छात्र संगठन स्टूडेंटस इस्लामिक ऑर्गेनाईज़ेशन ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या विवाद पर आये फैसले पर कहा है कि हम इसका सम्मान करते हैं। हालाँकि संगठन ने कहा है कि यह निर्णय अदालत के फैसले से अधिक एक दल को राजनीतिक रूप से पुरस्कृत करना है। हम निर्णय पर दिये गये तर्कों से हैरान हैं तथा इसमें कुछ विरोधाभास हैं जिनका ज़िक्र आवश्यक है:
1) कोर्ट ने माना है कि बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों ने कभी अपना दावा नहीं छोड़ा। जबकि उसने यह भी कहा कि मस्जिद का विध्वंस करना एक क़ानूनी उल्लंघन था। लेकिन मुस्लिम पक्षकारों ने उस कब्जे का जिक्र नहीं किया गया जो पूर्व मे छीना गया था।
2) मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी पिछली संरचना इस्लामी नहीं थी। लेकिन इसका भी कोई प्रमाण नहीं है कि यह मंदिर था। फिर कैसे फैसला हुआ?
3) निर्णय साक्ष्य के आधार पर होगा। विश्वास के आधार पर नहीं। लेकिन हिंदुओं का यह विश्वास कि यह राम का जन्मस्थान है, निर्विवाद रूप से न्यायालय द्वारा दोहराया गया और सही ठहराया गया है।
4) नमाज़ को आंतरिक आंगन में अदा करने की बात की गई। और ब्रिटिशों के आने से पहले ही नमाज़ बाहरी आंगन में की जाती रही है। लेकिन दोनों दावों को ‘संतुलित’ करने के लिए पूरी ज़मीन अब हिंदू पार्टियों को दे दी गई।
बाबरी मस्जिद के लिए दावा जमीन का नहीं था। ना ही 2.7 एकड़ या 5 एकड़ के लिए था। सवाल यह था कि क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर को तोड़कर किया गया था या नहीं? यह मुस्लिम पार्टियों का लगातार स्टैंड रहा है कि कोई भी मंदिर मस्जिद के निर्माण के लिए आधार नहीं था। और अगर मस्जिद वास्तव में एक मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी, तो वे इसके लिए सभी दावे छोड़ देंगे। चूंकि यह साबित नहीं हुआ कि पहले राम मंदिर उस स्थल पर मौजूद था और ये भी साबित हुआ कि मस्जिद का विध्वंस अपराध था। तो मंदिर बनाने से न्याय नहीं कैसे होगा ? मुस्लिम पक्षकारों को 5 एकड़ या 50 एकड़ देना भी मस्जिद को तोड़ने के अपराध को न्यायोचित नहीं करता है। ये पक्षपातपूर्ण ‘संतुलन’ है ।
कोर्ट ने यह स्वीकार किया है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस गैर कानूनी था। लेकिन उस मामले मे दोषियों को कहां सज़ा हुई, ना ही कोर्ट ने निर्देश दिए हैं। एसआईओ मांग करती है कि अपराधी चाहे व्यक्तिगत हो या संगठनों सबको मस्जिद तोड़ने और दंगा करने के जुर्म मे सज़ा मिले।
यहां हमारा मानना है कि न्याय की स्थापना के बिना वास्तविक शांति संभव नहीं है । हम नियम और कानून का सम्मान करने की भावना से फैसले को स्वीकार करते हैं। लेकिन हम इसे न्याय नहीं कह सकते। एसआईओ सभी नागरिकों से कानून के शासन का पालन करने और न्याय प्राप्त करने की दिशा में काम करने का आग्रह करती है।
निर्णय का सम्मान लेकिन इसे न्याय नहीं कहा जा सकता: एसआईओ
मुस्लिम पक्षकारों को 5 एकड़ या 50 एकड़ देना भी मस्जिद को तोड़ने के अपराध को न्यायोचित नहीं करता है। ये पक्षपातपूर्ण 'संतुलन' है ।