कैसे बचेंगी हमारी बेटियां!

कभी आपने सोचा है कि आज देश में बलात्कार के लिए फांसी और उम्रकैद सहित कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होने के बावज़ूद स्थिति में कोई बदलाव क्यों नहीं आ रहा है ? दरअसल बलात्कार को देखने और उसकी रोकथाम के प्रयासों की हमारी दिशा ही गलत है। हम स्त्रियों के प्रति इस क्रूरतम व्यवहार को सामान्य अपराध के तौर पर ही देखते रहे हैं, जबकि यह सामान्य अपराध से ज्यादा एक मानसिक विकृति, एक भावनात्मक विचलन है।

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पेंटिंग-Rohit G Rusia
अभी तेलंगाना में जिस तरह डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ अपराधियों ने सामूहिक दुष्कर्म कर उसे जिंदा जला दिया, उससे पूरा देश सदमे में है। हाल के वर्षों में ऐसी असंख्य लोमहर्षक ख़बरों के साथ जीने को हम अभिशप्त रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे हम यौन मनोरोगियों के देश में हैं जिसमें रहने वाली समूची स्त्री जाति के अस्तित्व और अस्मिता पर घोर संकट उपस्थित है। आज यह सवाल हर मां-बाप के मन में है कि इस वहशी समय में वे कैसे बचाएं अपनी बहनों-बेटियों को ? उन्हें घर में बंद रखना समस्या का समाधान नहीं। अपनी ज़िंदगी जीने का उन्हें पूरा हक़ है। वे सड़कों पर, खेतों में, बसों और ट्रेनों में निकलेंगी ही। हर सड़क पर, हर टोले-मोहल्ले में, हर स्कूल-कालेज में पुलिस की तैनाती संभव नहीं है। आमतौर पर क़ानून और पुलिस का डर ही लोगों को अपराध करने से रोकता है। यह डर तो अब अब रहा नहीं। वैसे भी हमारे देश के क़ानून में जेल, बेल, रिश्वत और अपील का इतना लंबा खेल है कि न्याय के इंतज़ार में एक जीवन खप जाता है। दरिंदों के हाथों बलात्कार की असहनीय शारीरिक, मानसिक पीड़ा और फिर अमानवीय मौत झेलने वाली देश की हमारी बच्चियों और किशोरियों के लिए हमारे भीतर जितना भी दर्द हो, हमारी व्यवस्था के पास उस दर्द का क्या उपचार है ? संवेदनहीन पुलिस, सियासी हस्तक्षेप, संचिकाओं में वर्षों तक धूल फांकता दर्द, भावनाशून्य न्यायालय, बेल का खेल और तारीख पर तारीख का अंतहीन सिलसिला। इक्का-दुक्का चर्चित मामलों को छोड़ दें तो सालों की मानसिक यातना के बाद निचले कोर्ट का कोई फैसला आया भी तो उसके बाद उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय और दया याचिकाएं का लंबा तमाशा! स्थिति विस्फोटक हो चुकी है। लोगों का धैर्य जवाब देने लगा है। इन डरावनी परिस्थितियों में इस बात की पूरी आशंका है कि लोग क़ानून को अपने हाथ में लेकर सड़कों पर बलात्कारियों को सजा देने लगें। वैसे भी इन दिनों देश में क़ानून पर भीड़तंत्र हावी है। इस्लामी कानूनों के मुताबिक़ एकदम संक्षिप्त सुनवाई के बाद बीच चौराहों पर लटकाकर इन हैवानों को मार डालना एक कारगर क़दम हो सकता है, पर दुर्भाग्य से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव नहीं।
कभी आपने सोचा है कि आज देश में बलात्कार के लिए फांसी और उम्रकैद सहित कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होने के बावज़ूद स्थिति में कोई बदलाव क्यों नहीं आ रहा है ? दरअसल बलात्कार को देखने और उसकी रोकथाम के प्रयासों की हमारी दिशा ही गलत है। हम स्त्रियों के प्रति इस क्रूरतम व्यवहार को सामान्य अपराध के तौर पर ही देखते रहे हैं, जबकि यह सामान्य अपराध से ज्यादा एक मानसिक विकृति, एक भावनात्मक विचलन है। इस विकृति को बढ़ावा देने के लिए इंटरनेट पर असंख्य अश्लील फिल्में और वीडियो क्लिप्स उपलब्ध हैं। स्त्रियों के साथ यौन अपराध पहले भी होते रहे थे, लेकिन इन फिल्मों की सर्वसुलभता के बाद बलात्कार के आंकड़े आसमान छूने लगे हैं। इन फिल्मों का सेक्स सामान्य नहीं है। यहां आपकी उत्तेजना जगाने के लिए अप्राकृतिक सेक्स, जबरन सेक्स, हिंसक सेक्स, सामूहिक सेक्स, चाइल्ड सेक्स और पशुओं के साथ सेक्स भी हैं। हद तो यह है ये फिल्में अगम्यागमन अर्थात पिता-पुत्री, मां-बेटे, भाई-बहन के बीच भी शारीरिक रिश्तों के लिए भी उकसाने लगी हैं। सब कुछ खुल्लम-खुल्ला। इन्टरनेट पर क्लिक कीजिये और सेक्स का विकृत संसार आपकी आंखों के आगे खुल जाएगा। परिपक्व लोगों के लिए ये यह सब मनोरंजन और उत्तेजना के साधन हो सकते हैं, लेकिन अपरिपक्व और कच्चे दिमाग के बच्चों, किशोरों, अशिक्षित या अल्पशिक्षित युवाओं पर इसका जो दुष्प्रभाव पड़ता है उसकी कल्पना भी डराती है।
स्त्री देह पर अनंत वर्जनाओं का आवरण डालकर उसे रहस्यमय बना देने वाली हमारी संस्कृति में ऐसी फिल्मों के आदी लोग अपने दिमाग में सेक्स का एक ऐसा काल्पनिक संसार बुन लेते हैं जिसमें स्त्री व्यक्ति नहीं, देह ही देह नज़र आने लगती है। देह भी ऐसी जहां उत्तेजना और मज़े के सिवा कुछ भी नहीं। नशा ऐसे लोगों के लिए तात्कालिक उत्प्रेरक का काम करता है जो लिहाज़ और सामाजिकता का झीना-सा पर्दा भी गिरा देता है। यह मत कहिए कि मां-बाप द्वारा बच्चों को नैतिक शिक्षा और अच्छे संस्कार देना इस समस्या का हल है। मोबाइल और इन्टरनेट के दौर में ज्यादातर बच्चे मां-बाप से नहीं, यो यो हनी सिंह, सनी लिओनी और गूगल पर मुफ्त में उपलब्ध असंख्य अश्लील वीडियो क्लिप से ही प्रेरणा ग्रहण करेंगे। अगर बलात्कार पर काबू पाना है तो बलात्कारियों के खिलाफ एक तय समय सीमा में अनुसन्धान, ट्रायल और सजा के कठोर प्रावधानों के अलावा बेहद आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध अश्लील सामग्री को कठोरता से प्रतिबंधित करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। कुछ लोगों के लिए अश्लील फ़िल्में देखना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला हो सकता है, लेकिन जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक नैतिकता और जीवन-मूल्यों को तार-तार कर दे, वैसी स्वतंत्रता को निर्ममता से कुचल देना ही हितकर है।
पूर्व आईपीएस, बिहार

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