दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर छात्रों में विफलता की एक लम्बी और अविश्वसनीय दर है। डीयू, देश की राजधानी में एक प्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को आकर्षित करता है। आवेदकों को पीजी कोर्स की सीमित सीटों पर या तो राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा के माध्यम से या स्नातक में उनके अंकों के आधार पर प्रवेश मिलता है।
उत्कृष्टता का विचार
डीयू में प्रवेश पाने वाले छात्रों का स्नातक में बहुत अधिक प्रतिशत होता है या वे प्रवेश परीक्षा में उच्च कट ऑफ को पूरा करते हैं। लेकिन कुछ ही समय में, वास्तव में 3-4 महीने में वे असफल छात्र बन जाते हैं। MA/MSC में असफलता की दर कुछ विभागों में 90% के बराबर है। बहुत से छात्र यूजीसी-नेट, CSIR, गेट उत्तीर्ण करते हैं और अनुसंधान कार्यक्रमों के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों में प्लेसमेंट और प्रवेश प्राप्त करते हैं लेकिन वे बड़ी संख्या में आंतरिक और डीयू की अंतिम परीक्षा में असफल होते हैं। यहाँ साफ़ तौर पर उत्कृष्टता के विचार में एक बड़ा विरोधाभास देखा जा सकता है।
निवारण तंत्र की अनुपस्थिति
एक कक्षा में मेरिट में आने वाले छात्रों की ऐसी सामूहिक असफलता को विभागों / अधिकारियों को अपने ध्यान में लेना चाहिए और सुधारात्मक उपायों पर जल्द से जल्द विचार करना चाहिए। इसका सबसे गंभीर पहलू डीयू में संस्थागत स्तर पर किसी भी सुधारात्मक, निवारण तंत्र की अनुपस्थिति है। बड़े पैमाने पर विफलता का डेटा ही उपलब्ध नहीं है केवल अलग-अलग छात्र को विश्वविद्यालय की रिपोर्ट्स में ‘असफल’ के रूप में दर्ज किया गया है। सेमेस्टर प्रणाली के दौरान अपनाए गए बैच वाइज रिजल्ट का खुलासा नहीं करने की नीति किसी भी तरह की अकादमिक जांच की बदसूरत वास्तविकता को छिपाती है।
मैथमैटिक्स डिपार्टमेंट
हमने गणित विभाग में जो देखा है वह चौंकाने वाला और अविश्वसनीय है। 39 में से 35 छात्र, 300 में से 150 छात्र, जिनके पास योग्यता परीक्षा में सभी उच्च अंक थे, पहले और तीसरे सेमेस्टर में असफल रहे हैं। जब हमने कुछ शोध किया तो यह पता चला कि पिछले कई वर्षों से 80% से अधिक छात्र 2 वर्षों के पाठ्यक्रम को पूरा करने में विफल रहे हैं। कई छात्र उदास हो गए हैं, आत्महत्या का प्रयास किया या अपनी शिक्षा को इस दुख के साथ छोड़ दिया ।
NCWEB (गैर कॉलेजिएट महिला शिक्षा बोर्ड)
NCWEB को डीयू के सबसे उपेक्षित विभाग के तौर पर देखा जा सकता है, जहां छात्राएं, जो ज्यादातर मामलों में, नियमित विद्यार्थी के रूप में पंजीकृत होती है ताकि उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके। यहाँ पिछले वर्ष विफलता की दर 97% से भी ज्यादा है। यही नहीं यहाँ छात्राओं के इंटरनल मार्क्स भी विश्वविद्यालय द्वारा नहीं दिखाए जाते और भी कई चौंकाने वाले मामले हमने NCWEB में देखे, नॉन रेगुलर लड़कियों को बिना किसी प्रमाण दरकिनार किया जाता रहा है।
अन्य विभागों में भी गंभीर हालात
भौतिक विज्ञान विभाग जैसे अन्य विभागों में बड़े पैमाने पर विफलताओं आंकड़े मिले हैं जो गंभीर रूप से चिंतनीय हैं ये आंकड़े प्रशासन के निकम्मेपन का खुलासा करते हैं। पीजी छात्रों को विषय चुनने के विकल्प से भी वंचित किया जाता है, उन्हें बताया जाता है कि वें अंतत: विफल होने के लिए बाध्य है। शिक्षा व्यवस्था में विफल करने का ऐसा पूर्व निर्धारित तरीका बिल्कुल भयावह है और इसे करना करना संस्थान की जिम्मेदारी है.
पारदर्शिता की कमी और जारी लूट
डीयू में, सभी छात्रों को किसी भी विषय में पुन:मूल्यांकन के लिए 1,000 रुपये और रीचेकिंग कॉपी हासिल करने के लिए 750 रुपये का भुगतान करना पड़ता है। उत्तर पुस्तिकाओं की फोटोकॉपी प्रदान करने के लिए अतिरिक्त शुल्क भी देना पड़ता है। दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, डीयू ने 2015-16 और 2017-18 के बीच पुन:मूल्यांकन के लिए डाले गए फॉर्म्स के ज़रिए 2 करोड़ 89 लाख 12 हज़ार 310 रुपये कमाए। साथ ही, छात्रों की प्रतियों को उपलब्ध कराने के लिए विश्वविद्यालय ने 23,29,500 रुपये और रिचैकिंग के लिए 6,49,500 रुपये कमाए। जो कि 3 अकादमिक वर्षों की कुल अवधि में 3 करोड़ 18 लाख 91 हजार 310 रुपये है।
आरटीआई के माध्यम से उत्तर पुस्तिकायों की जानकारी मांगने पर उसे देने से इंकार करने के बाद, लूट की इस विनाशकारी नीति का खुलासा हो गया। जबकि RTI अधिनियम की धारा 2(J) यह बताती है कि कोई व्यक्ति किसी भी सार्वजनिक प्राधिकरण के तहत रखे गए अभिलेखों को “निरीक्षण के लिए, नोट बनाने के लिए, आंकड़ो के लिए ले सकता है. डीयू, दिल्ली उच्च न्यायालय में भी इसके कार्यान्वयन के खिलाफ लड़ रहा है, जबकि CIC द्वारा इस सन्दर्भ में निर्देश भी दिए गए हैं। “बड़े सार्वजनिक हित” बनाम “छोटे निजी हित” की इस लड़ाई में, माननीय न्यायालय द्वारा अपने ही छात्रों को पारदर्शिता दिखाने के सुझाव के बाद भी विश्वविद्यालय के असंवेदनशील प्रशासन द्वारा ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
विवादास्पद शैक्षणिक संस्थान और न्याय का न होना
न्यायिक अदालतें, अक्सर अकादमिक न्याय से इनकार करने वाले संस्थानों के खिलाफ किसी भी व्यक्ति की सहायता के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन यह स्पष्ट है एक बड़ी संख्या कोर्ट के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती है, इसके डॉ कारन हैं वहां लगने वाले खर्च और संसथान द्वारा पीड़ित बना दिए जाने का डर। अदालत में जाना अधिकांश छात्रों के लिए एक विकल्प नहीं है। जबकि शैक्षणिक संस्थान दिन-प्रतिदिन अधिक से अधिक विवादों का शिकार हो रहे हैं, वें या तो खुद अदालत के पास जाते हैं या छात्रों को न्यायिक प्रक्रिया पर मजबूर करते हैं जो छात्रों को अनिश्चित काल के लिए अवसाद और निराशा की काल कोठरी में फेंक देता है।
पुन:मूल्यांकन और रीचेकिंग बेहद महंगा उपाय हो गया है, जबकि सेमेस्टर प्रणाली के बाद पूरक परिक्षाए भी बंद कर डी गई हैं। कोर्ट ने सीबीएसई द्वारा 10 लाख छात्रों में से केवल 0.21 प्रतिशत के विफल होने के तर्क के बावजूद पुन:मूल्यांकन को स्क्रैप करने के प्रयासों को विफल कर दिया, तब भी विश्वविद्यालय असंवेदनशील अध्यादेशों और नीतियों के द्वारा छात्रों के इस अधिकार का हनन कर रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था की आवश्यक चीज़ें जैसे कि पुन:मूल्यांकन आजकल नवपूंजीवादी युग में विश्वविद्यालय के लिए एक शोषण का हथकंडा बन गया है।
कौन है इसका ज़िम्मेदार?
सेमेस्टर सिस्टम और सीबीसीएस के लागू होने के बाद शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ें है, एक सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को 4 महीने के निर्धारित समय में अधीन किया जाता है, ऐसे में शिक्षकों और छात्रों को बहुत नुकसान होता है। ओवरसाइट निकायों द्वारा सार्थक हस्तक्षेप की पूर्ण अनुपस्थिति है और न्यायालय भी संस्थागत नीतियों को स्थापित करने में सुस्त और रूढ़िवादी हैं।
इन छात्रों के मामले में डीयू द्वारा दिखाए गए अहंकारपूर्ण उपेक्षा ने बौद्धिक वातावरण और सार्वजनिक विमर्श के इन संस्थानों को देश के युवाओं के हत्या के स्थानों में बदल दिया है। यूनिवर्सिटी का वाईस चांसलर, प्रो वाईस चांसलर, रजिस्ट्रार, डीन और विभाग के शिक्षक सभी इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं और इस संस्थागत तंत्र की कमी के लिए जिम्मेदार ठहराये जाने चाहिए जो जिसके कारण हमें इतनी बड़ी संख्या में विफलताओं को देखना पड़ा था। विशेष रूप से, डीयू के अन्य विभागों जैसे भौतिकी, अंग्रेजी, आदि और अन्य विश्वविद्यालयों से प्रदर्शन कर रहे इन विद्यार्थियों को मिलने वाला समर्थन ये बताता है कि इनका संघर्ष देश भर के विश्वविद्यालयों में जरी एक बड़ी समस्या का हिस्सा है, और सहानुभूतिपूर्वक इसका निवारण करना महत्वपूर्ण है। ऐसा नहीं करने के परिणाम भयावह होंगे, जैसा कि हमने रोहित वेमुला और कई अन्य लोगों के मामले में देखा, छात्रो की कई पीढियां गुजरने के बाद भी कोई एक आदर्श विद्यार्थी नहीं बन पाता, जब वह इस तरह की प्रणाली या अपने समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है।