फ़िल्म समीक्षा: सरदार उधम सिंह

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पुत्तर! जवानी रब का दिया हुआ तोहफ़ा है, अब ये तेरे ऊपर है, तू इस तोहफ़े को ज़ाया करता है या इसको कोई मतलब देता है।”

मैं भी रब से पूछूंगा मेरी जवानी का कोई मतलब बना।”

ये डायलॉग्स हैं फ़िल्म ‘सरदार उधम सिंह’ के, जो न केवल दर्शकों के दिल को छू जाते हैं बल्कि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि वाकई दुनिया के जिस सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क में हम रह रहे हैं उसको लोकतांत्रिक बनाने के लिए और आने वाली पीढ़ियों को उनका अधिकार दिलाने के लिए कितने साहस के साथ सैकड़ों लोगों ने क़ुर्बानियां दीं। यह फ़िल्म हमें यह भी बताती है कि राष्ट्रवादी नारों से इतर असल देशप्रेम क्या होता है!

फ़िल्म यह भी दिखाती है कि कैसे परिस्थितियां किसी इंसान को बदल कर रख देती हैं। एक 21 साल का मस्तमौला पंजाबी लड़का जो एक गूंगी लड़की के प्रेम में होता है और अपने पास हथियार तक रखना ज़रुरी नहीं समझता, वह आगे जाकर जनरल ड्वायर को मारकर ब्रिटिश सरकार में खलबली मचा देता है, साथ ही अकेले जलियांवाला बाग़ में मारे गए मासूम लोगों की जान का बदला ले ले लेता है।

फ़िल्म शुरु होती है एक ऐसे व्यक्ति को दिखाते हुए हुए जो अपने अंदर बदले की आग और दर्द का अंबार लिए सुलग रहा है और वह इस बदले की आग को लंदन में माइकल ओ डॉयर को गोली मार कर बुझाता है, जो कि जलियांवाला बाग़ नरंसहार के दौरान जनरल था और उसने निहत्थे और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर सीधे गोली चलाने का आदेश दे दिया था, जिसके परिणामस्वरुप हज़ारों लोग जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे, मौत के मुंह में समा गए।

सरदार उधम सिंह इस नरसंहार को बहुत क़रीब से देखते हैं। यह घटना उन्हें तोड़कर रख देती है और इसका बदला लेने के लिए वह 21 साल तक इंतज़ार करते हैं। वह भगत सिंह की पार्टी एचआरएसए से जुड़े होते हैं। अलग-अलग देशों में अलग-अलग पासपोर्ट से वह अपनी पहचान छुपाकर रहते हैं, अलग-अलग प्रकार की नौकरी करते हैं और आख़िरकार 21 साल के लंबे इंतज़ार के बाद उन्हें माइकल ओ डॉयर को मारने का मौक़ा मिल जाता है।

“निर्देशक शुजीत सरकार ने सरदार उधम सिंह की ज़िंदगी को रुपहले पर्दे पर दर्शाने के लिए बेहतरीन स्क्रिप्ट व ज़बरदस्त डायरेक्शन की लड़ी में पिरोया है। फ़िल्म हमें द्वितीय विश्व युद्ध के ज़माने में ले जाती है और ऐसा एहसास होता है कि हम उसी दौर में जी रहे हैं। पंजाब का जलियांवाला बाग़ या फिर लंदन की सड़कें, या आज़ादी के पहले की जेलें, हर दृश्य मज़बूत व दर्शक को बांधे रखने वाला है।” जलिंयावाला बाग़ कांड का दृश्य तो एकदम जीवंत लगता है। यह पहली बार है जब जलियांवाला बाग़ की घटना कोई पर्दे पर इस क़दर जीवंतता के साथ उतारा गया है।

फ़िल्म में भगत सिंह के किरदार को भी अच्छी तरह दर्शाया गया है। पारंपरिक फ़िल्मों से इतर इस फ़िल्म में भगत सिंह को मार्क्सवाद से प्रभावित एक क्रांतिकारी के रूप में दिखाया गया है। फ़िल्म में ड्वायर और डायर के फ़र्क को भी स्पष्ट कर दिया गया है और बताने की कोशिश की गई है कि उधम सिंह ने किसी कंफ्यूज़न के चलते ड्वायर को नहीं मारा था, वे जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं!

लेकिन फ़िल्म को देखने के लिए धैर्य की ज़रुरत भी है क्योंकि शुरुआत में फ़िल्म उबाऊ लगती है। कुछ सीन बहुत ही लंबे खींच दिए गए हैं तो कुछ सीन बिल्कुल ही छोटे कर दिए गए हैं। जैसे सरदार उधम सिंह के परिवार व ज़िंदगी को और गहराई से दिखाया जा सकता था। ब्रिटिश जेल में पूछताछ के सीन को लंबा खींच दिया गया है। इसीलिए फ़िल्म कहीं-कहीं पर थोड़ी बोरिंग भी लगने लगती है।

अगर आप वास्तविक देशप्रेम क्या होता है इसको महसूस करना चाहते हैं और जलियांवाला नरंसहार के दर्द को महसूस करना चाहते हैं तो यह फ़िल्म ज़रुर देखें जो कि ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म ‘अमेज़ॉन प्राइम वीडियो’ पर रिलीज़ हुई है। यह फ़िल्म स्पष्ट रूप से बताती है कि उधम सिंह के पास भी माफ़ी मांगने का विकल्प था। उनके शुभ चिंतक भी उन्हें सज़ा से बचाने के लिए माफ़ी मांग लेने को कहते हैं, लेकिन वह भगत सिंह की तरह फांसी का विकल्प चुनते हैं। उधम सिंह चाहते तो ओ’डॉयर को कभी भी, किसी भी स्थान पर मार सकते थे लेकिन उन्होंने लोगों से खचाखच भरे कैक्सटन हॉल को ही चुना ताकि घटना की गूँज दुनिया भर को सुनाई दे। केवल इसलिए कि देश में आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों में नया उत्साह पैदा हो सके और इतिहास उन्हें एक क्रांतिकारी के रुप में याद करे।

– सहीफ़ा ख़ान

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