राज्यों में एक साथ चुनाव करा सकता है अर्थात 2019 में होने वाले पांच राज्यों में तो चुनाव एक साथ हो सकते थे।

एक जमाने में बीजेपी एक साथ चुनाव होने का फ़ायदा उठाना चाहती थी, क्योंकि नरेंद्र मोदी उसके स्टार प्रचारक हैं। भाजपा के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का कहना है कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के विचार से देश में विकास को गति भी मिलेगी| औसत देखा जाए तो साल में लगभग तीन सौ दिन कहीं न कहीं किसी न किसी तरह के चुनाव हो रहे होते हैं। इस पर बहुत पैसा ख़र्च होता है। इसके अलावा देश की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभालने वाले सुरक्षा बलों को चुनावी ड्यूटी करनी पड़ती है। देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा संभालने वाले बल जब चुनावी सुरक्षा में लगते हैं तो सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित होती है.”

कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी इस तर्क से सहमत नहीं हैं उन का कहना है कि, “शुरुआत में राजनीतिक पार्टियां कम थीं और गठबंधन की राजनीति भी नहीं थी लेकिन अब देश ने सरकारें बनतीं और गिरती रहती है बीच में सरकार गिरने की स्थिति में फिर से सरकार चुनना जनता का अधिकार है। बीजेपी एक साथ चुनाव कराकर मोदी की लोकप्रीयता को भुनाना चाहती थी परंतु उसे पता होना चाहीए कि भारत की जनता बहुत समझदार है। वह जानती है कि कब, कहां और किसे वोट देना चाहीए। कई ऐसे उदाहरण हैं जहां एक साथ चुनाव हुए और जनता ने केंद्र में एक पक्ष को चुना और राज्य में दूसरे को चुना। वर्ष 1991 में राजीव गांधी अमेठी से जीते थे लेकिन वहां की पांचों सीटों पर कांग्रेस हार गई थी।

पिछले वर्ष 5 राज्यों के चुनाव से पहले तक बीजेपी वाले वन नेशन वन इलेक्शन कंपैन की बात कर रहे थे। सरकार का तर्क था कि लोकसभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ हो जाए तो चुनावी खर्च में कमी आएगी और लोकतंत्र मजबूत होगा। तीन हिंदी भाषी राज्यों के चुनाव में दुर्गति के पश्चात उस का सुर बदल गया, अब तो यह हाल है कि कश्मीर मुद्दे पर यानी उडी, पुलवामा, सर्जिकल सट्राइक पर भाजपा पूरे देश में चुनाव लडेगी, मगर दुर्भाग्यवश जम्मू- कश्मीर के विधानसभा चुनाव अपनी समय सीमा के भीतर नहीं होंगे।

लेखक: डाक्टर सलीम खान

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