इस्लाम, हिजाब और आधुनिकता के साथ इसका टकरावबुर्का या हिजाब शब्द कुरान या पैगंबर की बातों (हदीस) में अंकित नहीं है। मदीना में एक इस्लामिक राज्य की स्थापना के बाद, कुरान ने मुख्य रूप से पुरुषों को अपनी नज़रों को झुका कर रखने का आदेश दिया (वासना के साथ महिलाओं की तरफ देखने से रोकने के लिए) ताकि समाज में लैंगिक बातचीत के शिष्टाचार में सुधार लाया जा सके।कुरान ने तब महिलाओं को संबोधित किया: और मुस्लिम महिलाओं को आज्ञा दी कि वे अपने रूप को नीचा दिखाएं और अपने निजी अंगों की सुरक्षा करें और अपने श्रृंगार को प्रकट न करें, सिवाय उसके जो खुद प्रकट होता है, और अपनी छाती को अपने हिजाब से ढक लें , और उनकी बनावट को प्रकट न करें……” [25:41]
इस आयत में इस्तेमाल किया गया शब्द ‘खिमार’ है, जो पारंपरिक रूप से एक कपड़ा था जिसे अरब महिलाएं अपने बालों से पीछे की ओर लटकाती थीं। आयत में आदेश हुआ कि महिलाएं अपनी छाती और सिर को ढंकने के लिए खीमार का उपयोग करें।लगभग पूरी दुनिया में, महिलाएं धार्मिक पूजा स्थलों में प्रवेश करते समय अपना सिर ढक लेती हैं। हालांकि आधुनिकता ने इस प्रथा को खत्म कर दिया है, पर यह अभी भी जारी है। मैं एक अंग्रेजी चर्च मे गया,जहां मौजूद उपस्थित लोग थोड़े आधुनिक थे और उन्होंने छोटी स्कर्ट पहन रखी थी। एक या दो महीने बाद, जब मैं दुबारा वहाँ पहुंचा, प्रवेश द्वार पर एक बोर्ड लगा दिखा जिसमे लिखा था “आप भगवान के घर में हैं, कृपया शालीनता से कपड़े पहनें”. जबकि अधिकांश धर्मों ने शालीनता को धार्मिक स्थानों तक ही सीमित कर दिया है, इस्लाम ऐसा नहीं करता । शालीनता इस्लामिक उसूलों का केंद्र बिन्दु है और यही कारण है कि पुरुषों और महिलाओं को समाज में एकसाथ शांतिपूर्ण ढंग से जीने के लिए ऐसे कुछ गुणों को अपनाने के लिए निर्देशित करता है।
जबकि कई लोगों का मानना है कि हिजाब का उद्देश्य महिलाओं को घरों तक सीमित रखना है,हालांकि हकीकत काफी उलट है । हिजाब के संबंध में जो आयात कुरान मे आई हैं उनका का उद्देश्य और भाव इस बात को जाहिर करना था कि महिलाएं समाज में सक्रिय भूमिका निभाएंगी। अगर मकसद,महिलाओं को उनके घरों तक ही सीमित रखना होता तो हिजाब की जरूरत नहीं पड़ती।इसकी महत्ता के हिसाब से हिजाब असल मे सिर्फ काले कपड़े की वर्दी नहीं है जिसे लगाने की आवश्यकता है, बल्कि पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए शालीनता का एक ड्रेस कोड है। हिजाब जहां ईश्वर के प्रति समर्पण का प्रतीक है, वहीं समाज में इसके सामाजिक-राजनीतिक मायने भी हैं। हिजाब शालीनता और गरिमा का प्रतीक है।
वैश्वीकरण और सभ्यताओं के टकराव के युग में, पश्चिमी (आधुनिक) ड्रेसिंग शैली ने सभी सभ्यताओं की संस्कृति और जीवन शैली पर अपना प्रभाव डाला है। जापानी से लेकर चीनी तक सभी सभ्यताएं अब ड्रेसिंग के पश्चिमी मानदंडों का पालन करती हैं; एकमात्र इस्लामी सभ्यता है जो इससे मुकाबला कर रही है और इसने हिजाब को बाकी रखा है। साम्राज्यवादी नारीवाद के समय में हिजाब आधुनिकता की लहरों के सामने एक मजबूत दीवार बनकर खड़ी है जो महिलाओं को केवल उपभोग की वस्तु बनाकर पेश करना चाहते हैं ।
हिजाब और आधुनिकता के बीच का संघर्ष
उपनिवेशवाद के दौर से जारी है। जिसे एडवर्ड सईद ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति और साम्राज्यवाद’ में ‘इंपीरियल नारीवाद’ का नाम दिया । उन्होंने इम्पीरीअल नारीवाद को इस तरह परिभाषित किया है “’ओरिएंटलिज्म’ के तरह की एक प्रवृति जिसमें यूरोपीय स्कालर्शिप , संस्कृति और समाज गैर-पश्चिमी सभ्यताओं की संस्कृति, प्रथाओं और समाज को नैतिक रूप से भ्रष्ट और पिछड़ा बताने की कोशिश करता है और पूरी दुनिया में उसकी ऐसी छवि बना देता है ताकि उन पर नियंत्रण स्थापित कर सके”. अफगानिस्तान आक्रमण के दौरान इम्पीरीअल नारीवाद का पुनरुत्थान देखा जा सकता है, जब अमेरिका ने घोषणा की थी कि वह अफगानिस्तान में ‘महिलाओं को उनके हिजाब से मुक्त’ करने जा रहा है।
पसंद की दुविधा नैतिकता और पसंद का एक दूसरे से मिलन एक जटिल गाँठ की तरह है। दुनिया में सभी संस्थान नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करते हैं। कार्यस्थल और विश्वविद्यालयों में, लोग ड्रेसिंग, फैशन, मानव व्यवहार और एक दूसरे से घुलने मिलने के सारे तौर तरीकों में एक आचार संहिता से बंधे होते है। मुझे एक उदाहरण के माध्यम से इसे समझाने दें:सभी अधिकारों से आत्महत्या कानूनी होनी चाहिए। क्योंकि यह एक व्यक्ति की पसंद है कि वह अपने जीवन के साथ ऐसा करे जैसा कि उन्हें पसंद है। राज्य को किसी भी व्यक्ति की पसंद में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है जो यह तय कर सके कि उसका जीवन अब जीने लायक है या नहीं। इसे अपराध बनाने या गलत कहने का कोई नैतिक औचित्य नहीं बनता है। हालाँकि, यह धर्म है जो कहता है कि जीवन भगवान द्वारा दिया गया है, और कोई भी ऐसे मामलों को अपने हाथों में नहीं ले सकता है। यदि ‘चुनाव’ ही सभी निर्णयों के लिए केंद्रीय आधार है और नियम और विनियम इसके लिए बाधा हैं, तो हम अराजकता में फंस जाएंगे।
नोट: यह सिर्फ एक उदाहरण है नैतिकता और चुनाव के अधिकार के बीच के जटिल संबंधों को दर्शाने के लिए । और ये किसी भी तरह से आत्महत्या के इरादे का समर्थन नहीं करता है। ईरान राज्य एक धर्मतंत्र (थिओक्रेसी) है और अपनी संवैधानिक सीमाओं का पालन करते हुए पुरुषों और महिलाओं के लिए एक ड्रेस कोड को लागू करता है। जर्मनी में महिलाएं पब्लिक पूल में टॉपलेस हो सकती हैं। सऊदी अरब में महिलाओं को कम से कम ऐसे कपड़े पहनने पड़ते हैं जो गर्दन से घुटने तक शरीर को ढकते हों। फ्रांस में, पुरुषों और महिलाओं को इस तरह से कपड़े पहनने की अनुमति नहीं है जिससे किसी भी तरह की धार्मिक पहचान जाहिर होती हो। ये सब राज्य के संस्थानों के नियमों और विनियमों के भीतर लागू किए गए ड्रेस कोड हैं।
नारीवाद मुख्य रूप से महिलाओं से उनका स्त्रीत्व छीन कर उन्हें आजाद करना चाहता है। बालों को काटने से लेकर गर्भपात के अधिकार के आंदोलन तक की घटनाएं नरिवाद की इस प्रवृति का सुबूत हैं। और फिर यही कारण है कि पश्चिम में नारीवादी हिजाब से घृणा करती हैं। 16 देशों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा रखा है और 2 देश ऐसे हैं जहां हिजाब अनिवार्य है। हिजाब पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों में ऑस्ट्रिया, चीन, फ्रांस, डेनमार्क आदि शामिल हैं; ऐसे देश जिन्हें स्वतंत्रता और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।
गलत व्याख्या और गलत तरीके से प्रस्तुत आयात:
चर्चित आयात में से एक आयत जिसे व्यापक रूप से गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है:“धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं है। वास्तव में, सही रास्ते को गलत रास्ते से अलग कर दिया गया है”। कुरान में दाऊद और गोलियत के बीच युद्ध के बारे में बताने के तुरंत बाद ये आयतें उतारी गईं। यह आयत उन गलत धारणाओं को खत्म करने के लिए उतारी गई थी कि जिससे यह संदेश जा रहा था की इस्लाम काफिरों के खिलाफ युद्ध चाहता है। यह दर्शाता है कि इस्लाम को बलपूर्वक गैर-मुसलमानों पर लागू नहीं किया जा सकता है या दूसरे शब्दों में कहें तो यह जबरन धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाता है। हालांकि, एक बार जब कोई इंसान इस्लाम में दाखिल हो गया, फिर वो भगवान द्वारा लागू किए गए अध्यादेश में से अपनी पसंद और नापसंद नहीं चुन सकता है ।
निष्कर्ष:
महासा अमीमी की मृत्यु की कड़ी निंदा की जानी चाहिए। पुलिस की बर्बरता उत्पीड़न के समान है, चाहे कारण कुछ भी हो या फिर कोई किसी गंभीर अपराध का दोषी हो या न हो। ‘ठीक से हिजाब नहीं पहनने’ के लिए किसी को अपराधी नहीं बनाया जा सकता है। इस्लामिक स्टेट में हिजाब पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए एक आचार संहिता है जिसे लागू किया जाना चाहिए। इसका पालन न करने वालों के साथ सलाह, मशविरा और ज्ञान के माध्यम से निपटा जाना चाहिए। दुनिया भर में कानून-व्यवस्था सार्वजनिक मर्यादा बनाए रखने का साधन है और किसी भी तरह से इसका उल्लंघन होने पर जुर्माना लगाया जाता है। खुले में शौच, गंदगी फैलाना, सड़क पर थूकना या अशिष्ट ड्रेसिंग ये सभी उल्लंघन इस्लामिक राज्य में एक ही पैमाने पर आते हैं।
‘गश्त-ए-इरशाद’, पश्चिमी मीडिया ने जिसे ‘नैतिकता पुलिस’ कहा है, उसका अनुवाद सिर्फ ‘मार्गदर्शन स्क्वाड’ के रूप में किया जा सकता है। इस स्क्वाड का असल काम यह सुनिश्चित करना है कि पुरुषों और महिलाओं के द्वारा ड्रेस कोड और नैतिक आचरण का पालन किया जाए। समाज में नैतिक मूल्यों को शिक्षा के माध्यम से स्थापित करने की आवश्यकता है, न कि बलपूर्वक। जेल और यातना के तरीकों का पालन करना गैर-इस्लामी है और इसकी आलोचना होनी चाहिए। कानून की भाषा में कहें तो, इस्लामी धर्मतंत्र में हिजाब नहीं पहनना एक नागरिक उल्लंघन है, न कि आपराधिक।
इस्लाम एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जो सुसंगत और शांतिपूर्ण हो। यह मानवता का सम्मान और उत्थान करने के लिए अपने आदेशों को लागू करता है जबकि आधुनिकता महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाती है। जैसा की नोबेल पुरस्कार विजेता, तवाक्कोल कर्मन ने कहा है “शुरुआती समय में मनुष्य लगभग नंगा था, और जैसे-जैसे उसकी बुद्धि विकसित हुई, उसने कपड़े पहनना शुरू कर दिया। मैं आज जो कुछ भी हूं और जो पहन रहा हूं वह मनुष्य द्वारा हासिल किए गए विचारों और सभ्यता के उच्चतम स्तर का प्रतिनिधित्व करता है, और यह बिल्कुल भी पिछड़ापन नहीं है। बल्कि पिछड़ापन यह है की हम फिर से शरीर से कपड़े हटाना शुरू कर दें या यूं कहें की नग्नता की ओर बढ़ने लगें”।
अनुवाद – जीशान अखतर कासमी