क्या हमारा लालच हमारे अस्तित्व को ही ख़त्म कर देगा?

जब हम समुद्रों, जलाशयों और नदियों को देखते हैं, तो हमें पता चलता है कि पानी की कहानी इतनी सरल नहीं है। स्थिति इतनी खराब है कि नदियों में कचरा फेंकना अब आम बात हो गई है। वैज्ञानिक प्रमाणों के अनुसार गंगा का जल नहाने के लिए भी असुरक्षित है। यह सिर्फ़ गंगा की कहानी नहीं है, यह सभी नदियों और जलाशयों की कहानी है। प्रदूषित जल से होने वाली बीमारियों से मरने वालों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है।

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क्या हमारा लालच हमारे अस्तित्व को ही ख़त्म कर देगा?

– अखिलेश

पानी के विषय पर बात करने से पहले मैं आपको लालच के बारे में एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूं। एक बार की बात है, एक राजा को एक ऐसी बीमारी का पता चला, जिसका कोई इलाज नहीं था। राज्य के उच्च कोटि के डॉक्टरों के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, उसका स्वास्थ्य न सुधरा। डॉक्टरों ने हार मान ली। उस समय राजा ने एक घोषणा की, कि जो कोई भी मेरी बीमारी को ठीक करेगा, उसे उतनी ज़मीन दी जाएगी जितनी कि वह एक दिन में चल सकता है। तब एक व्यक्ति आया और उसने राजा की बीमारी को ठीक कर दिया। राजा वचन के अनुसार उसे भूमि देने के लिए बाधित था!

राजा ने कहा, “मेरे वचन के अनुसार, मैं तुम्हें उतनी ज़मीन दे दूंगा जितनी तुम पैदल चलकर एक दिन में तय कर सकते हो। कल सुबह 6 बजे तक आना, तुम कल मेरे सैनिकों की चौकस निगरानी में चलोगे; तुम जितनी अधिक भूमि पैदल चलकर तय करोगे, उतनी अधिक भूमि तुम्हारे पास होगी।” अगले दिन, सुबह 6 बजे वह व्यक्ति आया और चलना प्रारंभ कर दिया। दस क़दम चलने के बाद उसने अपनी गति बढ़ा दी। उसके लालच ने उसे और अधिक दौड़ने के लिए कहा क्योंकि जितना अधिक वह दौड़ेगा, उतनी ही अधिक भूमि उसे मिलेगी। घोड़े पर सवार सैनिक उस व्यक्ति का पीछा कर रहे थे। सूरज निकलते ही वह आदमी थक गया। लेकिन वह दौड़ता रहा। उसे प्यास लगी, लेकिन उसकी अंतरात्मा ने उससे कहा कि थोड़ी देर और दौड़ लो, फिर पानी पी लेना। पानी भी पास मौजूद नहीं था। उसका पूरा शरीर निर्जलित था और उसे पानी की आवश्यकता थी, लेकिन वह और भूमि के लिए दौड़ता रहा। उसके शरीर को पानी की ज़रूरत थी, लेकिन उसके लालच ने ऐसा होने से रोक दिया। आदमी बीच में ही गिर कर मर गया। यह कहानी आधुनिक मनुष्य के लालच की पुष्टि करती है।

विश्व के कुल जल संसाधनों का लगभग 96 प्रतिशत जल खारा है, जो महासागरों और समुद्रों में संग्रहित है। हिमखंड के रूप में जल 1.55 प्रतिशत है। भूमिगत जल संपूर्ण जल का लगभग 1.6 प्रतिशत है। नदियां, झीलें और तालाब कुल मौजूद जल का लगभग 0.76 प्रतिशत बनाते हैं। जीवित रहने के लिए पृथ्वी पर सभी सजीवों पानी की इसी छोटी मात्रा पर निर्भर हैं। अन्य सजीव, मनुष्यों की तुलना में काफ़ी कम पानी की खपत करते हैं। एक हाथी हर दिन 100 से 150 लीटर पानी की खपत करता है। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार, एक मनुष्य प्रतिदिन 135 लीटर पानी का उपयोग करता है। एक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 11,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। 1 किलो चावल उगाने के लिए 1400 लीटर पानी की ज़रूरत होती है। यदि एक व्यक्ति लगभग 300 ग्राम चावल का सेवन करता है तो वह प्रतिदिन लगभग 450 लीटर पानी की खपत करता है। इसके अलावा अन्य अनाज, सब्ज़ियों वगैरह के लिए इस्तेमाल होने वाला पानी अलग होता है। इतना ही नहीं, कपड़े, मेकअप सामग्री, जूते, साइकिल, कार और बाइक के उत्पादन में प्रयोग होने वाले पानी पर भी गौ़र करना चाहिए। जब हम सब-कुछ एक साथ जोड़ते हैं, तो हम कह सकते हैं कि एक आदमी प्रतिदिन 11000 लीटर पानी का उपयोग करता है।

जब शुद्ध जल की तुलना खारे जल से की जाती है तो शुद्ध जल का अनुपात बहुत कम होता है। अगर ऐसा है तो हम कह सकते हैं कि पानी अनमोल है। इसीलिए जल संरक्षण हम सबका दायित्व है। हालांकि, जब हम समुद्रों, जलाशयों और नदियों को देखते हैं, तो हमें पता चलता है कि पानी की कहानी इतनी सरल नहीं है। स्थिति इतनी खराब है कि नदियों में कचरा फेंकना अब आम बात हो गई है। वैज्ञानिक प्रमाणों के अनुसार गंगा का जल नहाने के लिए भी असुरक्षित है। यह सिर्फ़ गंगा की कहानी नहीं है, यह सभी नदियों और जलाशयों की कहानी है। प्रदूषित जल से होने वाली बीमारियों से मरने वालों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। देशों, राज्यों और यहां तक कि आस-पड़ोस के घरों के बीच भी पानी को लेकर युद्ध छिड़ गए हैं। पानी के नाम पर लोग मारे जा रहें है। तो सवाल यह है कि इतने मूल्यवान संसाधन की इतनी अवहेलना क्यों हो रही है? जल की परिपूर्णता के प्रति लोगों के स्वभावों का अध्ययन काफ़ी फ़ायदेमंद होगा।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, जल संसाधन और भूमिगत जल विकास मंत्री ने कहा है कि 2900 करोड़ की लागत से दक्षिण कन्नड़, चिकमगलूर और कोडागु ज़िलों के पश्चिमी हिस्से से बहने वाली नदियों के लिए 1400 बांध बनाए जाएंगे। इसके साथ ही ‘कार लैंड’ नाम का प्रोजेक्ट शुरू किया गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नदी का पानी समुद्र में जाकर बर्बाद न हो। चिक्कबल्लापुरा, कोलार पश्चिमी घाट जैसे दूरस्थ स्थान‌‌ बर्बाद हो चुके हैं और स्थायी पेयजल के नाम पर 30 फ़ीट गहरे बड़े पाइप लगाने का काम शुरू हो गया है। हालांकि, विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्तमान में केवल 4 TMC पानी ही उपलब्ध है। यह कोई नहीं जानता कि 30 करोड़ रुपये की लागत के इस प्रोजेक्ट के विफल होने पर कौन ज़िम्मेदार होगा! इसे छोड़ भी दें तो यह कोई ढकी-छुपी बात नहीं है कि नेता बड़ी परियोजनाओं को पसंद करते हैं। किसी को यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पानी के नाम पर सत्ता में बैठे लोगों की जेब में पैसा कैसे आता है।

यदि चिक्कबल्लापुरा और कोलारा ज़िलों में झीलों की गाद को समुचित रूप से उठा लिया जाए तो इतनी बड़ी परियोजना की आवश्यकता नहीं होगी। हमारे इंजीनियरों का दिमाग़ इस तरह से काम नहीं करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज के शासकों में दूरदर्शिता का अभाव है। इस संदर्भ में कई विशेषज्ञों ने टिप्पणी की है कि हम कैसे शुद्ध वर्षा जल का संरक्षण कर सकते हैं। कर्नाटक के शिमोगा ज़िले में सागर तालुक के पास एक निजी जंगल विकसित किया जा रहा है। इसे ऊषा-किरण कहते हैं। पिछले दस वर्षों में यहां वन संरक्षण पर कई प्रयोग किए गए हैं। पानी पर सजीवों के प्रभाव, जैसे कि छोटे कीड़े और मेंढक आदि, का अध्ययन यहां किया गया है। नीलगिरी और बबूल जैसे देशी पौधों की भूख मिटाने के कारण इस भूमि की मिट्टी बंजर हो गई थी। मिट्टी की जल धारण करने की क्षमता क्षीण हो गई थी। मिट्टी को उसकी मूल स्थिति में बहाल करने में दस साल लग गए। 21 एकड़ के इस भूखंड पर गिरने वाले पानी को रोकने के भी प्रयास किए गए।

यह अनुमान लगाना असंभव है कि प्रत्येक वर्ष मिट्टी में कितना पानी जमा होता है। इसके लिए वर्षा जल माप उपकरण स्थापित किए गए थे। यह पता चला कि 1 मई 2020 से 1 मई 2021 के बीच ऊषा-किरण में 2880 मिमी. वर्षा दर्ज की गई, यदि हम ऊषा-किरण में 21 एकड़ भूमि पर गिरने वाले पानी की मात्रा की गणना करते हैं, तो हमें 2880 मिमी. मिलता है। जब हम इसे 21 एकड़ से गुणा करते हैं, तो परिणाम चौंकाने वाला होता है। एक साल में ऊषा-किरण ने 26,91,36,000 लीटर पानी जमा किया।

आइए इसी डेटा के साथ हम एक और गणना करें। संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार, एक आदमी को प्रतिदिन 135 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इसका मतलब है कि ऊषा-किरण में 19 लाख लोगों की आवश्यकता का पानी 21 एकड़ वन भूमि में संग्रहित किया गया। आइए अब इसे एक व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखें। बाज़ार में पानी की बोतल के साथ एक लीटर पानी की क़ीमत 20 रुपये है। अगर हमारे लिए नहीं तो यह जमा किया हुआ पानी किसी और के काम आ सकता है। बादलों से पानी जमा करने के लिए एक जंगल उग आया है। यदि हम न्यूनतम संभव लागत पर 26 करोड़ लीटर पानी की गणना करें तो समाज लाभान्वित होगा। जब हम 2,69,13,600 को मात्र 5 रुपये से गुणा करते हैं, तो हमें सैकड़ों करोड़ रुपये में आंकड़ा मिलता है, (1345680000) क्या यह चौंकाने वाला नहीं है?

ऊषा-किरण नाम का जंगल भले ही क़ानूनी रूप से हमारा हो, लेकिन उसके और अन्य वनों के निर्माण का कारण वहां रहने वाले जीव हैं। पक्षियों की सैकड़ों विभिन्न प्रजातियों ने इसमें भूमिका निभाई है। इंसानों और जानवरों को इससे दूर रखना हमारी एकमात्र ज़िम्मेदारी थी।  हमने शहद पैदा करने वाले किसी भी जीव या मधुमक्खियों को कोई पारिश्रमिक नहीं दिया। भले ही उनके ठिकाने नष्ट हो गए हों, उन्होंने कभी प्रतिरोध का प्रयास नहीं किया;  इसके बजाय, वे बस ग़ायब हो गए। मनुष्य पर्यावरण या उसमें रहने वाले जीवों को कोई लाभ नहीं देता है। इसके बजाय, हमने दूसरों को नुक़सान पहुंचाया है। यदि जानवरों को उसी तरह से भुगतान किया जाए जिस तरह से हम पानी के लिए भुगतान करते हैं, तो पूरी मानव जाति क़र्ज़ में डूब जाएगी।

इस सब के बाद अब हम कितने सक्षम हैं? पानी और शहद तो नहीं लेकिन जल्द ही हमारा अस्तित्व कल्पना मात्र होगा। इस ग्रह पर कुछ भी मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर नहीं करता है। जब हम उपकार के बोझ तले दब जाते हैं तो हमें किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए? हम सजीवों के कितने आभारी हैं जो हमारे अस्तित्व में योगदान देते हैं? विकास के घोड़े पर सवार होने के बाद हमारे पास इन जीवों के बारे में सोचने का समय नहीं है। हम विकास की अपनी भूख की तुलना भस्मासुर से कर सकते हैं। अपने ही सिर पर हाथ रखने के कारण भस्मासुर जल गया। यदि वह अपनी ग़लतियों से नहीं सीखता है, मनुष्य को उसी भाग्य का सामना करना पड़ेगा, और वह दिन दूर नहीं है।

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